Tuesday, December 15, 2009

दयानन्द जी ने क्या खोजा क्या पाया? Dr.-anwar-jamal-research

मानवता को महाविनाश से बचाने के उद्देश्य से ही यह पुस्तक लिखी गई है। जगह-जगह मिलने वाले दयानन्दी बंधुओं के बर्ताव ने भी इस पुस्तक की ज़रूरत का अहसास दिलाया और स्वयं स्वामी जी का आग्रह भी था-
``इस को देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझे वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है।´´ (भूमिका, सत्यार्थ प्रकाश, पृष्‍ठ-5)
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मिल्लत उर्दू/हिन्दी एकेडमी
मौहल्ला सोत, रूड़की

भूमिका
इनसान का रास्ता नेकी और भलाई का रास्ता है। यह रास्ता सिर्फ़ उन्हीं को नसीब होता है जो धर्म और दर्शन (Philosophy) में अन्तर जानने की बुद्धि रखते हैं। धर्म ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है जो मूलत: न कभी बदलता है और न ही कभी बदला जा सकता है, अलबत्ता उससे हटने वाला अपने विनाश को न्यौता दे बैठता है और जब यह हटना व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो तो फिर विनाश की व्यापकता भी बढ़ जाती है।
दर्शन इनसानी दिमाग़ की उपज होते हैं। समय के साथ ये बनते और बदलते रहते हैं। धर्म सत्य होता है जबकि दर्शन इनसान की कल्पना पर आधारित होते हैं। जैसे सत्य का विकल्प कल्पना नहीं होता है। ऐसे ही धर्म की जगह दर्शन कभी नहीं ले सकता। धर्म की जगह दर्शन को देना धर्म से सामूहिक रूप से हटना है जिसका परिणाम कभी शुभ नहीं हो सकता।
भारत एक धर्म प्रधान देश है। समय के साथ नये दर्शन पनपे और बहुत से विकार भी जन्मे। सुधारकों ने उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। लाखों गुरूओं के हज़ारों साल के प्रयास के बावज़ूद भारत की यह भूमि आज तक जुर्म, पाप और अन्याय से पवित्र न हो सकी। कारण, प्रत्येक सुधारक ने पिछले दर्शन की जगह अपने दर्शन को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया, धर्म को नहीं। स्वामी दयानन्द जी भी ऐसे ही एक सुधारक थे।
जिस भूमि के अन्न-जल से हमारी परवरिश हुई और जिस समाज ने हमपर उपकार किया उसका हित चाहना हमारा पहला कर्तव्य है। मानवता को महाविनाश से बचाने के उद्देश्य से ही यह पुस्तक लिखी गई है। जगह-जगह मिलने वाले दयानन्दी बंधुओं के बर्ताव ने भी इस पुस्तक की ज़रूरत का अहसास दिलाया और स्वयं स्वामी जी का आग्रह भी था-
``इस को देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझे वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है।´´ (भूमिका, सत्यार्थ प्रकाश, पृष्‍ठ-5)
सो मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया। अब ज़िम्मेदारी आप की है। आपका फै़सला बहुत अहम है। अपना शुभ-अशुभ अब स्वयं आपके हाथ है।
विनीत,
डॉ0 अनवर जमाल, बुलन्दशहर
ishvani@yahoo.in
