Thursday, April 22, 2010

सलीम भाई आप क्यों अलविदा कह रहे हैं?


आपने किसी को अपनी बहन समझकर कुछ बताने की कोशिश की, लेकिन आपके खुलूस में उसे नफरत नज़र आयी। लेकिन इससे आपको फर्क क्या पड़ता है? आपका मकसद है इस्लामी पैगाम दुनिया तक पहुंचाना। कोई माने या न माने ये उसकी मर्जी। मैं नहीं समझता किसी बात को दिल पर लेने की जरूरत है। और वह भी उन् औरतों की बात जो दावा तो करती हैं मर्दों की बराबरी का लेकिन हकीकत ये है कि  जिस्मानी और जहनी दोनों ही तौर से मर्दों से कमतर हैं।

अगर बात की जाये दिमागी ताकतों की तो मर्द बेनामियों की गालियां सुनकर भी मुस्कुराता रहता है और गाली देने वाले को प्यार से भाई कहकर बुलाता है। जबकि औरत अपने मिजाज के खिलाफ टिप्पणी देखकर पूरी दुनिया में तहलका मचा देती है। (हालांकि ये टिप्पणियां कुछ बेनामियों के द्वारा दूसरों को लड़ाने के लिये लिखी गयी होती हैं।) ब्लाग्स को बन्द करवाने की धमकियां देने लगती है। मर्द का अगर ओबामा से भी ताल्लुक होता है तो वो उसे हल्के अंदाज में लेता है। जबकि औरत की किसी छोटे मोटे थाने में पहचान निकल आती है तो वह पूरी दुनिया को बन्द करवाने की धमकियां देने लगती है।

मर्द किसी की सिफारिश करके उसकी जिंदगी बना देता है और फिर भूल जाता है लेकिन औरत किसी को पुलिस से बचाती है तो जिंदगी भर उसकी कहानी बताती है।
औरत लूडो का भी गेम जीतकर पूरी दुनिया में इतराती है जबकि मर्द पोरस को हराने के बाद भी उसे अपने बराबर बिठाता है। 

हजार नावेल लिखने के बाद भी मर्द अपने को शब्दों का राजकुमार नहीं लिखता जबकि औरत दो गजलें लिखने के बाद अपने को शब्दों की रानी लिखने लगती है। मर्द को अगर कोई पानी पर चढ़ाने की कोशिश करता है तो वह पहले नाव बनाता है फिर पानी पर चढ़ाई करता है जबकि औरत तुरन्त पानी पर चढ़ जाती है।
मर्द कभी औरतों का लिबास पहनने की ख्वाहिश नहीं करता लेकिन औरत मर्दों का लिबास पहनकर अपने को खुश और आजाद महसूस करती है। इसका मतलब यही निकलता है कि वह मानसिक तौर पर हीन भावना की शिकार है।

एक तरफ तो वह उन सरकारों से खुश होती है जो औरतों को पर्दे से आजाद होने का फरमान सुनाती हैं तो दूसरी तरफ वह अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबन्ध लगाने की भी वकालत करती है। सिर्फ इसलिये क्योंकि कोई उसपर कमेण्ट पास कर रहा है। हालांकि हो सकता है वह कमेण्ट उस का हो जो किसी दूसरे नाम से उसे पानी पर चढ़ा रहा हो।
एक तरफ वह तालिबानियों को बुरा भला कहती है जो लोगों का आजादी से अपनी बात कहने का अधिकार छीन रहे हैं तो दूसरी तरफ वह अपने खिलाफ कुछ भी कहने वालों को जेल की सलाखों के पीछे करने के लिये चीख पुकार मचा देती है।

अगर औरत को कोई छेड़ता है तो उसके सम्मान पर चोट लगती है और अगर नहीं छेड़ता तो वह एहसास कमतरी की शिकार हो जाती है।
तो आप गौर करें कि आप किसके चक्कर में पड़कर एक फलाही काम से हाथ खींच रहे हैं। शुक्रिया।

नोट : यहाँ 'औरत' से तात्पर्य वह 'औरतें' हैं जिनपर मर्दों से आगे निकलने का तो भूत सवार है लेकिन क्षमता नहीं है.

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7 comments:

  1. जीशान भाई आप भी कहाँ औरत-मर्द के चक्कर में पड़ गए? अल्लाह ने दोनों को बराबर ही बनाया है. बस दुनिया का निजाम चलने के लिए कहीं औरत को मर्द से ऊपर दर्जा दिया है और कहीं मर्द को औरत से ऊपर दर्जा दिया.

    खैर! कुछ बातें तो आपकी बिलकुल ठीक हैं, किसी को भी किसी से आगे निकलने की होड़ करना बेवकूफी है. औरत और मर्द दुनिया नामी गाडी के दो पहिन्ये हैं. इसलिए अगर कोई आगे निकलने की होड़ लगे तो यह बिलकुल ऐसा ही नज़ारा होगा जैसे किसी गाडी का एक पहिंया निकल कर भाग निकलता है. सबको पता है फिर उस गाडी का क्या हश्र होता है. :)

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  2. ऐसी औरत एक तरफ सवाल करती है
    दुनिया में इस्लाम ही एकमात्र मज़हब है जो अल्लाह का है और अल्लाह ने ही शुरू किया है, जबकि दूसरे धर्म मनुष्य ने शुरू किए हैं...

