Friday, April 30, 2010

इस्लाम में मजदूर और मजदूरी की अहमियत


अन्तराष्ट्रीय कामगार दिवस (1 मई) पर विशेष 
मज़दूरों के बारे में कार्ल मार्क्स जैसे अनेक विचारकों ने खूबसूरत विचार दिये हैं। मज़दूर किसी भी देश या व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग होता है। अत: उनके वेलफेयर के बारे में सोचना व्यवस्था की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। इस्लाम जो कि दुनिया की सबसे बड़ी व्यवस्था है, मज़दूर को खास अहमियत देता है। 
जिस वक्त नबी व रसूल मोहम्मद(स-अ-) ने इस्लाम का पैगाम दिया उस वक्त अरब में मेहनत मज़दूरी का काम गुलामों से करवाया जाता था। गुलामी की प्रथा जोरों पर थी। दूर दराज के इलाकों से लोग पकड़ कर लाये जाते थे उन्हें खरीद कर जिंदगी भर के लिए गुलाम बना लिया जाता था। और फिर उन्हें हमेशा के लिये बस रोटी और कपड़े पर बेगार करनी पड़ती थी। गुलामो की हालत बहुत ही दयनीय होती थी उनपर तरंह तरंह के जुल्म होते थे और निहायत सख्त काम के बदले उन्हें भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता था। इस्लाम ने इन गुलामों की आजादी के लिये निहायत खूबसूरत तरीके से काम किया मुसलमानों को गुलाम को आजाद करने पर जन्नत की बशारत दी गयी। हज़रत बिलाल जो कि एक हब्शी गुलाम थे उन्हें खरीदकर आजाद किया गया और बाद में वे ईमान के ऊंचे दर्जे पर फायज़ हुए। 
कुरआन गुलामों से अच्छा सुलूक करने व उन्हें आजाद करने के लिये कई आयतों में हुक्म दे रहा है मिसाल के तौर पर
(कुरआन : 24-32) और अपनी बेशौहर औरतों और अपने नेकबख्त गुलामों व कनीजों का निकाह कर दिया करो। अगर ये लोग मोहताज होंगे तो अल्लाह अपने फजल व करम से उन्हें मालदार बना देगा और अल्लाह तो बड़ा गुंजाइश वाला व वाकिफकार है।
(कुरआन : 24-33) और तुम्हारे कनीजों व गुलामों में से जो मकातबत (किसी एग्रीमेन्ट के जरिये आजाद होना) होने की ख्वाहिश करें तो तुम उनमें कुछ सलाहियत देखो तो उनको मकातिब कर दो और अल्लाह के माल में से जो उसने तुम्हें अता किया है उनका भी दो। और तुम्हारी कनीजें जो पाकदामन ही रहना चाहती हैं उन्हें दुनियावी फायदे हासिल करने की गरज से हरामकारी पर मजबूर न करो। और जो शख्स उनको मजबूर करेगा तो इसमें शक नहीं कि अल्लाह उनकी मजबूरी के बाद बड़ा बख्शने वाला व मेहरबान है।
इन आयतों से यह साफ हो जाता है कि अल्लाह हर शख्स को आजाद देखना चाहता है। और चाहता है कि सबको अपनी जिंदगी गुजारने का हक मिले।
इस्लाम में मेहनत मजदूरी करके अपने व अपने परिवार का जायज़ तरीके से पेट पालने को निहायत अहमियत दी गयी है। अपनी रोजी को खुद हासिल करने पर जोर दिया गया है। 
(कुरआन : 53-39) और यह कि इंसान को वही मिलता है जिसकी वह कोशिश करता है।
नबी (स-अ-) ने फरमाया ‘अल्लाह उन्हें पसंद करता है जो काम करते हैं और अपने परिवार का पेट पालने के लिये कड़ी मेहनत करते हैं।’
नबी (स-अ-) ने फरमाया ‘सबसे अच्छा खाना वह होता है जो इंसान अपनी मेहनत मह्स्क्कत से कमाकर खाता है।’ (तिरमिजी) 
हज़रत अली (अ-स-) ने अपने बेटे इमाम हसन (अ-स-) से फरमाया, ‘रोजी कमाने में दौड़ धूप करो और दूसरों के खजांची न बनो।’ (नहजुल बलागाह) 
मज़दूरों से कैसा सुलूक करना चाहिए इसके लिये हज़रत अली (अ-स-) का मशहूर जुमला है, ‘मज़दूरों का पसीना सूखने से पहले उनकी मज़दूरी दे दो।’
इस्लामी खलीफा हज़रत अली (अ-स-) ने जब हज़रत मालिके अश्तर को मिस्र का गवर्नर बनाया तो उन्हें इस तरंह के आदेश दिये ‘लगान (टैक्स) के मामले में लगान अदा करने वालों का फायदा नजर में रखना क्योंकि बाज और बाजगुजारों (टैक्स और टैक्सपेयर्स) की बदौलत ही दूसरो के हालात दुरुस्त किये जा सकते हैं। सब इसी खिराज और खिराज देने वालों (टैक्स और टैक्सपेयर्स) के सहारे पर जीते हैं। और खिराज को जमा करने से ज्यादा जमीन की आबादी का ख्याल रखना क्योंकि खिराज भी जमीन की आबादी ही से हासिल हो सकता है और जो आबाद किये बिना खिराज (रिवार्ड) चाहता है वह मुल्क की बरबादी और बंदगाने खुदा की तबाही का सामान करता है। और उस की हुकूमत थोड़े दिनों से ज्यादा नहीं रह सकती। (नहजुल बलागाह, खत नं - 53)
मुसीबत में लगान की कमी या माफी, व्यापारियों और उद्योगपतियों का ख्याल व उनके साथ अच्छा बर्ताव, लेकिन जमाखोरों और मुनाफाखोरों के साथ सख्त कारवाई की बात इस खत में मौजूद है। यह लम्बा खत इस्लामी संविधान का पूरा नमूना पेश करता है। यू-एन- सेक्रेटरी कोफी अन्नान के सुझाव पर इस खत को यू-एन- के विश्व संविधान में सन्दर्भ के तौर पर शामिल किया गया है।
इस्लाम में शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरंह के कामों को अहमियत दी गयी है। कुरआन में शारीरिक श्रम के रूप में हज़रत नूह का कश्ती बनाना, हज़रत दाऊद का लोहार के रूप में काम करना, हजरत जुल्करनैन का लोहे की दीवार का निर्माण वगैरा शामिल हैं। इसी तरंह दिमागी काम करने में हज़रत लुक़मान की हिकमत, हज़रत यूसुफ का मिस्र के बादशाह के खज़ांची रूप में काम करना वगैरा शामिल हैं।
अल्लाह किसी काम को मेहनत व खूबसूरती के साथ पूरा करने को पसंद करता है, जिसका कुरआन की आयत इस तरह इशारा कर रही है।
(कुरआन : 34-11) (पैगम्बर हजरत दाऊद से मुखातिब करके) कि फराख और कुशादा जिरह बनाओ और कड़ियों को जोड़ने में अन्दाजे का ख्याल रखो और तुम सब के सब अच्छे काम करो। जो कुछ तुम करते हो मैं देख रहा हूं। 
इस्लाम में जुआ व सूद जैसे गलत तरीकों से पैसा कमाने को सख्ती से मना किया गया है। 
नबी (स-अ-) ने फरमाया कि छोटे से छोटा काम भी अगर जायज हो तो उसे करने से हिचकिचाना नहीं चाहिए। नबी (स-अ-) खुद बकरिया चराते थे। अपने कपड़ों में खुद पेबंद लगाते थे और मजदूरी करते थे। (तिरमिज़ी) 
हजरत अली (अ-स-) यहूदी के बाग में मजदूरी करके अपने बच्चों का पेट पालते थे। यहाँ तक कि जब उन्होंने इस्लामी खलीफा का ओहदा संभाला तो बागों व खेतों में मजदूरी करने का उनका अमल जारी रहा। उन्होंने अपने दम पर अनेक रेगिस्तानी इलाकों को नख्लिस्तान में बदल दिया था।



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Thursday, April 22, 2010

सलीम भाई आप क्यों अलविदा कह रहे हैं?


आपने किसी को अपनी बहन समझकर कुछ बताने की कोशिश की, लेकिन आपके खुलूस में उसे नफरत नज़र आयी। लेकिन इससे आपको फर्क क्या पड़ता है? आपका मकसद है इस्लामी पैगाम दुनिया तक पहुंचाना। कोई माने या न माने ये उसकी मर्जी। मैं नहीं समझता किसी बात को दिल पर लेने की जरूरत है। और वह भी उन् औरतों की बात जो दावा तो करती हैं मर्दों की बराबरी का लेकिन हकीकत ये है कि  जिस्मानी और जहनी दोनों ही तौर से मर्दों से कमतर हैं।

अगर बात की जाये दिमागी ताकतों की तो मर्द बेनामियों की गालियां सुनकर भी मुस्कुराता रहता है और गाली देने वाले को प्यार से भाई कहकर बुलाता है। जबकि औरत अपने मिजाज के खिलाफ टिप्पणी देखकर पूरी दुनिया में तहलका मचा देती है। (हालांकि ये टिप्पणियां कुछ बेनामियों के द्वारा दूसरों को लड़ाने के लिये लिखी गयी होती हैं।) ब्लाग्स को बन्द करवाने की धमकियां देने लगती है। मर्द का अगर ओबामा से भी ताल्लुक होता है तो वो उसे हल्के अंदाज में लेता है। जबकि औरत की किसी छोटे मोटे थाने में पहचान निकल आती है तो वह पूरी दुनिया को बन्द करवाने की धमकियां देने लगती है।

मर्द किसी की सिफारिश करके उसकी जिंदगी बना देता है और फिर भूल जाता है लेकिन औरत किसी को पुलिस से बचाती है तो जिंदगी भर उसकी कहानी बताती है।
औरत लूडो का भी गेम जीतकर पूरी दुनिया में इतराती है जबकि मर्द पोरस को हराने के बाद भी उसे अपने बराबर बिठाता है। 

हजार नावेल लिखने के बाद भी मर्द अपने को शब्दों का राजकुमार नहीं लिखता जबकि औरत दो गजलें लिखने के बाद अपने को शब्दों की रानी लिखने लगती है। मर्द को अगर कोई पानी पर चढ़ाने की कोशिश करता है तो वह पहले नाव बनाता है फिर पानी पर चढ़ाई करता है जबकि औरत तुरन्त पानी पर चढ़ जाती है।
मर्द कभी औरतों का लिबास पहनने की ख्वाहिश नहीं करता लेकिन औरत मर्दों का लिबास पहनकर अपने को खुश और आजाद महसूस करती है। इसका मतलब यही निकलता है कि वह मानसिक तौर पर हीन भावना की शिकार है।

एक तरफ तो वह उन सरकारों से खुश होती है जो औरतों को पर्दे से आजाद होने का फरमान सुनाती हैं तो दूसरी तरफ वह अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबन्ध लगाने की भी वकालत करती है। सिर्फ इसलिये क्योंकि कोई उसपर कमेण्ट पास कर रहा है। हालांकि हो सकता है वह कमेण्ट उस का हो जो किसी दूसरे नाम से उसे पानी पर चढ़ा रहा हो।
एक तरफ वह तालिबानियों को बुरा भला कहती है जो लोगों का आजादी से अपनी बात कहने का अधिकार छीन रहे हैं तो दूसरी तरफ वह अपने खिलाफ कुछ भी कहने वालों को जेल की सलाखों के पीछे करने के लिये चीख पुकार मचा देती है।

अगर औरत को कोई छेड़ता है तो उसके सम्मान पर चोट लगती है और अगर नहीं छेड़ता तो वह एहसास कमतरी की शिकार हो जाती है।
तो आप गौर करें कि आप किसके चक्कर में पड़कर एक फलाही काम से हाथ खींच रहे हैं। शुक्रिया।

नोट : यहाँ 'औरत' से तात्पर्य वह 'औरतें' हैं जिनपर मर्दों से आगे निकलने का तो भूत सवार है लेकिन क्षमता नहीं है.

