हर किसी को मृत्यु के बाद स्वयं अपने प्रभु के सामने खड़े होना है और उत्तर देना है कि पृथ्वी लोक में ईश्वर के बताए हुए रास्ते पर चला अथवा नहीं? क्योंकि उत्तर स्वयं देना है इसलिए आस्था का मामला भी एकदम निजी है, इसमें किसी और का हस्तक्षेप तो हो ही नहीं सकता है, मैं अथवा तुम (अर्थात शुभचिंतक) तो सिर्फ राह ही दिखा सकते हैं. क्योंकि आस्था का सम्बन्ध ह्रदय से होता है इसलिए मनुष्य उसी राह पर चलता है जिसपर उसका ह्रदय "हाँ" कहता है.
इसमें एक बात बहुत ही अधिक ध्यान देने की है. और वह यह कि ईश्वर एक है और उसका सत्य मार्ग भी एक ही है. जिसने भी ईश्वर से प्रार्थना कि उसे सत्य के मार्ग का ज्ञान दे, तो वह अवश्य ही उस मार्ग का ज्ञान अमुक मनुष्य को देता है. चाहे वह मनुष्य समुन्द्रों के बीचों-बीच, किसी छोटे से टापू में बिलकुल अकेला ही रहता हो. इसमें कोई दो राय किसी भी धर्म के पंडितो की हो नहीं सकती है. इसलिए मनुष्य के लिए यह कोई मायने रखता ही नहीं कि वह किसी मुसलमान के घर पैदा हुआ है या फिर हिन्दू अथवा इसाई के घर. उसे तो बस अपने ईश्वर से सत्य के मार्ग को दिखाने की प्रार्थना एवं प्रयास भर करना है. क्योंकि अब यह ईश्वर का कार्य है कि अमुक व्यक्ति को "अपने सत्य" का मार्ग दिखलाये.
मित्र, प्रभु के सत्य मार्ग को पहचानना धरती के हर मनुष्य के लिए एक सामान है. ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है (जिसका अर्थ है) कि "वह ना चाहने वालो को धर्म की समझ नहीं देता".
और प्रभु को पहचानना या न पहचानना मेरे या तुम्हारे (अर्थात किसी भी मनुष्य के) वश की बात नहीं है, यहाँ तो सिर्फ प्रभु का ही वश चलता है और वह पवित्र कुरआन में कहता है कि:
"अगर कोई मनुष्य मेरी तरफ एक हाथ बढ़ता है, तो मैं उसकी तरफ दो हाथ बढ़ता हूँ, अगर कोई चल कर आता है तो मैं दौड़ कर आता हूँ."
इससे यह पता चलता है कि प्रभु को पाने कि इच्छा करना और इसके लिए प्रयास करना ही सब कुछ है, आगे का काम तो स्वयं उस ईश्वर का है. हाँ, एक बात यह भी है कि जब प्रभु अपना ज्ञान किसी को दे दे तो उसके बाद उसके बताए हुए रास्ते पर चलना ही उसकी सच्ची अराधना है.
ईश्वर ने हमें अवसर दिया है पृथ्वी पर धर्म अथवा अधर्म पर चलने का ताकि इसके अनुसार स्वर्ग अथवा नर्क का फैसला हो सके. इसलिए कोई भी व्यक्ति अपनी आस्था के अनुरूप जीवन को व्यतीत कर सकता है. ईश्वर जिसे चाहता है, धर्म की सही समझ देता है, परन्तु वह ना चाहने वालो को धर्म की सही समझ नहीं देता.
अगर किसी ने ईश्वर को पाने की और उसके सत्य मार्ग को जानने की कोशिश ही नहीं की, और अंधे-गुंगो की तरह वही करता रहा जो उसके माँ-बाप, परिवार वाले करते आ रहे हैं, तो वह अवश्य ही गुमराह है, चाहे उसका उद्देश्य अच्छा ही हो. ईश्वर को पाना है तो उसके पाने की इच्छा और प्रयास करना ही पड़ेगा
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आस्था मज़बूरी अथवा लालच में बदली जा सकती है? और क्या पूर्वजो ने मज़बूरी में इस्लाम धर्म स्वीकार किया?