    दूसरी तरफ का जवाब नहीं सुनती
    बहन, इस्‍लाम की थोडी सी भी समझ रखने वाला जानता है यहूदी और इसाई धर्म भी इसी कुरआन वाले अल्‍लाह का दिया धर्म है, मानव की जैसी समझ होती गयी वैसा वह अवतार लाता रहा जैसे यहूदी समय में जादू टोने पर अधिक यकीन था तो उसने मूसा अ. को असा(जादूई लाठी) देकर भेजा, हजरत ईसा को मुर्दे में जान डाल देने की शक्ति देकर, फिर जब कागज का ईजाद होने ही वाला था मानव इतना विकसित बुद्धि‍ वाला होगया तो अन्तिम अवतार भेजा,

    खेर आपके सवाल का जवाब तो इस बात में ही मिल गया होगा कि इस्‍लाम ही एकमात्र मज़हब अल्‍लाह का नहीं है, और यकीन करने के लिये कुरआन की निम्‍न आयतें पढिये, इन्‍शाअल्‍लाह गलत फहमी दूर होगी

    कुरआनः
    कहो, "हम तो अल्लाह पर और उस चीज़ पर ईमान लाए जो हम पर उतरी है, और जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़ और याकूब़ और उनकी सन्तान पर उतरी उसपर भी, और जो मूसा और ईसा और दूसरे नबियो को उनके रब की ओर से प्रदान हुई (उसपर भी हम ईमान रखते है)। हम उनमें से किसी को उस ओर से प्रदान हुई (उसपर भी हम ईमान रखते है)। हम उनमें से किसी को उस सम्बन्ध से अलग नहीं करते जो उनके बीच पाया जाता है, और हम उसी के आज्ञाकारी (मुस्लिम) है।"॥Quran 3आले इमरान: 84॥

    और हमने मूसा को किताब दी थी, और उसके पश्‍चात आगे-पीछे निरन्तर रसूल भेजते रहे; और मरयम के बेटे ईसा को खुली-खुली निशानियाँ प्रदान की और पवित्र-आत्मा के द्वारा उसे शक्ति प्रदान की; तो यही तो हुआ कि जब भी कोई रसूल तुम्हारे पास वह कुछ लेकर आया जो तुम्हारे जी को पसन्द न था, तो तुम अकड़ बैठे, तो एक गिरोह को तो तुमने झुठलाया और एक गिरोह को क़त्ल करते हो?॥Quran : 1:87॥

    कहो, "हम ईमान लाए अल्लाह पर और उस चीज़ पर जो हमारी ओर से उतरी और जो इबराहीम और इसमाईल और इसहाक़ और याक़ूब और उसकी संतान की ओर उतरी, और जो मूसा और ईसा को मिली, और जो सभी नबियों को उनके रब की ओर से प्रदान की गई। हम उनमें से किसी के बीच अन्तर नहीं करते और हम केवल उसी के आज्ञाकारी हैं।"॥ Quran: 1: 136

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  3. शाह नवाज़ भाई, मैं भी आपसे पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ, लेकिन जब कोई इसे अपनी हीन भावना के कारण समझ ही नहीं रहा तो क्या कहा जाए.

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  4. 1) "...दावा तो करती हैं मर्दों की बराबरी का लेकिन हकीकत ये है कि जिस्मानी और जहनी दोनों ही तौर से मर्दों से कमतर हैं..."
    2) "...लेकिन औरत किसी को पुलिस से बचाती है तो जिंदगी भर उसकी कहानी बताती है..."
    3) "...जबकि औरत दो गजलें लिखने के बाद अपने को शब्दों की रानी लिखने लगती है..."
    4) "...यहाँ 'औरत' से तात्पर्य वह 'औरतें' हैं जिनपर मर्दों से आगे निकलने का तो भूत सवार है लेकिन क्षमता नहीं है..."

    जीशान भाई… मुझे हैरत है कि कुछ चुनिंदा लोग आपको प्रगतिशील समझते हैं…। इस प्रकार की व्यंगात्मक पोस्ट की कोई जरूरत नहीं थी। इन statements को देखकर तो लगता है कि आप भी बुरी तरह "आहत" हुए हैं ("आहत" शब्द थोड़ा प्रगतिशील है, "मिर्ची" के बनिस्बत)…।

    एक बात तो मानना पड़ेगा, फ़िरदौस जी ने वाकई में कुछ लोगों को हिलाकर रख दिया है।

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  5. सुरेश जी, अगर किसी के ऊपर इतने आरोप लगें की वह आहत होकर ब्लॉग्गिंग से ही नाता तोड़ ले तो न्याय का तकाज़ा है की सच्चाइयों को सामने लाया जाए. रही बात मेरी तो मैं तो तब भी 'आहत' नहीं हुआ जब आपने मुसलमानों पर लव जेहाद जैसे आरोप लगाए.

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  6. बहुत सही लिखा आपने...अपने मन की बात कहकर ....नहीं तो क्या है इंसान का पता नहीं लग पाता...आप जैसे लोग इस्लाम के प्रति नफरत ही जगा सकते हैं किसी के मन मैं.....औरत और मर्द के बारें मैं आपके बेबाक विचार निश्चित ही आपकी मानसिकता बयां करते है....और सलीम जी कहीं नहीं जाने वाले ....आप इंमोशनल न हों क्यों कि.....भी कभी सीधी होती हैं....

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  7. सलीम साहब तो पांचवी बार आराम फरमाने गये है चिलूनकर जी, इधर तो सब मस्‍त हैं, आजिज हो जाये ऐसी झांसी की रानी का पता करो, खेरियत से है कि नहीं

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