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Tuesday, April 20, 2010

भूकंपों की अधिकता के कारण: Saleem Khan

आज कल कई सारे देश जैसे कि : तुर्की, मेक्सिको, ताईवान, जापान, और अन्य देश ... भूकंप से ग्रस्त हुए हैं तो क्या ये किसी बात के संकेतक हैं ? आख़िर इस तरह के भूकंप की अधिकता की वजह क्या है??? 


हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है, तथा दया और शान्ति अवतरित हो अल्लाह के पैगंबर, आप के परिवार, आप के साथियों और आप के द्वारा निर्देषित मार्ग पर चलने वालों पर, अल्लाह की प्रशंसा और गुणगान के बाद :


सर्वशक्तिमान और पवित्र अल्लाह जो कुछ भी फैसला करता और मुक़द्दर करता है, उस में वह सर्वबुद्धिमान और सर्वज्ञानी है, जिस तरह कि उस ने जो कुछ धर्म संगत बनाया है और जिस का हुक्म दिया है उस में वह सर्वबुद्धिमान और सर्वज्ञानी है, और वह पवित्र अल्लाह जो भी निशानियाँ चाहता है पैदा करता और मुक़द्दर करता है ; ताकि बन्दों को डराये धमकाये, और उन के ऊपर अल्लाह का जो हक़ अनिवार्य है उन्हें उस का स्मरण कराये, और उन्हें अपने साथ शिर्क करने, और अपने आदेश का प्रतिरोध करने और अपने निषेद्ध को करने से सावधान करे, जैसाकि अल्लाह सुब्हानहु व तआला का फरमान है : "हम तो लोगों को केवल धमकाने के लिए निशानियाँ भेजते हैं।" (सूरतुल इस्रा : 59)
तथा सर्वशक्तिमान अल्लाह ने फरमाया : "जल्द ही हम उन्हें अपनी निशानियाँ दुनिया के किनारों में भी दिखायें गे और खुद उन के अपने वजूद में भी, यहाँ तक कि उन पर खुल जाये कि सच यही है। क्या आप के रब का हर चीज़ से अवगत होना काफी नहीं।" (सूरत फुस्सिलत : 53)

तथा अल्लाह तआला का फरमान है : "आप कह दीजिये कि वही तुम पर तुम्हारे ऊपर से कोई अज़ाब भेजने या तुम्हारे पैरों के नीचे से (अज़ाब) भेजने या तुम्हें अनेक गिरोह बनाकर आपस में लड़ाई का मज़ा चखाने की ताक़त रखता है।" (सूरतुल अंआम : 65)

तथा इमाम बुखारी ने अपनी सहीह में जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत करते हैं कि जब अल्लाह तआला का यह फरमान कि : "आप कह दीजिये कि वही तुम पर तुम्हारे ऊपर से कोई अज़ाब भेजने में सक्षम है" तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : (मैं तेरे चेहरे की शरण में आता हूँ।) "या तुम्हारे पैरों के नीचे से" तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : (मैं तेरे चेहरे की पनाह में आता हूँ।) (सहीह बुखारी 5/193)

तथा अबुश्शैख अल असबहानी ने इस आयत की तफसीर (व्याख्या) कि : "आप कह दीजिये कि वही तुम पर तुम्हारे ऊपर से कोई अज़ाब भेजने में सक्षम है" में मुजाहिद से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : चींख, पत्थर और तेज़ हवा (का अज़ाब)। या "तुम्हारे पैरों के नीचे से" मुजाहिद ने कहा : भूकंप और पृथ्वी का धंसा दिया जाना।

इस में कोई शक नहीं कि इन दिनों बहुत सारे छेत्रों में जो भूकंप आ रहे हैं वे उन निशानियों में से हैं जिन के द्वारा अल्लाह सुब्हानहु व तआला अपने बन्दों को डराता और धमकाता है, तथा इस जगत में जो भी भूकंप और प्राकृतिक आपदायें इत्यादि आती हैं जिन के द्वारा मानव को हानि पहुँचती है और उन के लिए कई प्रकार के कष्ट का कारण बनती है, सब के सब शिर्क और गुनाहों के कारण हैं, जैसाकि सर्वशक्तिमान अल्लाह का फरमान है : "और जो कुछ भी कष्ट तुम्हें पहुँचता है वह तुम्हारे अपने हाथों के करतूत का (बदला) है। और वह बहुत सी बातों को माफ कर देता है।" (सूरतुश्शूरा : 30)

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "आप को जो भलाई पहुँचती है वह अल्लाह तआला की तरफ से है और जो बुराई पहुँचती है वह स्वयं आप के अपनी तरफ से है।" (सूरतुन निसा : 79)

और अल्लाह तआला ने पिछले समुदायों के बारे में फरमाया : "फिर तो हम ने हर एक को उस के पाप की सज़ा में धर लिया, उन में से कुछ पर हम ने पत्थरों की बारिश की, उन में से कुछ को तेज़ चींख ने दबोच लिया, उन में से कुछ को हम ने धरती में धंसा दिया और उन में से कुछ को हम ने पानी में डुबो दिया। अल्लाह तआला ऐसा नहीं कि उन पर ज़ुल्म करे बल्कि वही लोग अपनी जानों पर जु़ल्म करते थे।" (सूरतुल अनकबूत : 40)

अत: मुकल्लफ (वह व्यक्ति जिस पर शरीअत के आदेश का पालन करना अनिवार्य हो गया हो) मुसलमानों और अन्य लोगों पर अनिवार्य है कि वे अल्लाह के सामने तौबा करें, उस के धर्म पर स्थिरता के साथ जम जायें, और जिस शिर्क और अवज्ञा से उस ने रोका है उस से बचाव करें, ताकि उन्हें दुनिया और आखिरत में सभी बुराईयों से मोक्ष और छुटकारा प्राप्त हो, और ताकि अल्लाह तआला उन से हर आपदा को हटा दे और उन्हें हर प्रकार की भलाई प्रदान करे, जैसाकि अल्लाह सुब्हानहु व तआला का फरमान है : "और यदि उन नगरों के निवासी ईमान ले आते तथा तक़्वा (संयम) अपनाते तो हम उन पर आकाश एवं धरती की बरकतें (विभूतियाँ) खोल देते, किन्तु उन्हों ने झुठलाया तो हम ने उनके (कु)कर्मो के कारण उन्हें पकड़ लिया।" (सूरतुल आराफ: 96)

तथा अल्लाह तआला ने अह्ले किताब (यहूदियों और ईसाईयों) के बारे में फरमाया : "और अगर वे तौरात और इंजील और उन धर्म शास्त्रों की पाबन्दी करते जो उन की तरफ उन के रब की ओर से उतारी गई है तो अपने ऊपर और पैरों के नीचे से खाते।" (सूरतुल माइदा : 66)

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "क्या फिर भी इन बस्तियों के निवासी इस बात से निश्चिन्त हो गए हैं कि उन पर हमारा प्रकोप रात के समय आ पड़े जिस समय वह नीन्द में हों। तथा क्या इन बस्तियों के निवासी इस बात से निश्चिन्त हो गये हैं कि उन पर हमारा प्रकोप दिन चढ़े आ पड़े जिस समय वह अपने खेलों में व्यस्त हों। क्या वह अल्लाह की पकड़ से निश्चिन्त (निर्भय) हो गये, सो अल्लाह की पकड़ से वही लोग निश्चिन्त होते हैं जो छति ग्रस्त (घाटा उठाने वाले) हैं।" (सूरतुल आराफ: 97-99)

अल्लामा इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह फरमाते हैं : "कभी कभी अल्लाह सुब्हानहु व तआला धरती को सांस लेने की अनुमति देता है तो उस में बड़े बड़े भूकंप पैदा होते हैं, और इस से वह अपने बन्दों के अन्दर भय और डर, अल्लाह की तरफ एकाग्रता, गुनाहों का परित्याग, अल्लाह के सामने गिड़गिड़ाना, और पछतावा पैदा करता है, जैसाकि किसी सलफ (पूर्वज) ने धरती पर भूकंप आने के समय कहा थ कि : तुम्हारा पालनहार तुम से क्षमा याचना करवा (गुनाहों की माफी मंगवा) रहा है। तथा उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु ने जब मदीना में भूकंप आया तो लोगों को सम्बोधित किया और उन्हें सदुपदेश किया, और कहा : यदि इस में दुबारा भूकंप आया तो मैं तुम्हारे साथ इस में निवास नहीं करूंगा।" (इब्नुल क़ैयिम की बात समाप्त हुई)

सलफ सालेहीन (पूर्वजों) से इस विषय में बहुत सारे कथन वर्णित हैं ..

अत: भूकंप और उस के अलावा अन्य निशानियों, तेज़ हवा, और बाढ़ आने के समय अल्लाह सुब्हानहु व तआला से तौबा करने में जल्दी करना, उस के सामने रोना गिड़गिड़ाना, उस से सुरक्षा और शान्ति का प्रश्न करना, अधिक से अधिक उस का ज़िक्र करना और क्षमा याचना करना अनिवार्य है, जैसाकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ग्रहण के समय फरमाया : "जब तुम इसे देखो तो अल्लाह तआला के ज़िक्र व अज़कार (स्मरण), उस से दुआ करने और उस से क्षमा याचना करने (गुनाहों की माफी मांगने) की तरफ जल्दी करो।" यह सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम की हदीस का एक अंश है। (सहीह बुखारी 2/30, सहीह मुस्लिम 2/628).