पहली बात तो यह कि पूर्वजो की मज़बूरी वाली बात ही गलत है, दूसरी बात यह कि पूर्वजो की क्या मान्यता थी, इससे किसी को फर्क नहीं पड़ना चाहिए. मेरा नाता तो मेरे ईश्वर से है, और वह मुझे अरबी, भारतीय या किसी और देश के वासी की नज़र से नहीं देखता है, अपितु मेरे कर्मों और उसके प्रति मेरे प्रेम पर निगाह डालता है. और वह स्वयं तो मुझे मेरे कर्मों और मेरे प्रेम को देखे बिना भी बेइन्तिहाँ प्रेम करता है.
धर्म का सम्बन्ध आस्था से होता है और आस्था का सम्बन्ध ह्रदय से होता है. और कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परन्तु अपने ह्रदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है. ह्रदय को तो पता होता है कि उसपर किस का राज है.
प्राणों के भय और पैसे के मोह से मानुष दिखावा तो कर सकता है मित्र, किन्तु आस्था की जननी तो ह्रदय ही है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया, कि कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परन्तु अपने ह्रदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है. अगर किसी के सर पर तलवार लटकी है तो वह दिखावे के लिए तो हो सकता है कि कहदे, परन्तु हृदय पर तो उसके प्रभु का ही राज होगा, क्योंकि किसी का दिल चीर कर कोई नहीं देख सकता.
इस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि आस्था किसी भी मज़बूरी में नहीं बदली जा सकती है.
- शाहनवाज़ सिद्दीकी
प्राणों के भय और पैसे के मोह से मानुष दिखावा तो कर सकता है मित्र, किन्तु आस्था की जननी तो ह्रदय ही है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया, कि कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परन्तु अपने ह्रदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है. अगर किसी के सर पर तलवार लटकी है तो वह दिखावे के लिए तो हो सकता है कि कहदे, परन्तु हृदय पर तो उसके प्रभु का ही राज होगा, क्योंकि किसी का दिल चीर कर कोई नहीं देख सकता
ReplyDeleteशानावाज़ जी, आपको हमारी अंजुमन की मेम्बरशिप मुबारक हो! यु ही अच्छी अच्छी बातें लिखते रहिये, यही दुआ है.
ReplyDeleteइस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि आस्था किसी भी मज़बूरी में नहीं बदली जा सकती है.
ReplyDeleteयह बात तो बिलकुल सच है, मेरा भी यही मानना है.
aap apni jagah sahi hain...par main aapse poori tarah sehmat nahi hoon
ReplyDeleteशाह जी, धर्म परिवर्तन की आवश्यकता समझ से परे है. मैं सनातन धर्म का अनुसार करती हूँ, और साथ ही साथ पैग़म्बर मुहम्मद को आखिरी अवतार मानती हूँ. तो क्या मुझे धर्म परिवर्तन की आवश्यकता है?
ReplyDelete"प्राणों के भय और पैसे के मोह से मानुष दिखावा तो कर सकता है मित्र, किन्तु आस्था की जननी तो ह्रदय ही है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया, कि कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परन्तु अपने ह्रदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है. अगर किसी के सर पर तलवार लटकी है तो वह दिखावे के लिए तो हो सकता है कि कहदे, परन्तु हृदय पर तो उसके प्रभु का ही राज होगा, क्योंकि किसी का दिल चीर कर कोई नहीं देख सकता."
ReplyDeleteवैसे आपकी इस बात से मैं भी सहमत हूँ कि "आस्था किसी भी मज़बूरी में नहीं बदली जा सकती है".
ReplyDeleteDharm Parivartan kisi bhi room mein sahi nahi he. Dharm Parivartan ke viruddh hamari sarkar ko Kanun banana chahiye. Jo vyakti apne purvajo ke Dharm ka na ho saka vah Naye Dharm ka bhi nahi hoga. Tumne Haryana ke Up-Mukhymantri Chand Mohammad ka parinam to dekh hi hoga.
ReplyDeleteअच्छा लेख प्रस्तुत करने पर शाहनवाज़ साहिब हम आपको दिल की गहराई से बधाई देते हैं। बहुत खूब
ReplyDeleteक्या धर्म परिवर्तन सही है?
ReplyDeleteबिलकुल सही नहीं है. ऐसा करने वालो को तो सजा होनी चाहिए.
-एक पूर्व मुसलमान
धर्म परिवर्तन महापाप है। इस्लाम ने धर्म परिवर्तन को महान पाप बताया है। बच्चे को ईश्वर एक ही धर्म पर पैदा करता है लेकिन उसके माता पिता उसका धर्म परिवर्तन करा देते हैं जो सही नहीं।
ReplyDeleteबढिया आलेख....वैसे आदमी हर रोज़ अपना धर्म बदलता ही रहता ......"