मैं कौन हँ? और मुझे क्या करना चाहिये? 
एक इनसान जब होश संभालता है तो बहुत से प्रश्न उसके मन को बेचैन करते हैं। जब वह इस सृष्टि पर नज़र डालता है और पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं, फ़सलों और मौसमों को, धरती की सुंदरता और अंतरिक्ष की विशालता को, सूर्य से लेकर परमाणु तक को, उनकी संरचना, संतुलन और उपयोगिता को देखता है तो सहज ही कुछ प्रश्न पैदा होते हैं कि यह सब कुछ खुद से है या इसका कोई बनाने वाला और चलाने वाला है? अगर यह सब कुछ खुद से ही है तो इतना संतुलन और नियमबद्धता, इतनी व्यवस्था और उपयोगिता इन बुद्धि और चेतना से खाली निर्जीव पदार्थो में आई कैसे? और अगर कैसे भी इत्तेफ़ाक़ से आ गई तो फिर निरन्तर बनी हुई कैसे है? और अगर ऐसा नहीं है बल्कि किसी `ज्ञानवान हस्ती´ ने इस सृष्टि की रचना की है तो उसने ऐसा किस उद्देश्य से किया है? उसने मनुष्‍य को क्यों पैदा किया? और वह उससे क्या चाहता है? वह कौन सा मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्‍य अपनी पैदाईश के उद्देश्य को पाने में सफल हो सकता है? आदि आदि।
इन सवालों का जवाब केवल ज्ञान द्वारा की संभव है। और ज्ञान के लिए ज्ञानी की, एक गुरू की ज़रूरत है। ज्ञान देने वाला एक गुरू वास्तव में ज़मीन और आसमान के सारे खज़ानों से भी बढ़कर है क्योंकि केवल उसी के द्वारा मुनश्य अपने जीवन का वास्तविक `लक्ष्य´ और उसे पाने का `मार्ग´ जान सकता है और अपने लक्ष्य को पाकर अपना जन्म सफल बना सकता है। इस तरह एक सच्चे और ज्ञानी गुरू की तलाश हरेक मनुश्य की बुनियादी और सबसे बड़ी ज़रूरत है। लेकिन जैसा कि इस दुनिया का क़ायदा है कि हर असली चीज़ की नक़ल भी यहाँ मौजूद है इसलिए जब कोई मनुश्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीज़ों की भी सही जानकारी नहीं होती लेकिन ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।
ऐसे ही प्रश्नों के जवाब पाने के लिए बालक मूलशंकर ने अपना घर छोड़ा और एक ऐसे सच्चे योगी गुरू की खोज शुरू की जो उसे `सच्चे शिव´ के दर्शन करा सके। इसी खोज में वह `शुद्धचैतन्य´ और फिर `दयानन्द´ बन गये लेकिन उन्हें ऐसा कोई योगी गुरू नहीं मिल पाया जो उन्हें `सच्चे शिव´ के दर्शन करा देता। तब उन्होंने स्वामी बिरजानन्द जी से थोड़े समय वेदों को जानने-समझने का प्रयास किया। इस दौरान उन्होंने हिन्दू समाज में प्रत्येक स्तर पर व्याप्त पाखण्ड, भ्रष्‍टचार और अनाचार को खुद अपनी आंखों से देखा । तब उन्होंने अपनी सामर्थय भर इसके सुधार का बीड़ा उठाने का निश्चय किया। दयानन्द जी वास्तव में अपने निश्चय के पक्के और बड़े जीवट के स्वामी थे। उन्होंने अपने अध्ययन के मुताबिक अपना एक दृष्टिकोण बनाया और फिर उसी दृष्टिकोण के मुताबिक लोगों को उपदेश दिया और बहुत सा साहित्य रचा। यह साहित्य आज भी हमारे लिए उपलब्ध है ।