तथा गरीबों और मिस्कीनों पर दया करना और उन पर दान करना भी मुस्तहब है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "तुम (दूसरों पर) दया करो, तुम पर (भी) दया की जाये गी।" इसे इमाम अहमद ने रिवायत किया है (2/165)

"दया करने वालों पर अति दयालू (अल्लाह तआला) दया करता है, तुम धरती वालों पर दया करो, आकाश वाला तुम पर दया करे गा।" इसे अबू दाऊद (13/285) और तिर्मिज़ी (6/43) ने रिवायत किया है।

तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "जो दया नहीं करता उस पर दया नहीं की जाती।" (सहीह बुखारी 5/75, सहीह मुस्लिम 4/1809)

तथा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ रहिमहुल्लाह से वर्णित है कि वह अपने गवर्नरों के पास भूकंप आने के समय खैरात करने के लिए पत्र लिखते थे।

तथा हर बुराई से बचाव और आफियत के कारणों में से अधिकारियों का मूर्खों के हाथ को पकड़ने, उन्हें हक़ को अपनाने पर मजबूर करने, उन के बारे में अल्लाह की शरीअत के अनुसार फैसला करने, भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने में शीघ्रता से काम लेना भी है, जैसाकि सर्वशक्तिमान अल्लाह का फरमान है : "मोमिन पुरूष और महिलाएं आपस में एक दूसरे के दोस्त हैं, वे भलाई का आदेश देते हैं और बुराई से रोकते हैं, नमाज़ क़ाईम करते हैं और ज़कात देते हैं, तथा अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (फरमांबरदारी) करते हैं, यही लोग हैं जिन पर अल्लाह तआला दया करेगा, अल्लाह तआला शक्तिवान और ग़ल्बे वाला और हिक्तम वाला है।" (सूरतुत्तौबा : 71)

तथा सर्वशक्तिमान अल्लाह ने फरमाया कि : "जो अल्लाह की मदद करेगा अल्लाह भी उस की ज़रूर मदद करेगा, बेशक अल्लाह तआला बहुत ताक़तवर और प्रभुत्ता वाला (गालिब) है। ये वे लोग हैं कि अगर हम इन के पैर धरती पर मज़बूत कर दें तो ये पाबन्दी से नमाज़ अदा करेंगे और ज़कात देंगे और अच्छे कामों का हुक्म देंगे और बुरे कामों से मना करेंगे, और सभी कामों का परिणाम अल्लाह के हाथ में है।" (सूरतुल हज्ज : 40 – 41)

तथा अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया : "और जो इंसान अल्लाह से डरता है अल्लाह उस के लिए छुटकारे का रास्ता निकाल देता है। और उसे ऐसी जगह से रोज़ी देता है जिस का उसे अन्दाज़ा भी न हो। और जो व्यक्ति अल्लाह पर भरोसा करेगा तो अल्लाह तआला उस के लिये पर्याप्त है।" (सूरतुत्तलाक़ : 2-3)
इस अर्थ की आयतें और भी हैं।

तथा पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जो आदमी अपने भाई की आवश्यकता में लगा रहता है, अल्लाह तआला उसकी आवश्यकता में होता है।" (सहीह बुखारी 3/98, सहीह मुस्लिम 4/1996).

तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस ने किसी मोमिन से दुनिया की परेशानियों में से कोई परेशानी (संकट) को दूर कर दिया तो (उसके बदले) अल्लाह तआला उस से क़ियामत के दिन की परेशानियों में से एक परेशानी को दूर कर देगा, और जिस ने किसी तंगदस्त (कठिनाई पीड़ित) पर आसानी की तो अल्लाह तआला दुनिया और आख़िरत में उस पर आसानी फरमायेगा, और जिस ने किसी मुसलमान पर पर्दा डाला तो अल्लाह तआला उस पर दुनिया व आखिरत दोनों मे पर्दा डालेगा, तथा अल्लाह तआला बन्दे की मदद में रहता है जब तक कि बन्दा अपने भाई की मदद में होता है।" (सहीह मुस्लिम 4/2074) इस अर्थ की हदीसें और भी हैं।

तथा अल्लाह तआला ही से इस बात का प्रश्न है कि समस्त मुसलमानों के मामलों को सुधार (संवार) दे, उन्हें दीन की समझ प्रदान करे, और उन्हें उस पर स्थिरता और सभी गुनाहों से अल्लाह से तौबा करने की तौफीक़ दे, तथा मुसलमानों के शासकों और उन के मामलों के ज़िम्मेदारों का सुधार करे, उन के द्वारा हक़ की मदद करे, और उन के द्वारा बातिल को असहाय कर दे, और उन्हें अपने बन्दों में अल्लाह की शरीअत को लागू करने की तौफीक़ दे, और उन्हें तथा समस्त मुसलमानों को पथ भ्रष्ट करने वाले फित्नों (उपद्रवों) और शैतान के वस्वसों (प्रलोभन) से सुरक्षित रखे, यक़ीनन वह इस का स्वामी और इस पर शक्तिमान है

तथा अल्लाह तआला हमारे सन्देष्टा मुहम्मद, आप के परिवार और साथियों, तथा क़ियामत के दिन तक भलाई के साथ उन का अनुसरण करने वालों पर दया और शान्ति अवतरित करे।

प्रस्तुतकर्ता: सलीम ख़ान
मूल लेख: अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ -रहिमहुल्लाहमजल्ला अल बुहूसुल इस्लामिय्या रक़म: 51, वर्ष 1418 हिज्री
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Sunday, April 18, 2010

हम भी सुधार के हामी हैं.


यहाँ बात हो रही है सुधार की.
वक़्त गुजरने के साथ मज़हब में कुछ ऐसी बातें शामिल हो जाती हैं जो वास्तव में गलत होती हैं और उनका मूल धर्म से कोई लेना देना नहीं होता. मज़हब में फैली हुई कुरीतियों (बल्कि किसी भी तरह की कुरीतियों) के खिलाफ विरोध करना बहुत अच्छी बात है. लेकिन उतना ही ज़रूरी है उसका हल पेश करना. अगर पैगम्बर मोहम्मद (स.अ.) ने उस समय समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ आवाज़ उठाई तो इस्लाम के रूप में उसका हल भी पेश किया. अगर आप कहते हैं की यह गलत है, तो सही क्या है और क्यों है, यह भी आप ही सिद्ध करना है. हम कब तक दूसरों पर दोषारोपण करते रहेंगे? यही काम तो आज के नेता भी कर रहे है, सब एक दूसरे को देश की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहा है. हल कोई नहीं पेश कर रहा. 

किसी भी मज़हब की कुरीतियों को मज़हब के अन्दर ही रहते हुए दूर करने की पूरी गुंजाइश है. इसलिए क्योंकि कोई भी कुरीति मज़हब को ढंग से न समझने के कारण पैदा होती है. यह ज़रूरी नहीं की हमें कहीं कोई बुराई दिख रही है तो उसके लिए सीधे मज़हब पर इलज़ाम लगा दें.  

हमारी अंजुमन ऐसा ही प्रयास कर रही है. कुछ उदाहरण :


सफात साहब ने बताया की इस्लाम में औरतों के अधिकार किस तरह के हैं, क्या वाकई वह मर्दों की गुलाम है?
कुरआन की जिस आयत को लेकर लोग औरतों को पीटने की बात करते हैं, वह आयत दरअसल औरत की प्रोटेक्टर है, बस ज़रुरत है दूसरे नजरिये से देखने की.

अगर आप किसी मज़हब के एक खरब मानने वालों से दलीलों के साथ कहते हैं की जिस कुरीति को तुम धर्म समझ रहे वह धर्म का अंग नहीं है तो एक खरब में शायद हज़ार ऐसे होंगे जो आपकी बात स्वीकार नहीं करेंगे.  लेकिन अगर आप ये कहते हैं की यह तुम्हारे धर्म की कुरीति है और इसको अलग करके बाकी बचे हुए धर्म को मानो तो एक खरब में केवल हज़ार ऐसे होंगे जो आपकी बात को स्वीकार करेंगे.



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Thursday, April 15, 2010

मास्टर मुहम्मद आमिर (बलबीर सिंह, पूर्व शिवसेना युवा शाखा अध्‍यक्ष) से एक मुलाकात - Interview

राम के देश में अरब लुटेरों की वजह से राम के भगतों पर राम-जन्म भूमि पर गोली चला दी जाये, यह कैसा अन्याय और जुल्म है, मुझे बहुत गुस्सा था, कभी ख्याल होता था कि खुदकशी कर लूँ कभी दिल में आता था कि लखनऊ जाकर मुलायम सिंह के अपने हाथ से गोली मार दूँ, मुल्क में फसादात चलते रहे और मैं उस दिन की वजह से बेचैन था कि मुझे मौका मिले और मैं बाबरी मस्जिद को अपने हाथों मसमार(ध्वस्त) करूं। एक-एक दिन करके वह मनहूस दिन करीब आया जिसे मैं उस वक्त खुशी का दिन समझता था।...balbir> amir

अहमद अव्वाहः अस्सलामु अलैकुम
मास्टर मुहम्मद आमिरः व अलैकुमुस्सलाम

अहमदः मास्टर साहब। एक अरसे से अबी (मौलाना कलीम सिद्दीकी) का हुक्म था कि ‘अरमुगान’ (मासिक पत्रिका) के लिए आप से इण्टरव्यू लूँ, अच्छा हुआ आप खुद ही तशरीफ ले आए, आपसे कुछ बातें करनी हैं।
आमिरः अहमद भाई! आपने मेरे दिल की बात कही। जब से ‘अरमुगान’ में नव-मुस्लिमों के इण्टरव्यू का सिलसिला चल रहा है। मेरी ख्वाहिश(इच्छा) थी कि मेरे कुबूले इस्लाम का हाल उस में छपे। इस लिए नहीं कि मेरा नाम ‘अरमुगान’ में आये बल्कि इस लिए कि दावत का काम करने वालों को हौसला बढे और दुनिया के सामने करीम व हादी (कृपालू व सण्मार्ग-प्रदर्शक) रब की करम फरमाई की एक मिसाल सामने आये और दावत का काम करने वालों को यह मालूम हो कि जब ऐसे कमीने इन्सान और अपने मुबारक घर को ढाने वाले को अल्लाह तआला हिदायत (पथ-प्रदर्शन, निर्देश) से नवाज़ सकते हैं तो आम शरीफ और भोले भाले लोगों के लिए हिदायत (पथ-प्रदर्शन) के कैसे मवाके (अवसर) हैं।

आमिरः आप अपना खानदानी तआरुफ(परिचय) कराएँ।
अहमदः मेरा तअल्लुक सूबा हरियाणा के पानीपत जिले के एक गाँव से है, मेरी पैदाईश 6 दिसम्बर 1970 को एक राजपूत घराने में हुयी, मेरे वालिद साहब (पिताजी) एक अच्छे किसान होने के साथ-साथ एक प्राइमरी स्कूल में हेडमास्टर थे। वह बहुत अच्छे इन्सान थे और इन्सानियत दोस्ती उनका मज़हब था। किसी पर भी किसी तरह के जुल्म से उन्हें सख्त चिढ थी। सन 47 के फसादात उन्होंने अपनी आँखों से देखे थे। वह बहुत कर्ब(तकलीफ) के साथ उनका जिक्र करते थे और मुसलमानों के कत्लेआम को मुल्क पर बडा दाग समझते थे। बचे-खुचे मुसलमानों को बसाने में वह बहुत मदद करते थे। मेरा पैदाईशी नाम बलबीर सिंह था। अपने गाँव के स्कूल में मैं ने हाइस्कूल करके इंटरमीडीएट में, पानीपत में दाखिला लिया। पानीपत शायद मुम्बई के बाद शिवसेना का सबसे मजबूत गढ है। खास तौर पर जवान तब्का और स्कूल के लोग शिव सेना में बहुत लगे हुये हैं।