ReplyDeleteबेनामी साहिब!
ReplyDeleteहम आपकी बात का समर्थन करते हैं कि जो कोई धर्म परिवर्तन करता है उसे सख्त सज़ा होनी चाहिए। इस्लाम ने सब से पहले धर्म परिवर्तन से रोका है। जिस धर्म पर ईश्वर ने मानव को पैदा कि. था उसी धर्म पर उसे रहना चाहिए था लेकिन खेद की बात है कि माता पिता उस बच्चे को अपने धर्म पर ले आते हैं। परन्तु (ऊपर वाले ) ईश्वर ने अपना संदेश आज तक सुरक्षित रखा हुआ है जो कोई चाए उसे समझ सकता है और अपने प्राकृतिक धर्म को अपना सकता है अर्थात् अपनी अमानत अपने पास लौटा सकता है। ईश्वर हम सब पर दया करे।
ईश्वर ने हमें अवसर दिया है पृथ्वी पर धर्म अथवा अधर्म पर चलने का ताकि इसके अनुसार स्वर्ग अथवा नर्क का फैसला हो सके. इसलिए कोई भी व्यक्ति अपनी आस्था के अनुरूप जीवन को व्यतीत कर सकता है. ईश्वर जिसे चाहता है, धर्म की सही समझ देता है, परन्तु वह ना चाहने वालो को धर्म की सही समझ नहीं देता.
ReplyDeleteपहली बात तो यह कि पूर्वजो की मज़बूरी वाली बात ही गलत है, दूसरी बात यह कि पूर्वजो की क्या मान्यता थी, इससे किसी को फर्क नहीं पड़ना चाहिए. मेरा नाता तो मेरे ईश्वर से है, और वह मुझे अरबी, भारतीय या किसी और देश के वासी की नज़र से नहीं देखता है, अपितु मेरे कर्मों और उसके प्रति मेरे प्रेम पर निगाह डालता है. और वह स्वयं तो मुझे मेरे कर्मों और मेरे प्रेम को देखे बिना भी बेइन्तिहाँ प्रेम करता है.
ReplyDeleteनिश्चित रूप से धर्म परिवर्तन दिल का सौदा होता है वस्तुतः जब कोई इस्लाम अख्तियार करता है तब वह तब होता है जब ईश्वर किसी को हिदायत देता है...
ReplyDeletenice post
ReplyDeleteफर्क सिर्फ आदेशों का है, ईश्वर विश्व के हर-एक कोने में अपने संदेशवाहकों के ज़रिये अपना सन्देश मनुष्यों तक पहुंचता आ रहा है. और अपना आखिरी सन्देश (अर्थात कुरआन) आखिरी संदेशवाहक महागुरु मुहम्मद (स.) के ज़रिये पूरी दुनिया तक पहुँचाया.
ReplyDeleteरश्मि जी मैंने भी धर्म परिवर्तन की बात नहीं कही है. बल्कि अपनी पोस्ट की हैडिंग में एक प्रश्न भर किया है.
ReplyDelete@ समीर गिरी साहब! मनुष्य को ईश्वर से मिलाने के रास्ते को धर्म कहते हैं. अपनी इच्छाओं को अपने प्रभु के सुपुर्द कर देने वाला मनुष्य ही असल रूप में धार्मिक व्यक्ति होता है.
मेरा और आपका, अर्थात पुरे विश्व का धर्म एक ही है, और वह है अपने प्रभु को पाने की कोशिश करना, उनके आदेशों का पालन करना. ईश्वर ने कुरआन में कहा जिसका अर्थ है कि यह कोई नया धर्म नहीं है अपितु यह तो वही धर्म है जो पृथ्वी के प्रारंभ से चला आ रहा है."
ऊँची जाती के मुसलामानों के पूर्वज हमलावरों से अपनी रियासत बचाने की संधि और डर के कारण मुसलमान बने, वर्ना वे तो पहले ही समाज के शीर्ष पर थे. गरीब जाज़िये और लगान की ऊँची दर के कारण मुसलमान बने. गुलामवंश और मुग़ल काल में जहाँ ज़कात स्वेच्छा पर निर्भर था और इसकी दर कम थी, जजिया अनिवार्य था और इसकी दर भी बहुत ऊँची थी. जजिया न चुकाने पर जमीन-जायदाद कुर्क कर ली जाती, या अपराधी घोषित कर दिया जाता. गरीब लोगों के पास इस्लाम अपनाने के आलावा कोई चारा नहीं था. कुछ अति उत्साही मुस्लिमों ने कमज़ोर दलितों को जबरजस्ती कलमा कबुलवाया. भारत में इस्लाम संधियों, राजनैतिक और फौजी दबाव, मुग़ल नीतियों और अति उत्साही मुस्लिमों के जबरन धर्म परिवर्तन द्वारा फैला.