क्या दयानन्द जी का आचरण उनके दर्शन के अनुकूल था?
स्वामी जी की मान्यताएं सही हैं या गलत? और वह `संसार को मुक्ति´ दिलाने के अपने उद्देश्य में सफल रहे या असफल? और यह कि क्या वास्तव में उन्हें सत्य का बोध प्राप्त था? आदि बातें जानने के लिए स्वयं उनके आहवान पर उनके साहित्य का अध्ययन करना ज़रूरी है । सच्चाई जानने के लिए उनके जीवन को स्वयं उनकी ही मान्यताओं की कसौटी पर परख लेना काफ़ी है क्योंकि सच्चा ज्ञानी वही होता है जो न केवल दूसरों को उपदेश दे बल्कि स्वयं भी उस पर अमल करे ।
दयानन्द जी मानते थे कि अपराधी को क्षमा करना अपराध को बढ़ावा देना है -`क्या ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है? इसके उत्तर में वे कहते हैं -
`नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्‍ट हो जाये और सब मनुश्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेश्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं। (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्‍ठ 127)
`न्याय और दया का नाम मात्र ही भेद है क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से...... क्योंकि जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया हो उसको उतना वैसा ही दण्ड देना चाहिये, उसी का नाम न्याय है। और जो अपराधी को दण्ड न दिया जाए तो दया का नाश हो जाए क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरूषों को दुख देना है। जब एक के छोड़ने में सहस्त्रों मुनश्यों को दुख प्राप्त होता है, वह दया किस प्रकार को सकती है? (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम0, पृष्‍ठ 118)
अब दयानन्दजी के उपरोक्त दर्शन के आधार पर स्वयं उनके आचरण को परख कर देखिये कि दया और न्याय का जो सिद्धान्त उन्होंने ईश्वर, राजा और धार्मिक जनों के लिए प्रस्तुत किया है स्वयं उस पर कितना चलते थे?
स्वामी जी को पता लग गया कि जगन्नाथ ने यह कार्य किया है। उन्होंने उससे कहा ---- ''जगन्नाथ, तुमने मुझे विष देकर अच्छा नहीं किया। मेरा वेदभाष्‍य कार्य अधूरा रह गया। संसार के हित को तुमने भारी हानि पहुँचाई है। हो सकता है, विधाता के विधान में यही हो । ये रूपए रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। यहाँ से नेपाल चले जाओ क्योंकि यहाँ तुम पकड़े जाओगे। मेरे भक्त तुम्हें छोड़ेंगे नहीं''। (युगप्रवर्तक0, पृष्‍ठ 151)
दयानन्द जी द्वारा अपने अपराधी को क्षमा कर देने की यह पहली घटना नहीं है बल्कि अनगिनत मौकों पर उन्होंने अपने सताने वालों और हत्या का प्रयास करने वालों को क्षमा किया है।
`फरूखाबाद में आर्यसमाज के एक सभासद की कुछ दुष्‍टों ने पिटाई कर दी। लोगों ने स्कॉट महोदय से उसे दण्ड दिलाया । पर स्वामीजी को रूचिकर न लगा। उन्होंने स्कॉट महोदय तथा सभासदों से कहा - ''चोट पहुंचाने वाले को इस तरह दण्डित करना आपकी मर्यादा के खिलाफ है। महात्मा किसी को पीड़ा नहीं देते, अपितु दूसरों की पीड़ा हरते हैं।'' (युगप्रवर्तक0, पृष्‍ठ 130)
सम्वत् 1924 में भी स्वामीजी को एक ब्राह्मण ने पान में जहर खिला दिया था। कर्तव्यनिशष्‍ठ तहसीलदार सय्यद मुहम्मद ने अपराधी को गिरफ्तार करके स्वामी जी के आगे ला खड़ा किया तो वे बोले -
''तहसीलदार साहब, मैं आपके कर्तव्यनिश्ठा से अत्यन्त प्रभावित हूँ। लेकिन आप इसे छोड़ दें। कारण, मैं संसार को कैद कराने नहीं, अपितु मुक्त कराने आया हूँ। यदि दुष्‍ट अपनी दुष्‍टता नहीं छोड़ता, तो हम सन्यासी अपनी उदारता कैसे छोड़ सकते हैं।'' (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द, पृष्‍ठ 49)
(1) इस प्रकार अपराधियों को क्षमा करना और दण्ड से छुड़वाना क्या स्वयं अपनी दार्शनिक मान्यता का खण्डन करना नहीं है?
(2) क्या स्कॉट महोदय व तहसीलदार आदि दुष्‍टों को दण्ड देने वालों से दुष्‍टों को छोड़ने की सिफारिश करना उनको राजधर्म के पालन करने से रोकना नहीं है। जिसकी वजह से दुष्‍टों का उत्साह बढ़ा होगा और वे अधिक पाप करने में प्रवृत्त हुए होंगे?
(3) क्या दयानन्द जी ने न्याय और दया को नष्‍ट नहीं कर दिया?
(4) क्या इस पाप कर्म की वृद्धि का बोझ दयानन्द जी पर नहीं जाएगा?
(5) क्या इस बात की संभावना नहीं है कि इसी प्रकार के आचरण को देखकर जगन्नाथ पाचक ने सोचा होगा कि अव्वल तो मैं पकड़ा नहीं जाऊंगा और यदि पकड़ा भी गया तो कौन सा स्वामी जी दण्ड दिलाते हैं, ''हाथ जोड़ने आदि चेष्‍टा'' करके बच जाऊंगा और स्वामी जी की क्षमा करने की इसी आदत ने उस हत्यारे का उत्साह बढ़ाया हो?
(6) दयानन्द जी ने अपनी दार्शनिक मान्यता के विपरीत जाकर अपने हत्यारे को क्यों क्षमा कर दिया?
(7) क्या अपने आचरण से उन्होंने अपने विचारों को निरर्थक और महत्वहीन सिद्ध नहीं कर दिया?
(8) `संसार के हित को भारी हानि पहुंचाने वाले´ दुष्‍ट हत्यारे को क्षमा करने का अधिकार तो स्वयं संसार को भी नहीं है बल्कि यह अधिकार तो दयानन्द जी ईश्वर के लिए भी स्वीकार नहीं करते। फिर स्वयं किस अधिकार से एक दुष्‍ट हत्यारे को क्षमा करके रूपये देकर उसे भाग जाने का मशविरा दिया?
(9) क्या एक दुष्‍ट हत्यारे को समाज में खुला छोड़कर उन्होंने एक अपराधी के उत्साह को नहीं बढ़ाया और पूरे समाज को खतरे में नहीं डाला?
उनके इस प्रकार के स्वकथन विरूद्ध आचरण से उनकी अन्य दार्शनिक मान्यताएं भी संदिग्‍ध हो जाती हैं। more 