वहाँ मेरी दोस्ती कुछ शिवसैनिकों से हो गयी और मैंने भी पानीपत शाखा में नाम लिखा लिया। पानीपत के इतिहास के हवाले से वहाँ नौजवानों में मुसलमानों खास तौर पर और दूसरे मुसलमान बादशाहों के खिलाफ बडी नफरत घोली जा रही थी। मेरे वालिद साहब को मेरे बारे में मालूम हुआ कि मैं शिवसेना में शामिल हो गया हूँ तो उन्होंने मुझे बहुत समझाया, उन्होंने मुझे इतिहास के हवाले से समझाने की कोशिश की और उन्होंने ‘बाबर’ खास तौर पर औरंगजेब के हुकूमत के इन्साफ और गैरमुस्लिमों के साथ उनके उमदा सुलूक (अच्छा व्यवहार) के किस्से सुनाये और मुझे बताने की कोशिश की कि अंग्रेजों ने गलत तारीख(इतिहास) हमें लडाने के लिये और देश को कमजोर करने के लिये घड कर तैयार की है, उन्होंने 1947 के ज़ुल्म और कत्ल गारत के किस्सों के हवाले से मुझे शिव सेना से बाज (दूर) रखने की कोशिश की, मगर मेरी समझ में कुछ न आया।

अहमदः आपने फुलत के क्याम(संस्थापन) के दौरान बाबरी मस्जिद की शहादत में अपनी शिर्कत का किस्सा सुनाया था, जरा अब दोबारा तफसील से सुनाईये।
आमिरः वह किस्सा इस तरह है कि 1990 में आडवाणी जी की रथ-यात्रा में मुझे पानीपत के प्रोग्राम की खासी बडी जिम्मेदारी सोंपी गयी, रथ यात्रा में उन जिम्मेदारियों ने हमारे रोयें-रोयें में मुस्लिम नफरत की आग भर दी। मैं ने शिवा जी की सौगंध खायी कि कोई कुछ भी करे मैं खुद अकेले जाकर राम मन्दिर पर से उस जालिमाना ढांचे को मस्मार (ध्वस्त) कर दूंगा, उस यात्रा में मेरी कारकर्दगी(कर्मण्यता, प्रफॉर्मेन्स) की वजह से मुझे शिवसेना यूथ विंग का सदर(अध्यक्ष) बना दिया गया, मैं अपनी नौजवान टीम को लेकर 30 अक्तूबर को अयोध्या गया, रास्ते में हमें पुलिस ने फेजाबाद में रोक दिया, मैं और कुछ साथी किसी तरह बच-बचाकर फिर भी अयोध्या पहुँचे मगर पहुँचने में देर हो गयी और उस से पहले गोली चल चुकी थी और बहुत कोशिश के बावजूद मैं बाबरी मस्जिद के पास न पहुँच सका मेरी नफरत की आग उससे और भडकी मैं अपने साथियों से बार-बार कहता था। इस जीवन से मर जाना बहतर है।

राम के देश में अरब लुटेरों की वजह से राम के भगतों पर राम-जन्म भूमि पर गोली चला दी जाये, यह कैसा अन्याय और जुल्म है, मुझे बहुत गुस्सा था, कभी ख्याल होता था कि खुदकशी कर लूँ कभी दिल में आता था कि लखनऊ जाकर मुलायम सिंह के अपने हाथ से गोली मार दूँ, मुल्क में फसादात चलते रहे और मैं उस दिन की वजह से बेचैन था कि मुझे मौका मिले और मैं बाबरी मस्जिद को अपने हाथों मसमार(ध्वस्त) करूं। एक-एक दिन करके वह मनहूस दिन करीब आया जिसे मैं उस वक्त खुशी का दिन समझता था। मैं अपने कुछ जज्बाती साथियों के साथ एक दिसम्बर 1992 को पहले अयोध्या पहुँचा, मरे साथ सोनीपत के पास एक जाटों के गाँव का एक नौजवान योगेन्द्रपाल भी था जो मेरा सबसे करीबी दोस्त था। उसके वालिद एक बडे ज़मींदार थे और वह भी बडे इन्सान दोस्त आदमी थे, उन्होंने अपने इकलौते बेटे को अयोध्या जाने से बहुत रोका। उस के ताऊ भी बहुत बिगडे। मगर वह नहीं रूका। हम लोग 6 दिसम्बर से पहले की रात में बाबरी मस्जिद के बिलकुल करीब पहुँच गये और हमने बाबरी मस्जिद के सामने कुछ मुसलमानों के घरों की छतों पर रात गुजशरी। मुझे बार-बार ख्याल होता था कि कहीं 30 अक्तूबर की तरह आज भी हम इस शुभ काम से महरूम (वंचित) न रह जाएँ। कई बार ख्याल आया कि लीडर न जाने क्या करें। हमें खुद ही कारसेवा शुरू करनी चाहिए। मगर हमारे संचलालक ने हमें रोका और डिसिप्लिन(अनुशासन) बनाये रखने को कहा। उमा भारती ने भाषण दिया और कारसेवकों में आग भर दी। मैं भाषण सुनते-सुनते मकान की छत से उतरकर कुदाल लेकर बाबरी मस्जिद की छत पर चढ़ गया। योगेंद्र भी मेरे साथ था।

जैसे ही उमा भारती ने नारा लगाया ‘‘एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड दो’’। बस मेरी मुरादों (इच्छाओं) के पूरा होने का वक्त आ गया और मैंने बीच वाले गुंबद पर कुदाल चलाई और भगवान राम की जय के ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाये। देखते ही देखते मस्जिद मस्मार हो गयी। मस्जिद के गिरने से पहले हम लोग नीचे उतर आये। हम लोग बडे खुश थे। रामलला के लगाये जाने के बाद उसके सामने माथा टेककर हम लोग खुशी से घर आये और बाबरी मस्जिद की दो ईंटें अपने साथ लाये। जो मैं ने खुशी-खुशी पानीपत के साथियों को दिखायीं। वह लोग मेरी पीठ ठोंकते थे। शिवसेना के दफ्तर में वे ईंटे रख दी गयीं और एक जलसा किया गया और सब लोगों ने भाषण में फखर (गर्व) से मेरा जिक्र(उल्लेख) किया कि हमें गर्व है कि पानीपत के नौजवान शिवसैनिक ने सब से पहले राम भक्ती में कुदाल चलायी। मैंने घर भी खुशी से जाकर बताया। मेरे पिताजी बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने गहरे दुख का इजहार किया और मुझ से साफ कह दिया कि, अब इस घर में तू और मैं दोनों नहीं रह सकते, अगर तू रहेगा तो मै घर छोडकर चला जाऊँगा, नहीं तो तू हमारे घर से चला जा। मालिक के घर को ढाने वाले की मैं सूरत भी देखना नहीं चाहता। मेरी मौत तक तू मुझे कभी सूरत न दिखाना। मुझे इस का अन्दाज़ा नहीं था। मैं ने उनको समझाने की कोशिश की और पानीपत में जो सम्मान मुझे इस कारनामें पर मिला था वह बताने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि यह देश ऐसे ज़ालिमों की वजह से बर्बाद हो जायेगा और गुस्से में घर से जाने लगे। मैं ने मौके को भाँपा और कहा ‘‘आप घर से न जाएँ, मैं खुद इस घर में नहीं रहना चाहता, जहाँ राम मन्दिर भक्त को ज़ालिम समझा जाता हो’’ और मैं घर छोडकर आ गया और पानीपत में रहने लगा’’

अहमदः अपने कुबूले इस्लाम के बारे में बताइये।
आमिरः प्यारे भाई अहमद! मेरे अल्लाह कैसे करीम (कृपालू) हैं कि जुल्म और शिर्क (अनेकश्वरवाद) के अन्धेरे से मुझे न चाहते हुए इस्लाम के नूर और हिदायत से माला-माल किया। मुझ जैसे ज़ालिम को जिसने उसका मुकद्दस (पवित्र) घर शहीद किया। हिदायत से नवाज़ा। हुआ यह कि मेरे दोस्त योगेंद्र ने बाबरी मस्जिद की दो ईंटें लाकर रखीं और माईक से एलान किया कि राम मन्दिर पर बने ज़ालिमाना ढाँचे की ईंटें सौभाग्य से हमारे तकदीर में आ गयी हैं। सब हिन्दू भाई आकर उन पर (मुत्रादान) पेशाब करें। फिर किया था, भीड लग गयी। हर कोई आता था और उन ईंटों पर हिकारत (तुच्छता) से पेशाब करता था।

मस्जिद के मालिक को अपनी शान भी दिखानी थी। चार पाँच रोज़ के बाद योगेंद्र का दिमाग खराब हो गया। पागल होकर वह नंगा रहने लगा। सारे कपडे उतारता था। वह इज्जत वाले ज़मींदार चैधरी का इकलौता बेटा था। उस पागलपन में वह बार-बार अपनी माँ के कपडे उतारकर उस से मुँह काला करने को कहता। बार-बार इस गंदे जज्बे से उस को लिपट जाता। उस के वालिद बहुत परेशान हुए। बहुत से सियानों और मौलाना लोगों को दिखाया। बार-बार मालिक से माफी मांगते। दान करते, मगर उस की हालत और बिगडती थी। एक रोज़ वह बाहर गए, तो उसने अपनी माँ के साथ गंदी हरकत करनी चाही। उस ने शौर मचा दिया। मौहल्ले वाले आये तो जान बची। उस को जन्जीरों में बाँध दिया गया। योगेंद्र के वालिद इज्जत वाले आदमी थे, उन्होंने उसको गोली मारने का इरादा कर लिया। किसी ने बताया कि यहाँ सोनीपत में ईदगाह में एक मदरसा है। वहाँ बडे मौलाना साहब आते हैं। आप एक दफा उन से और मिल लें। अगर वहाँ कोई हल न हो तो फिर जो चाहे करना। सोनीपत गये तो मालूम हुआ कि मौलाना साहब तो यहाँ पहली तारीख को आते हैं। और परसों पहली जनवरी को आकर दो तारीख की सुबह में जा चुके हैं। चौधरी साहब बहुत मायूस हुए और किसी झाडफूंक करने वाले को मालूम किया। मालूम हुआ कि मदरसे के जिम्मेदार कारी साहब ये काम कर देते हैं, मगर वह भी मौलाना साहब के साथ सफर पर निकल गये हैं। ईदगाह के एक दुकानदार ने उन्हें मौलाना का दिल्ली का पता दिया और यह भी बताया कि परसों बुध को हजरत मौलाना ने (बवाना, दिल्ली) में उनके यहाँ आने का वादा किया है। वह लडके को जन्जीर में बाँधकर बवाना के इमाम साहब के पास ले गए वह आप के वालिद साहब के मुरीद(धर्म-शिष्य) थे और बहुत ज़माने से उन से बवाना के लिये तारीख लेना चाहते थे, मौलाना साहब हर बार उन से माजरत (खेद) कर रहे थे। इस बार उन्होंने इधर के सफर में दो रोज़ के बाद जोहर (दोपहर) की नमाज़ पढने का वादा कर लिया था।