ReplyDeleteराजपूतों वर्ण व्यवस्था में ऊँचे पायदान पर थे, कश्मीर के मुसलमान कभी पंडित और तिब्बती बौद्ध थे. अगर राजा फौजी दबाव के तहत मुसलमान बना लिया जाता था तो उसके वफादार, दरबारी, अधिकारी और सारे रिश्तेदार यूँ ही इस्लाम कुबूल कर लेते थे. इसीलिए नहीं की उन्हें इस्लाम अच्छा लगा, या उसमे उन्हें कुछ अलग दिखा बल्कि राजा के प्रति हर हाल में वफ़ादारी की परंपरा कारण. पाकिस्तान का भुट्टो परिवार कभी राजपूत था. वर्ण व्यवस्था से तंग आकर धर्म परिवर्तन की बात बकवास है. अगर जातिवाद से तंग आकर ही दलित मुसलमान बने होते तो, भारत-पाकिस्तान-बंगलादेश के मुसलमानों में जातिवाद शुरू से ही न होता.
आज भी ऊँची जाती के मुसलमान अपने से नीची जाति में रिश्ता नहीं करते. आपको ऐसे मुसलमान मिल जायेंगे जो अपने पटेल, राजपूत, चौधरी, ब्राहमण, होने पर गर्व करते हैं. जो खुद को ईरान या अरब से जोड़ते हैं, वे खुद को सभी भारतीय और दलित मुसलमानों से कहीं ऊँचा महसूस करते हैं. क्या इन्हें हज़ार सालों में कुरआन आपस में भाईचारा तक न सिखा पाई? हिन्दुओं से किस तरह अलग है मुस्लिम समाज?
@ Fauziya Reyaz
ReplyDeleteaap apni jagah sahi hain...par main aapse poori tarah sehmat nahi hoon.
फौजिया जी, आपको पूरा हक है मेरी बातो से सहमत अथवा असहमत होने का. परन्तु अगर यह बता देती कि किन-किन बातों से असहमत हैं, तो मेरा भी सही मार्गदर्शन हो जाता. हो सकता है आप सही हों.
@ ab inconvenienti
ReplyDeleteश्रीमान दूसरों की छोडिये अपनी बताइए... क्या आप किसी लालच अथवा दर से अपना धर्म छोड़ सकते हैं??? यह तो हो सकता है कि मैं या आप दिखावे के लिए अपना धर्म बदलने का ऐलान कर सकते हैं... परन्तु क्या अपने दिल को भी बेवक़ूफ़ बना पाएँगे? श्रीमान दिल पर तो सिर्फ और सिर्फ प्रभु का ही राज होता है.
और आपने यह किसने कह दिया की हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग होते हैं, हाँ आस्था में अवश्य ही अंतर होता है, परन्तु दोनों ही एक ही ईश्वर की आराधना करते हैं. यहाँ तक की दोनों ही मैं अच्छे-बुरे दोनों तरह के लोग हैं.
जो हिन्दू भाई वेदों का अनुसरण करते हैं, वह ईश्वर का किसी को साझी नहीं ठहराते हैं, और वेदों के निर्देशानुसार ही मूर्ति पूजा नहीं करते हैं.
अल्लाह आपको सलामत रखे,
ReplyDeleteधन्य ब्लाग प्लेट्फार्म !कैसे कैसे इस्लामी बेनकाब हो रहे हैं।
ReplyDeleteइससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है कि इस्लाम डर या लालच के कारण नहीं फैला? लेकिन बेशर्मी तो देखो कैसी बकवासें की जा रही हैं !