12 comments:

  1. स्वामी जी का आग्रह-``इस को देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझे वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है।

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  2. वाह रे मेरे सहजात, दयानन्‍द जी ने तो खोजा-कुछ पाया-कुछ, हम तो जो चाहते हैं खोजते हैं जो चाहे पाते हैं, देखलो हम ऐसी पोस्‍ट ढूंड रहे थे जहां हम मचल सकें विचर सकें हमने ढूंड ली, आगे देखते हैं कौन अपनी मूंछ पर हाथ फेरता हुआ आता है वह भी बिना हमारे उसकी पूंछ पर पैर रखे

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  3. दयानंद सरस्वती एक सच्चे एकेश्वादी थे जो ईश्वर की परिकल्पना निराकार रूप में करते थे... लेकिन जहाँ तक मैंने उन्हें पढ़ा है उसमें उनसे केवल एक ही चूक हुई वह यह कि उन्होंने अपने द्वारा लिखित किताब में या निर्देशों में दिए गए सन्देश में उन्होंने उन ग्रन्थों का हवाला नहीं दिया जिनसे वह प्रभावित थे...

    सलीम ख़ान

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  4. @ खान साहब पढ लो इस पुस्‍तक में ज्ञान की बातें जो विज्ञान पर भारी हैं, विज्ञान नाम है झूठ का आज कुछ कहता कल कुछ कहता है, तुमने देखा होगा बडे-बडे वैज्ञानिक छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं नहीं पता तो हम बताऐंगे, पढते जाओ

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  5. "धर्म ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है जो मूलत: न कभी बदलता है और न ही कभी बदला जा सकता है, अलबत्ता उससे हटने वाला अपने विनाश को न्यौता दे बैठता है और जब यह हटना व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो तो फिर विनाश की व्यापकता भी बढ़ जाती है।"


    किसने कह दिया कि धर्म, ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है? धर्म का सम्बन्ध मनुष्य द्वारा गहन चिन्तन के बाद अपनाये गये (धारण किये गये) मार्ग से है। इसे आवश्यक होने पर बदला जा सकता है। यह 'पत्थर की लकीर' कतई नहीं है। केवल इस्लाम में मजहब को 'पत्थर की लकीर' माना गया है। हिन्दू धर्म तो 'सत्य शोधन' का दूसरा नाम है। इसीलिये कहते हैं कि हिन्दू धर्म में 'करेक्शन की मेकेनिज्म' अन्त:निर्मित(इन-बिल्ट) है। हिन्दुओ का वैशेषिक दर्शन का स्पष्ट उद्घोष है - "यतो हि अभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि स धर्म:" (जिससे इस लोक में अभ्युदय और परलोक में नि:श्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि हो वही धर्म है।)