बवाना के इमाम साहब ने बताया कि हालात के खराब होने की वजह से 6 दिसम्बर से पहले हरियाणा के बहुत से इमाम और मुदर्रीसीन (शिक्षक) यहाँ से यु. पी. अपने घरों को चले गए थे और बाज(बहुत से) उन में से एक महीने तक नहीं आये इस लिए मौलाना साहब ने पहली तारीख को इस मौजु (विषय) पर तकरीर की और बडी जोर देकर यह बात कही कि अगर मुसलमानों ने इन गैरमुस्लिम भाईयों को दावत दी होती और इस्लाम और अल्लाह और मस्जिद का परिचय कराया होता तो ऐसे वाकिआत पेश न आते। उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद की शहादत के बयक वास्ता हम मुसलमान जिम्‍मेदार हैं और अगर अब भी हमें होश आ जाये और हम दावत का हक अदा करने लगें तो मस्जिद गिराने वाले मस्जिद बनाने और उन को आबाद करने वाले बन सकते हैं। ऐसे मौके पर हमारे आका ‘‘अल्लाहुम्मा अहद कोमी फअन्नाहुम ला यालमून’’ (ऐ अल्लाह मेरी कौम को हिदायत दे, इस लिए कि ये लोग जानते नहीं) फरमाया करते थे। योगेंद्र के वालिद चैधरी रघुबीर सिंह जब बवाना के इमाम (जिन का नाम शायद बशीर अहमद था) के पास पहुंचे तो उन पर उस वक्त अपने शेख (गुरू) की तकरीर का बडा असर था। उन्होंने चौधरी साहब से कहा कि मैं झाड फूँक का काम करता था। मगर अब हमारे हजरत ने हमें इस काम से रोक दिया। क्योंकि इस पेशे में झूठ और औरतों से इख्तेलात (मेल मिलाप) बहुत होता है और इस लडके पर कोई असर या जादू वगैरा नहीं बल्कि मालिक का अजाब (प्रकोप) है। आप के लिए एक मौका है। हमारे बडे हजरत साहब परसों बुध के रोज़ दोपहर को यहाँ आ रहे हैं। आप उनके सामने बात रखें आप का बेटा हमें उम्मीद है कि ठीक हो जायेगा मगर आप को एक काम करना पडेगा। वह यह कि अगर आप का बेटा ठीक हो जाए तो ईमानवाला बनना पडेगा। चौधरी साहब ने कहा ‘‘मेरा बेटा ठीक हो जाये तो मैं सब काम करने को तैयार हूँ’’।

तीसरे रोज बुध था। चौधरी रघुबीर साहब योगेन्द्र को लेकर सुबह 8 बजे बवाना पहुँच गये। दोपहर को जोहर से पहले मौलाना साहब आये। योगेन्द्र जन्जीर में बंधा नंग-धडंग खडा था। चैधरी साहब रोते हुए मौलाना साहब के कदमों में गिर गए और बोले कि, मौलाना साहब मैंने इस कमीने को बहुत रोका मगर पानीपत के एक ओत के चक्कर में आ गया। मौलाना साहब मुझे क्षमा करा दीजिये मेरे घर को बचा लिजिए। मौलाना साहब ने सख्ती से उन्हें सर उठाने के लिए कहा और पूरा वाकिआ(घटना) सुना। उन्होंने चैधरी साहब से कहा, सारे सन्सार के चलाने वाले सर्व-शक्तिमान (कादिरे मुतलक) खुदा का घर ढाकर इन्होंने ऐसा बडा पाप किया है कि अगर वह मालिक सारे सन्सार को खत्म कर दे तो ठीक हैं, यह तो बहुत कम है कि इस अकेले पर पडी है। हम भी उस मालिक के बंदे हैं और एक तरह से इस बडे घन्घोर पाप में हम भी कुसूरवार हैं। कि हमने मस्जिद को शहीद करने वालों को समझाने का हक अदा नहीं किया। अब हमारे बस में कुछ भी नहीं है। बस यह है कि आप भी और हम भी उस मालिक के सामने गिडगिडाएँ और क्षमा माँगें और हम भी माफी माँगे। मौलाना साहब ने कहा, जब तक हम मस्जिद में प्रोग्राम से फारिग (निवृत्त) हों आप अपने ध्यान को मालिक की तरफ लगाकर सच्चे दिल से माफी और प्रार्थना करें कि मालिक मेरी मुश्किल को आपके अलावा कोई नहीं हटा सकता।

चौधरी साहब फिर मौलाना साहब के कदमों में गिर गये और बोले, जी मैं इस लायक होता तो यह हद क्यों देखता? आप मालिक के करीब हैं। आप ही कुछ करें। मौलाना साहब ने उनसे कहा, आप मेरे पास इलाज के लिए आये हैं। अब जो इलाज में बता रहा हूँ। वह आपको करना चाहिये। वह राजी हो गये। मौलाना साहब मस्जिद में गये नमाज़ पढ़ी, थोडी देर तकरीर (भाषण) की और दुआ की। मौलाना साहब ने सभी लोगों से चौधरी साहब के लिए दुआ को कहा, प्रोग्राम के बाद मस्जिद में नाश्ता हुआ, नाश्ते से फारिग होकर मसिजद से बाहर निकले तो मालिक का करम कि योगेंद्र ने अपने बाप की पगडी उतारकर अपने नंगे जिस्म पर लपेट ली थी और ठीक-ठाक अपने वालिद से बात कर रहा था। सब लोग बहुत खुश हुए। बवाना के इमाम साहब तो बहुत खुश हुए। उन्होंने चौधरी साहब को वादा याद दिलाया और इस से डराया भी कि जिस मालिक ने इस को अच्छा किया है अगर तुम वादे के मुताबिक ईमान नहीं लाएँ तो फिर ये दोबारा इस से ज्यादा पागल हो सकता है। वह तैयार हो गये और इमाम साहब से बोले, मौलाना साहब मेरी सात पुश्ते आप के अहसान (उपकार) का बदला नहीं दे सकतीं आपका गुलाम हूँ, जहाँ चाहें पाप मुझे बेच सकते हैं, हजरत मौलाना को जब यह मालूम हुआ कि इमाम साहब ने उनसे ठीक होने का ऐसा वादा कर लिया था। तो उन्हों ने इमाम साहब को समझाया कि इस तरह करना एहतियात के खिलाफ है। चौधरी साहब को मस्जिद में ले जाने लगे तो योगेन्द्र ने पूछा ‘‘पिताजी कहाँ जा रहे हो? तो उन्होंने कहा, मुसलमान बनने’’। तो योगेन्द्र ने कहा ‘‘मुझे आप से पहले मुसलमान बनना है और मुझे तो बाबरी मस्जिद दोबारा जरूर बनवानी है। खुशी-खुशी उन दोनों को वुजु कराया और कलमा पढवाया गया। वालिद साहब का मुहम्मद उस्मान और बेटे का मुहम्मद उमर नाम रखा गया। खुशी-खुशी वे दोनों अपने गाँव पहुँचे।

वहाँ पर एक छोटी सी मस्जिद है उस के इमाम साहब से जाकर मिले। इमाम साहब ने मुसलमानों को बता दिया। बात पूरे इलाके में फैल गयी। गैरों तक बात पहुँची तो कुव्वतदार(ताकतवर) लोगों की मीटिंग हुयी और तय किया कि उन दोनों को रात में कत्ल करवा दिया जाये। वरना न जाने कितने लोगों का धर्म खराब करेंगे। इस मीटिंग में एक मुर्तद(धर्म-भ्रष्ट) भी शरीक था उसने इमाम साहब को बता दिया। अल्लाह ने खेर की उन दोनों को रातों रात गाँव से निकाला गया। फुलत गये और बाद में जमाअत में 40 दिन के लिए चले गये। योगेन्द्र ने फिर अमीर साहब के मशवरे (सलाह) से तीन चिल्ले (120 दिन) लगाये। बाद में उनकी वालिदा (माँ) भी मुसलमान हो गयीं। मुहम्मद उमर की शादी दिल्ली में एक अच्छे मुसलमान घराने में हो गयी। और वे सब लोग खुशी खुशी दिल्ली में रह रहे हैं, गाँव का मकान और जमीन वगैरा बेचकर दिल्ली में एक कारखाना लिया है।

अहमदः मास्टर साहब, आप से मैं ने आप के इस्लाम कुबूल करने के बारे में सवाल किया था। आप ने योगेंद्र और उन के खानदान की दास्तान सुनायी। वाकई यह खुद अजीबो गरीब कहानी है, मगर मुझे तो आप के कुबूले इस्लाम के बारे में मालूम करना है।
आमिरः प्यारे भाई। असल में मेरे कुबूले इस्लाम को उस कहानी से अलग करना मुमकिन नहीं इस लिए मैंने उस का पहला हिस्सा सुनाया। अब आगे दूसरा हिस्सा सुन लिजिए। मार्च 93 को अचानक मेरे वालिद का हार्ट फेल होकर इंतेकाल (देहांत) हो गया। उन पर बाबरी मस्जिद की शहादत और उस में मेरी शिरकत का बडा गम था। वह मेरी ममी से कहते थे कि मालिक ने हमें मुसलमानों में पैदा क्यों नहीं किया? अगर मुसलमान घराने में पैदा होते, कम अज़ कम जुल्म सहने वालों में हमारा नाम आता। हद से तजावुज(बढने) करने वाली कौम में हमें क्यों पैदा कर दिया? उन्होंने घरवालों को वसीयत की थी कि मेरी अर्थी पर बलबीर न आने पाये, मेरी अर्थी को मिट्टी में दबाना या पानी में बहा देना। हद से तजवावुज़ (बढने) करने वाली कौम के रिवाज के मुताबिक आग मत लगाना। बल्कि शमशान में भी न ले जाना। घरवालों ने उन की इच्छा के मुताबिक अमल गिया और आठ दिन बाद मुझे उनके इन्तेकाल की खबर हुई। मेरा दिल बहुत टूटा। उनके इन्तेकाल के बाद बाबरी मस्जिद का गिराना मुझे जुल्म लगने लगा और मुझे इस पर फख्र (गर्व) के बजाये अफसोस होने लगा और मेरा दिल बुझ सा गया।