अाशा है कि सेकुलर बेवकूफों की बुद्धि पर लगा ताला खुलेगा। वैसे अल्ला तो कह ही चुका है कि काफिरों की बुद्धि पर उसने ताला जड़ रखा है। :)
@ ऊँची जाती के मुसलामानों के पूर्वज हमलावरों से अपनी रियासत बचाने की संधि और डर के कारण मुसलमान बने, वर्ना वे तो पहले ही समाज के शीर्ष पर थे. गरीब जाज़िये और लगान की ऊँची दर के कारण मुसलमान बने. गुलामवंश और मुग़ल काल में जहाँ ज़कात स्वेच्छा पर निर्भर था और इसकी दर कम थी, जजिया अनिवार्य था और इसकी दर भी बहुत ऊँची थी. जजिया न चुकाने पर जमीन-जायदाद कुर्क कर ली जाती या अपराधी घोषित कर दिया जाता.गरीब लोगों के पास इस्लाम अपनाने के आलावा कोई चारा नहीं था.कुछ अति उत्साही मुस्लिमों ने कमज़ोर दलितों को जबरजस्ती कलमा कबुलवाया.भारत में इस्लाम संधियों,राजनैतिक और फौजी दबाव,मुग़ल नीतियों और अति उत्साही मुस्लिमों के जबरन धर्म परिवर्तन द्वारा फैला.
ReplyDeleteराजपूतों वर्ण व्यवस्था में ऊँचे पायदान पर थे,कश्मीर के मुसलमान कभी पंडित और तिब्बती बौद्ध थे.अगर राजा फौजी दबाव के तहत मुसलमान ना लिया जाता था तो उसके वफादार, दरबारी, अधिकारी और सारे रिश्तेदार यूँ ही इस्लाम कुबूल कर लेते थे. इसीलिए नहीं की उन्हें इस्लाम अच्छा लगा, या उसमे उन्हें कुछ अलग दिखा बल्कि राजा के प्रति हर हाल में वफ़ादारी की परंपरा कारण.पाकिस्तान का भुट्टो परिवार कभी राजपूत था.वर्ण व्यवस्था से तंग आकर धर्म परिवर्तन की बात बकवास है.अगर जातिवाद से तंग आकर ही दलित मुसलमान बने होते तो,भारत-पाकिस्तान-बंगलादेश के मुसलमानों में जातिवाद शुरू से ही न होता.
आज भी ऊँची जाती के मुसलमान अपने से नीची जाति में रिश्ता नहीं करते. आपको ऐसे मुसलमान मिल जायेंगे जो अपने पटेल, राजपूत, चौधरी, ब्राहमण, होने पर गर्व करते हैं. जो खुद को ईरान या अरब से जोड़ते हैं, वे खुद को सभी भारतीय और दलित मुसलमानों से कहीं ऊँचा महसूस करते हैं. क्या इन्हें हज़ार सालों में कुरआन आपस में भाईचारा तक न सिखा पाई? हिन्दुओं से किस तरह अलग है मुस्लिम समाज?
पूर्णत: सहमत ।
Very nice post
ReplyDelete@ ab inconvenienti
ReplyDeleteश्रीमान दूसरों की छोडिये अपनी बताइए... क्या आप किसी लालच अथवा दर से अपना धर्म छोड़ सकते हैं???
मैं तो नहीं करूँगा. अपने जैसा समझ रखा है क्या? जो कुछ लोग कमज़ोर थे उन्होंने कर लिया, और आज के मुस्लमान उन बेचारों और कायरों के बच्चे हैं.
^^^^
ReplyDeleteJis tarah naap apna dharm nehi badal sakte hei, usi tarah koi bhi Darr ya Paise ke lalach mein apna dharm nehi badal sakta hai.
@ Shahnawaz Bhai , isA B par dharm hai hi kahan ? ye to nastik hai . Aur iske baap Daadaon Ne hi FORIEN INVADERS ko india par hale karne ke liye bulaya tha. unhen hindu rajaon ne apni fauj bhi di aur apni ladkiyan bhi deen.
ReplyDeleteKuchh ko unhone rani banaya jaise ki Jodha bai . Aur kuchh ko vaise hi nawaz diya . BHADHWE aur DALLE khud hain aur naam dusron rakhte hain. Dekh lo supreme court ne shri krishna ke marg par chalne ka rasta inke liye ab khgol hi diya hai . Ab ye harami bachchon ke dada nana banenge . Islam ko na manne ki saza inhen zillat ki shakl men mil rahi hgai aur naye naye roop men milti rahegi .
Assalamu alaikum all.....
ReplyDeletekya zabardast blog hai bhai
"""अगर कोई मनुष्य मेरी तरफ एक हाथ बढ़ता है, तो मैं उसकी तरफ दो हाथ बढ़ता हूँ, अगर कोई चल कर आता है तो मैं दौड़ कर आता हूँ." ""
to ishwar pookaar raha hai...
hai koi uski taraf haath badhaane wala????