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  6. @खान साहब यह अनुवाद भाई क्‍या कह गये, उर्दू में मुझे बताना, वेसे हमें तो इतना पता है इस्‍लाम में केवल अल्‍लाह का लिखा पत्‍थर की लकीर है, इनकी बातों से मैं तो यह समझा कि परलोक में सिद्धि हो यानि जैसे हम बुरा करेंगे तो दोजख में जाऐंगे अच्‍छा करेंगे स्‍वर्ग में, ठीक कहा भाई हमें परलोक की फिक्र करनी चाहिए, ज्ञानी लोगों की ज्ञानी बातें वैसे हमें परलोक और पुनर्जन्‍म पर भी ज्ञान है जो दोनों विपरीत बातें हैं वह फिर कभी और कुछ गहरी बातों के लिए अनवर जी को सूचित कर दिया गया है

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  7. vichaarpoorna aalekh

    swaami dayanand ko ek baar padh kar nahin samjha ja sakta..

    jaise gaalib ki gazalon ko ek baar me nahin samjhaa ja sakta

    swaami dayaanand lakir ke fakir nahin the, ve maanne me nahin jaanne me ruchi rakhte the aur har puraani manyata ka apne hisaab se parakh karte the..

    dhnya hain swaami dayanand aur dhnya hai unki khoj...tapasyaa aur sadhnaa..

    achhi post

    abhinandan !

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  8. @ अलबेला जी अपनी बात पर गोर किजिए, आपने यहाँ एक नज़र देखा होता तो जानते कि इधर तो केवल शायर का नाम है गजल तो कहीं और है, वाह-वाह करनी थी तो गजल पर एक नज़र डालके करते, खेर फिर भी आपके लिए तो गालिब का वह शे'र याद आ रहा है जो शायद यूं है ''वह आए हमारे घर खुदा की कुदरत//कभी उनको कभी अपने घर को देखते हैं ''

    स्वामी जी का आग्रह था-``इस को (पुस्‍तक सत्यार्थ प्रकाश) देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें।

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  9. क्या दयानन्द जी का आचरण उनके दर्शन के अनुकूल था?
    Swami Dayanand ji did what as a Sanyasi , he was required to do and this was as per his (Sanyasi's) Dharma and he had the courage to do that. But to do
    judgement & punish or reward someone is the responsibility & duty of the king and not of any one else. Hence the king of the land or the king of the Universe
    alone or His authorised agent can only do this. Suppose someone hurts me, can I punish him. No, I will have to approach the authority for delivering the judgement & the punishment if any & strictly as per the law of the land and incase of God as per the laws of the Sristy.(Universe).
    If I excuse someone in my ommunity or in my office for committing any mistake towards me, would that mean the administration will take no step to punish the person. It will be my greatness to forgive someone for doing injustice towards
    me, but it's the greatness of the administrator to punish the guilty , and not giving any heed to any relations to maintain the dignity of the Law.
    So Sh Anwar Jamal is gravely mistaken in understanding the principle of Justice by God & also in understanding the Darshan of Maharishi Dayanad ji, so his this
    research work stands faulty & hence is fully nullified.

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  10. मैं श्री बक्षी जी की बातों से पूर्णतया सहमत हूँ। महर्षि दयानन्द जैसा व्यक्तित्व सारे भारतवासियों के लिए आदर्श है। अनवर जमाल ने बहुत मूर्खतापूर्ण ढंग से दयानन्द जी के प्रति शंका प्रकट की है। अनवर जमाल जी को कुछ करने से पूर्व सोचना तो चाहिए था । मुझे कोई शक नहीं की अनवर जमाल जैसे व्यक्ति इस धरती पर केवल महापुरुषों को तर्करहित ढंग से निंदा करने हेतु पैदा लिए हैं।

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