मैं घर को जाता तो मेरी मम्मी मेरे वालिद के गम को याद करके रोने लगती और कहती, कि ऐसे देवता बाप को तूने सताकर मार दिया, तू कैसा नीच इन्सान है। मैं ने घर जाना बंद कर दिया। जून में मुहम्मद उमर जमाअत से वापस आया तो पानीपत मेरे पास आया और अपनी पूरी कहानी बतायी। दो महीने से मेरा दिल हर वक्त खौफजदा सा रहता था कि कोई आसमानी आफत मुझ पर न आ जाये। वालिद का दुख और बाबरी मस्जिद की शहादत आफत मुझ पर न आ जाए। वालिद का दुख और बाबरी मस्जिद की शहादत दोनों की वजह से हर वक्त दिल सहमा-सहमा(डरा-डरा) सा रहता था। मुहम्मद उमर ने मुझ पर जोर दिया कि 23 जून को सोनीपत में मौलाना साहब आने वाले हैं। आप उन से जरूर मिलें और अच्छा है कुछ दिन साथ रहें। मैं ने प्रोग्राम बनाया। मुझे पहुँचने में देर हो गयी उमर भाई पहले पहुँच गये थे और मौलाना साहब से मेरे बारे में पूरा हाल बता दिया था। मैं गया तो मौलाना साहब बडी मुहब्बत से मिले और मुझ से कहा, आप की इस तहरीक (प्रेरणा) पर उस गुनाह को करने वाले योगेन्द्र के साथ मालिक यह मामला कर सकते हैं। आप के साथ भी यही मामला पेश आ सकता है और अगर इस दुनिया में वह मालिक सजा न भी दें तो मरने के बाद हमेशा के जीवन में जो सजा मिलेगी आप उस का तसव्वुर (कल्पना) भी नहीं कर सकते। एक घंटा साथ रहने के बाद मैं ने फैसला कर लिया कि अगर मुझे आसमानी आफत से बचना है तो मुसलमान हो जाना चाहिए।

मौलाना साहब दो रोज़ के सफर पर जा रहे थे। मैं ने दो रोज़ साथ रहने की ख्वाहिश का इजहार किया तो उन्होंने खुशी से कुबूल किया। एक रोज़ हरियाणा फिर दिल्ली और खुर्जा का सफर था। दो रोज़ के बाद फुलत पहुंचे। दो रोज़ के बाद मैं दिल से इस्लाम के लिए आमादा (तैयार) हो चुका था। मैं ने उमर भाई से अपना ख्याल जाहिर किया तो उन्होंने खुशी खुशी मौलाना साहब से बताया और अलहम्दुलिल्लाह मैं ने 25 जून 93 जोहर (दोपहर) के बाद इस्लाम कुबूल किया। मौलाना साहब ने मेरा नाम मुहम्मद आमिर रखा। इस्लाम के मुताला (वाचन) ओर नमाज़ वगैरा याद करने के लिए मुझे फुलत रहने का मशवरा दिया। मैंने अपनी बीवी और बच्चों की मजबूरी का जिक्र किया तो मेरे लिए मकान का नज्म (व्यवस्था) कर दिया गया। मैं चंद माह फुलत आकर रहा। और अपनी बीवी पर काम करता रहा तीन महीने के बाद वह भी मुसलमान हो गयी, अलहम्दुलिल्लाह।

अहमदः आपकी वालिदा का क्या हुआ?
आमिरः मैं ने अपनी माँ से अपने मुसलमान होने के बारे में बताया, वह बहुत खुश हुईं और बोली कि मेरे पिताजी को इससे शांति मिलेगी। वह भी इसी साल मुसलमान हो गयीं।

अहमदः आजकल आप क्या कर रहे हैं?
आमिरः आजकल मैं जूनियर हाई-स्कूल चला रहा हूँ। जिसमें इस्लामी तालीम के साथ अंग्रेजी मीडियम में तालीम का नज्म है।अहमदः अबी बता रहे थे कि हरियाणा पंजाब वगैरा की गैरआबाद मस्जिदों को आबाद करने की बडी कोशिश आप कर रहे हैं।आमिरः मैंने उमर भाई से मिलकर यह प्रोग्राम बनाया कि अल्लाह के घर को शहीद करने के बाद इस बडे गुनाह की तलाफी(क्षति-पूर्ति) के लिये हम वीरान मस्जिदों को आबाद करने और कुछ नई मस्जिदें बनाने का बेडा उठाएँ। हम दोनों ने यह तय किया कि काम तकसीम(बाँट) कर लें, मैं वीरान मस्जिदों को आबाद करवाऊँ और उमर भाई नयी मस्जिदें बनाने की कोशिश करें और एक दूसरे का तआवुन(मदद) करें। हम दोनों ने जिन्दगी में सौ-सौ मस्जिदें बनाने और वागुजार (मुक्त) कराने का प्रोग्राम बनाया है। अलहम्दु लिल्लाह 6 दिसम्बर 2004 तक 13 वीरान और मकबूजा मस्जिदें हरियाणा, पंजाब और दिल्ली और मेरठ केंट में वागुजार कराके यह पापी आबाद करा चुका है। (जुलाई 2009 तक 67 मस्जिदें वागुजार और 37 नई बन चुकी हैं)। उमर भाई मुझ से आगे निकल गए वह अब तक बीस मस्जिदें नयी बनवा चुके हैं ओर इक्कीसवीं की बुनियाद रखी है। हम लोगों ने यह तय किया है कि बाबरी मस्जिद की शहादत की हर बरसी पर 6 दिसंबर को एक वीरान मस्जिद में नमाज़ शुरू करानी है और उमर भाई को नई मस्जिद की बुनियाद जरूर रखनी है। अलहम्दु लिल्लाह कोई साल नागा नहीं हुआ। अलबत्ता सौ का निशाना अभी बहुत दूर है। इस साल उम्मीद है तादाद बहुत बढ जायेगी। आठ मस्जिदों की बात चल रही है। उम्मीद है वे आईन्दा चंद माह में जरूर आबाद हो जायेंगी। उमर भाई तो मुझ से बहुत आगे पहले ही हैं। और असल में काम भी उनही के हिस्से में है। मुझे अन्धेरे से निकालने का जरिया वही बने।

अहमदः आप के खानदान वालों का क्या ख्याल है?
आमिरः मेरी वालिदा के अलावा एक बडे भाई हैं। हमारी भाभी का चार साल पहले इन्तेकाल हो गया। उनकी शादी मुझ से बाद में हुई थी। उनके चार छोटे-छोटे बच्चे हैं। एक बच्चा माजूर (अपंग) सा है हमारी भाभी बडी भली औरत थी। भाई साहब के साथ बडी मिसाली बीवी बनकर रही उनके इन्तेकाल के बाद भाई साहब बिल्कुल टूट से गये थे। मेरे बडे भाई खुद एक बहुत शरीफ आदमी हैं। वह मेरी बीवी की इस खिदमत से बहुत मुतअस्सिर (प्रभावित) हुए। मैं ने उनको इस्लाम की दावत दी मगर मेरी वजह से मेरे वालिद के सदमे (झटके) की वजह से वह मुझे कोई अच्छा आदमी नहीं समझते थे। मैंने अपनी बीवी से मशवरा किया। मेरे बच्चे बडे हैं और भाई मुश्किल से जूझ रहे हैं। अगर मैं तुम्हें तलाक दे दूँ और इद्दत के बाद भाई तैयार हो जाएँ कि वह मुसलमान होकर तुमसे शादी करलें तो दोनों के लिए निजात का जरिया बन सकता है। वह पहले तो बहुत बुरा मानी। मगर जब मैंने उस को दिल से समझाने की कोशिश की तो वह राजी हो गई। मैंने भाई को समझाया, इन बच्चों की जिन्दगी के लिए अगर आप मुसलमान हो जाएँ और मेरी बीवी से शादी करलें तो इस में क्या हर्ज है और कोई ऐसी औरत मिलना मुश्किल है जो माँ की तरह इन बच्चों की परवरिश कर सके। वह भी शुरू में बुरा मानें कि लोग क्या कहेंगे? मैंने कहा, अक्ल से जो बात सही है उसको मानने में क्या हर्ज है? बाहम(परस्पर, आपसी) मशवरा हो गया। मैं ने अपनी बीवी को तलाक दी और इद्दत गुज़ारकर भाई को कलमा पढ़वाया और उनसे उस का निकाह कराया। अल्हमदु लिल्लाह वे बहुत खुशी-खुशी जिन्दगी गुजार रहे हैं। मेरे और उनके बच्चे उनके साथ रहते हैं।

अहमदः आप अकेले रहते हैं?
आमिरः हजरत मौलाना के मशवरे से मैं ने एक नव-मुस्लिम औरत से जो काफी मुअम्मर (वयोवृद्ध) हैं शादी कर ली है। अलहम्दुलिल्लाह खुशी-खुशी हम दोनों भी रह रहे हैं।

अहमदः कारिईने अरमुगान के लिए कुछ पैगाम आप देना चाहेंगे?
आमिरः मेरी हर मुसलमान से दरख्वास्त है कि अपने मकसदे जिन्दगी को पहचाने और इस्लाम को इन्सानियत की अमानत समझकर उस को पहुंचाने की फिक्र करे। महज़ इस्लाम दुश्‍मनी की वजह से उनसे बदले का जज्बा ना रखे। अहमद भाई मैं यह बात बिलकुल अपने जाती (व्यक्तिगत, निजि) तजर्बे से कह रहा हूँ कि बाबरी मस्जिद की शहादत में शरीक हर एक शिव सैनिक, बजरंग दली और हिन्दू को अगर यह मालूम होता कि इस्लाम क्या है? मुसलमान किसे कहते हैं? कुरआन क्या है? और मस्जिद क्या चीज़ है? तो उन में से हर एक मस्जिद बनाने की तो सोच सकता है, मस्जिद गिराने की तो सोच ही नहीं सकता। मैं यकीन से कह सकता हूँ कि बाल ठाकरे जी, विनय कटियार, उमा भारती और अशोक सिंघल जैसे सरकर्दा (प्रमुख) लोगों को भी इस्लाम की हकीकत मालूम हो जाए और यह मालूम हो जाए कि इस्लाम हमारा भी मजहब है हमारे लिए भी जरूरी है तो उन में से हर एक अपने खर्च से दोबारा बाबरी मस्जिद तामीर करने को सआदत (सौभाग्य) समझेगा।

अहमद भाई कुछ ही लोग ऐसे हैं जो मुसलमानों की दुशमनी के लिए मशहूर हैं। एक अरब हिन्दुओं में ऐसे लोग एक लाख भी नहीं होंगे। एक लाख भी सच्ची बात यह है हैं कि मैं शायद ज्यादा बता रहा हूँ। 99 करोड 99 लाख तो मेरे वालिद की तरह हैं। जो इन्सानियत दोस्त बल्कि इस्लामी उसूलों (तत्वों) को दिल से पसंद करते हैं। अहमद भाई। मेरे वालिद (रोते हुए) क्या फितरतन (स्वभावतः) मुसलमान नहीं थे? मगर ईमान वालों के दावत न देने की वजह से वह इन्कार पर मर गए। मेरे साथ और मेरे वालिद के साथ मुसलमानों का कितना बडा जुल्म है। यह बात सच्ची है कि बाबरी मस्जिद को शहीद करने वाले मुझसे ज्यादा जालिम तो वे मुसलमान हैं जिन की दअवत से गफलत की वजह से मेरे ऐसे प्यारे बाप दोजख में चले गए। मौलाना साहब सच कहते हैं, हम शहीद करने वाले भी न जानने और मुसलमानों के ना पहचानने की वजह से हुए। हम ने अन्जाने में ऐसा जुल्म किया और मुसलमान जान बूझकर उनके दोजख़ में जाने का जरिया बन रहे हैं। मुझे जब अपने वालिद के कुफ्र पर मरने का रात में भी ख्याल आता है तो मेरी नींद उड जाती है। हफ्ता-हफ्ता नींद नहीं आती। नींद की गोलियां खानी पडती हैं। काश मुसलमानों को इस दर्द का एहसास हो।

अहमदः बहुत बहुत शुक्रिया। माशा अल्लाह आपकी जिन्दगी अल्लाह की सिफते हादी (सण्मार्ग-दर्शक गुण) और इस्लाम की हक्कानियत (सच्चाई) की खुली निशानी है।
आमिरः बिलाशुबा(बे-शक) अहमद भाई। इस लिए मेरी ख्वाहिश थी कि अरमुगान में यह छपे, अल्लाह तआला इस की इशाअत (प्रकाशन) को मुसलमानों के लिए आँख खोलने का जरिया बनाये। आमीन, अच्छा, अल्लाह हाफिज। आमिरः मेरी वालिदा के अलावा एक बडे भाई हैं। हमारी भाभी का चार साल पहले इन्तेकाल हो गया। उनकी शादी मुझ से बाद में हुई थी। उनके चार छोटे-छोटे बच्चे हैं। एक बच्चा माजूर (अपंग) सा है हमारी भाभी बडी भली औरत थी। भाई साहब के साथ बडी मिसाली बीवी बनकर रही उनके इन्तेकाल के बाद भाई साहब बिल्कुल टूट से गये थे। मेरे बडे भाई खुद एक बहुत शरीफ आदमी हैं। वह मेरी बीवी की इस खिदमत से बहुत मुतअस्सिर (प्रभावित) हुए। मैं ने उनको इस्लाम की दावत दी मगर मेरी वजह से मेरे वालिद के सदमे (झटके) की वजह से वह मुझे कोई अच्छा आदमी नहीं समझते थे। मैंने अपनी बीवी से मशवरा किया। मेरे बच्चे बडे हैं और भाई मुश्किल से जूझ रहे हैं। अगर मैं तुम्हें तलाक दे दूँ और इद्दत के बाद भाई तैयार हो जाएँ कि वह मुसलमान होकर तुमसे शादी करलें तो दोनों के लिए निजात का जरिया बन सकता है। वह पहले तो बहुत बुरा मानी। मगर जब मैंने उस को दिल से समझाने की कोशिश की तो वह राजी हो गई। मैंने भाई को समझाया, इन बच्चों की जिन्दगी के लिए अगर आप मुसलमान हो जाएँ और मेरी बीवी से शादी करलें तो इस में क्या हर्ज है और कोई ऐसी औरत मिलना मुश्किल है जो माँ की तरह इन बच्चों की परवरिश कर सके। वह भी शुरू में बुरा मानें कि लोग क्या कहेंगे? मैंने कहा, अक्ल से जो बात सही है उसको मानने में क्या हर्ज है? बाहम(परस्पर, आपसी) मशवरा हो गया। मैं ने अपनी बीवी को तलाक दी और इद्दत गुज़ारकर भाई को कलमा पढ़वाया और उनसे उस का निकाह कराया। अल्हमदु लिल्लाह वे बहुत खुशी-खुशी जिन्दगी गुजार रहे हैं। मेरे और उनके बच्चे उनके साथ रहते हैं। आजकल मैं जूनियर हाई-स्कूल चला रहा हूँ। जिसमें इस्लामी तालीम के साथ अंग्रेजी मीडियम में तालीम का नज्म है।

अहमदः अबी बता रहे थे कि हरियाणा पंजाब वगैरा की गैरआबाद मस्जिदों को आबाद करने की बडी कोशिश आप कर रहे हैं।
आमिरः मैंने उमर भाई से मिलकर यह प्रोग्राम बनाया कि अल्लाह के घर को शहीद करने के बाद इस बडे गुनाह की तलाफी(क्षति-पूर्ति) के लिये हम वीरान मस्जिदों को आबाद करने और कुछ नई मस्जिदें बनाने का बेडा उठाएँ। हम दोनों ने यह तय किया कि काम तकसीम(बाँट) कर लें, मैं वीरान मस्जिदों को आबाद करवाऊँ और उमर भाई नयी मस्जिदें बनाने की कोशिश करें और एक दूसरे का तआवुन(मदद) करें। हम दोनों ने जिन्दगी में सौ-सौ मस्जिदें बनाने और वागुजार (मुक्त) कराने का प्रोग्राम बनाया है। अलहम्दु लिल्लाह 6 दिसम्बर 2004 तक 13 वीरान और मकबूजा मस्जिदें हरियाणा, पंजाब और दिल्ली और मेरठ केंट में वागुजार कराके यह पापी आबाद करा चुका है। (जुलाई 2009 तक 67 मस्जिदें वागुजार और 37 नई बन चुकी हैं)। उमर भाई मुझ से आगे निकल गए वह अब तक बीस मस्जिदें नयी बनवा चुके हैं ओर इक्कीसवीं की बुनियाद रखी है। हम लोगों ने यह तय किया है कि बाबरी मस्जिद की शहादत की हर बरसी पर 6 दिसंबर को एक वीरान मस्जिद में नमाज़ शुरू करानी है और उमर भाई को नई मस्जिद की बुनियाद जरूर रखनी है। अलहम्दु लिल्लाह कोई साल नागा नहीं हुआ। अलबत्ता सौ का निशाना अभी बहुत दूर है। इस साल उम्मीद है तादाद बहुत बढ जायेगी। आठ मस्जिदों की बात चल रही है। उम्मीद है वे आईन्दा चंद माह में जरूर आबाद हो जायेंगी। उमर भाई तो मुझ से बहुत आगे पहले ही हैं। और असल में काम भी उनही के हिस्से में है। मुझे अन्धेरे से निकालने का जरिया वही बने।

(साभारः उर्दू मासिक ‘अरमुगान‘ फुलत, जून 2005)
http://www.armughan.in/

Wednesday, April 14, 2010

गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश

हमें विस्तार से पता होना चाहिए कि इस्लाम के अनुसार मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के साथ कैसे संबंध रखने चाहिए और कैसे उनके साथ इस्लामी शरी'अह के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए?


सब तारीफें अल्लाह के ही लिए हैं.
पहली बात तो यह कि इस्लाम दया और न्याय का धर्म है. इस्लाम के लिए इस्लाम के अलावा अगर कोई और शब्द इसकी पूरी व्याख्या कर सकता है तो वह है न्याय".

मुसलमानों को आदेश है कि ग़ैर-मुसलमानों को ज्ञान, सुंदर उपदेश तथा बेहतर ढंग से वार्तालाप से बुलाओ.  ईश्वर कुरआन में कहता है (अर्थ की व्याख्या):


[29: 46] और किताबवालों से बस उत्तम रीति से वाद-विवाद करो - रहे वे लोग जो उनमे ज़ालिम हैं, उनकी बात दूसरी है. और कहो: "हम ईमान लाए उस चीज़ पर जो हमारी और अवतरित हुई और तुम्हारी और भी अवतरित हुई. और हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य अकेला ही है और हम उसी के आज्ञाकारी हैं."

[9:6] और यदि मुशरिकों (जो ईश्वर के साथ किसी और को भी ईश्वर अथवा शक्ति मानते हैं) में से कोई तुमसे शरण मांगे, तो तुम उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले. फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दो; क्यों वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं है.

इस्लाम यह अनुमति नहीं देता है कि एक मुसलमान किसी भी परिस्थिति में किसी गैर-मुस्लिम (जो इस्लाम के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं करता) के साथ बुरा व्यवहार करे. इसलिए मुसलमानों को किसी ग़ैर-मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण की, या डराने की, या आतंकित करने, या उसकी संपत्ति गबन करने की, या उसे उसके सामान के अधिकार से वंचित करने की, या उसके ऊपर अविश्वास करने की, या उसे उसकी मजदूरी देने से इनकार करने की, या उनके माल की कीमत अपने पास रोकने की जबकि उनका माल खरीदा जाए. या अगर साझेदारी में व्यापार है तो उसके मुनाफे को रोकने की अनुमति नहीं है.

इस्लाम के अनुसार यह मुसलमानों पर अनिवार्य है गैर मुस्लिम पार्टी के साथ किया करार या संधियों का सम्मान करें. एक मुसलमान अगर किसी देश में जाने की अनुमति चाहने के लिए नियमों का पालन करने पर सहमत है (जैसा कि वीसा इत्यादि के समय) और उसने पालन करने का वादा कर लिया है, तब उसके लिए यह अनुमति नहीं है कि उक्त देश में शरारत करे, किसी को धोखा दे, चोरी करे, किसी को जान से मार दे अथवा किसी भी तरह की विनाशकारी कार्रवाई करे. इस तरह के किसी भी कृत्य की अनुमति इस्लाम में बिलकुल नहीं है.

जहाँ तक प्यार और नफरत की बात है, मुसलमानों का स्वाभाव ग़ैर-मुसलमानों के लिए उनके कार्यो के अनुरूप अलग-अलग होता है. अगर वह ईश्वर की आराधना करते हैं और उसके साथ किसी और को ईश्वर अथवा शक्ति नहीं मानते तो इस्लाम उनके साथ प्रेम के साथ रहने का हुक्म देता है. और अगर वह किसी और को ईश्वर का साझी मानते हैं, या ईश्वर पर विश्वास नहीं करते, या धर्म के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं और ईश्वर की सच्चाई से नफरत करते है, तो ऐसा करने के कारणवश उनके लिए दिल में नफरत का भाव आना व्यवहारिक है.

[अल-शूरा 42:15, अर्थ की व्याख्या]:
"और मुझे तुम्हारे साथ न्याय का हुक्म है. हमारे और आपके प्रभु एक ही है. हमारे साथ हमारे कर्म हैं और आपके साथ आपके कर्म."

इस्लाम यह अनुमति अवश्य देता  है कि अगर ग़ैर-मुस्लिम मुसलमानों के खिलाफ युद्ध का एलान करें, उनको उनके घर से बेदखल कर दें अथवा इस तरह का कार्य करने वालो की मदद करें, तो ऐसी हालत में मुसलमानों को अनुमति है ऐसा करने वालो के साथ युद्ध करे और उनकी संपत्ति जब्त करें.

[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.

[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.


क्या इस्लाम काफिरों का क़त्ल करने का हुक्म देता है?

कुछ लोग इस्लाम के बारे में भ्रान्तिया फ़ैलाने के लिए कहते हैं, कि इस्लाम में गैर-मुसलमानों को क़त्ल करने का हुक्म है. इस baren में ईश्वर के अंतिम संदेष्ठा, महापुरुष मौहम्मद (स.) की कुछ बातें लिख रहा हूँ, इन्हें पढ़ कर फैसला आप स्वयं कर सकते हैं:

"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)


"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)

"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)

"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)

"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).



एवं पवित्र कुरआन में ईश्वर कहता है कि:

इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेशवाहक) स्पष्‍ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]

- शाहनवाज़ सिद्दीकी

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Thursday, April 8, 2010

क्या धरती पहाडो की वजह से टिकी है?

वैज्ञानिक पर्वतों के महत्व को समझाते हुए कहते हैं कि यह पृथ्वी को स्थिर रखने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं:


'पर्वतों में अंतर्निहित जड़ें होती है. यह जड़ें गहरी मैदान में घुसी हुई होती हैं, अर्थात, पर्वतों का आकार खूंटो अथवा कीलों की तरह होता है. पृथ्वी की पपड़ी 30 से 60 किलोमीटर गहरी है, यह seismograph (स्वचालित रूप से तीव्रता, दिशा रिकॉर्डिंग और जमीन की हलचल की अवधि बताने वाले उपकरण) से ज्ञात होता है. इसके अलावा इस मशीन से यह ज्ञात होता है कि हर एक पर्वत में एक अंतर्निहित जड़ होती है, जो अपनी अंतर्निहित परतों की वजह से पृथ्वी की पपड़ी को स्थिर बनाती है, और पृथ्वी को हिलने से रोकता है. अर्थात, एक कील के समान है, जो लकड़ी के विभिन्न टुकड़ों को एकजुट रखे हुए है.


ईश्वर कुरआन में कहता है:

क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को बिछौना बनाया और पहाडो को खूंटे? [78:6-7]

"Have We not made the earth as a wide expanse. And the mountains as pegs?" [The Holy Qur'an, Chapter 78, Verse 6-7]

- शाहनवाज़ सिद्दीकी



Isostacy: mountain masses deflect a pendulum away from the vertical, but not as much as might be expected. In the diagram, the vertical position is shown by (a); if the mountain were simply a load resting on a uniform crust, it ought to be deflected to (c). However because it has a deep of relatively non-dense rocks, the observed deflection is only to (b). Picture courtesy of Building Planet Earth, Cattermole pg. 35



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Tuesday, April 6, 2010

क्या कुरआन के अनुसार पृथ्वी गोल नहीं समतल है?

कुछ लोगो को लगता है कि कुरआन के अनुसार पृथ्वी समतल है जबकि  कुरआन की एक भी आयत यह नहीं कहती है कि पृथ्वी समतल (फ्लैट) है. कुरआन केवल एक कालीन के साथ पृथ्वी की पपड़ी की तुलना करती है. कुछ लोगों को लगता है की कालीन केवल एक निरपेक्ष समतल सतह पर रखा जा सकता हैं. एक कालीन, पृथ्वी के रूप में एक बड़े क्षेत्र पर फैल सकता है. आसानी से एक कालीन के साथ पृथ्वी के एक विशाल मॉडल को ढक कर देखा जा सकता है.

"He Who has made for you the earth like a carpet spread out; has enabled you to go about therein by roads (and channels)...." The Holy Qur'an, Chapter 20, Verse 53.

वही है जिसने तुम्हारे लिए धरती को पलना (बिछौना) बनाया और उसमें तुम्हारे लिए रास्ते निकाले और आकाश से पानी उतरा. फिर हमने उसके द्वारा विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे निकाले [20:53].


कालीन आम तौर पर एक ऐसी सतह पर पर डाला जाता है, जो चलने पर बहुत आरामदायक नहीं होती है. पवित्र कुरआन तार्किक इस प्रकार है क्योंकि यह एक कालीन के रूप में पृथ्वी की पपड़ी का वर्णन करता है, जिसके  नीचे गर्म तरल पदार्थ हैं एवं  जिसके बिना मनुष्य के लिए प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहना सक्षम नहीं होता. यह भूवैज्ञानिकों द्वारा सदियों की खोज के बाद उल्लेख किया गया एक वैज्ञानिक तथ्य है.

इसी तरह, कुरआन के कई श्लोक कहते है कि पृथ्वी को फैलाया गया है.

"And We have spread out the (spacious) earth: how excellently We do spread out!" The Holy Qur'an, Chapter 51, Verse 48

और धरती को हमने बिछाया, तो हम क्या ही खूब बिछाने वाले हैं. [51:48]

"Have We not made the earth as a wide expanse. And the mountains as pegs?" The Holy Qur'an, Chapter 78, Verse 6-7

क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को बिछौना बनाया और पहाडो को खूंटे? [78:6-7]



कुरआन के इन श्लोको में से कोई जरा सा भी निहितार्थ नहीं है कि पृथ्वी फ्लैट हैं. यह केवल इंगित करता है कि पृथ्वी विशाल है और पृथ्वी के इस फैलाव वाले स्वाभाव का कारण उल्लेख करते हुए शानदार कुरान कहता हैं:

"O My servants who believe! truly. spacious is My Earth: therefore serve ye Me –(And Me alone)!" The Holy Qur'an, Chapter 29, Verse 56.

ऐ मेरे बन्दों, जो ईमान लाए हो! निसंदेह मेरी धरती विशाल है, अत: तुम मेरी ही बंदगी करो. [29:56]



इसलिए कोई भी यह बहाना नहीं दे सकेगा कि वह परिवेश और परिस्थितियों की वजह से अच्छे कर्म नहीं सका और बुराई करने पर मजबूर हुआ था.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी





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एक अमेरिकी पादरी जिसने इस्लाम कबूल किया


जेसॉन क्रुज,पूर्व ईसाई पादरी


अल्लाह का शुक्र है कि मुझे अल्लाह ने 2006 में इस्लाम रूपी बेशकीमती ईनाम से नवाजा। जब भी कोई मुझसे यह पूछता है कि मैं कैसे इस सच्चे धर्म की तरफ आया तो मैं झिझक जाता हूं। क्योंकि यह मेरी काबलियत नहीं बल्कि यह अल्लाह ही की हिदायत और रहमत है कि उसने मुझे सच्ची राह दिखाई। बिना अल्लाह की मर्जी और रहमत के कोई इस सच्चे मार्ग की तरफ नहीं आ सकता।

  मैं न्यूयॉर्क के एक कैथोलिक परिवार में पैदा हुआ। मेरे माता और पिता रोमन कैथोलिक थे। हम इतवार को चर्च जाते थे। पहले मैंने ईसाई धर्म की शिक्षा ली,ईसा मसीह के स्मरणार्थ पहले भोज में शामिल हुआ और फिर मैंने रोमन कैथोलिक चर्च की सदस्यता कबूल कर ली। जब मैं जवान हुआ तो मुझे परमेश्वर की ओर से मार्गदर्शन के संकेत का अहसास होने लगा। इसका अर्थ मैंने यह लगाया कि यह मेरे लिए रोमन कैथोलिक पादरी बनने का मैसेज है। मैंने यह बात अपनी मां को बताई तो वह बहुत खुश हुई और वह मुझे हमारे इलाके के पादरी के पास ले गई।

इसे दुर्भाग्य मानें या सोभाग्य कि यह ईसाई पादरी अपने पेशे से खुश नहीं था और इसने मुझे पादरी बनने के विचार से ही दूर रहने की सलाह दी। इससे मैं विचलित हुआ। इस बीच परमेश्वर के शुरूआती मैसेज के अहसास को भूला देने,अपनी मूर्खता और किशोर अवस्था के चलते मैंने एक अलग ही रास्ता चुन लिया। बदकिस्मती से जब मैं सात साल का था तो मेरा परिवार बिखर गया। मेरे माता-पिता के बीच तलाक हो गया और मैं अपने पिता से दूर हो गया।

पन्द्रहवें साल में पहुंचने पर मैं पार्टियों और नाइट क्लबों में जाने में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा। पहले मैंने वकील बनने का ख्वाब संजोया और फिर राजनेता बनने के सपने देखने लगा ताकि अच्छी लाइफ स्टाइल जी सकूं । हाई स्कूल पास करने के बाद मैं कॉलेज पहुंचा लेकिन मैं वहां पढ़ नहीं पाया और वहां से ऐरीजोना(जहां मैं अब तक लगातार रहा) आया और यहां डिग्री पूरी होने तक रहा। एरीजोना में एक दिन मेरी तबियत ज्यादा खराब हो गई। दरअसल मैं वहां घर से भी ज्यादा बुरे लोगों की संगत में फंस गया था। शिक्षा कम होने की वजह से मुझे छोटे-मोटे काम करने पड़े। मैं नशे,बदचलनी और नाइट क्लब में जाने की आदत का शिकार हो गया। इसी दौरान मैं पहली बार एक मुस्लिम शख्स से मिला। वह एक नेक इंसान था और विदेशी छात्र के रूप में शिक्षा हासिल कर रहा था। वह मेरे दोस्तों के साथ पार्टी वगैरह में आता था। मैंने उससे इस्लाम पर तो चर्चा नहीं की लेकिन उससे उसके कल्चर को लेकर सवाल किए जिसका जवाब उसने खुलकर दिया। मेरी जिंदगी का यह बुरा दौर कुछ सालों तक चला। मैं इस जिंदगी के बारे में ज्यादा नहीं बताना चाहता। मुझो बहुत से आघात लगे। मेरे जानकार लोग मारे गए। मुझे चाकुओं से गोदा गया और भी कई जख्म मुझे मिले। यह कोई ड्रग्स के खतरों की कहानी नहीं है। मैं अपनी इस बुरी जिंदगी का आपके सामने जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि मैं आपको यह बात जोर देकर बताना चाहता हूं कि अगर ईश्वर चाहे तो बुरे हालात में भी आपको राह दिखाकर नारकीय जिंदगी से बाहर निकाल सकता है। आपको सही राह पर ला सकता है।

मैंने सुपर पावर के साथ फिर से जुड़ाव महसूस किया और इसी दौरान नशीली चीजों का सेवन करना छोड़ दिया। ईश्वरीय कृपा के चलते ही मैं इन बुराइयों से बच पाया। दरअसल मैं परमेश्वर से जुड़ाव खो चुका था जो कभी पहले मेरा उससे रहा था। मैं फिर से सच्चे ईश्वर की तलाश में जुट गया। बदकिस्मती से मैं पहली बार में सच्चाई को नहीं पा सका और मैंने हिन्दू धर्म अपना लिया। हिन्दू धर्म में मुझे इस बात ने प्रभावित किया था कि आखिर हमें कष्ट क्यों झोलने पड़ते हैं। मैंने पूरी तरह हिन्दू धर्म अपना लिया,यहां तक मैंने अपना नाम भी बदलकर हिन्दू नाम रख लिया।
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Monday, April 5, 2010

क्‍या इस्लाम अनुसार बच्चा गोद लेना सही है?

प्रश्न: क्या इस्लाम अनुसार बच्चा गोद लेना सही नहीं है? क्या किसी को बेटा अथवा बेटी माना जा सकता है?

उत्तर: इस्लामिक अनुसार, बच्चे को गोद तो लिया जा सकता है, परन्तु सिर्फ पालन-पोषण इत्यादि के लिए. आप उसको अपना नाम नहीं दे सकते है, और बालिग़ होने पर सामान्यत: घर में प्रवेश की अनुमति भी नहीं दे सकते हैं. यही नियम चचेरे-ममेरे भाईओं के लिए भी है. अर्थात उसके घर में प्रवेश से पहले घर की औरतों को अपने शरीर को सामान्य: नियमानुसार ढकना आवश्यक है.

जहाँ तक जायदाद में हिस्से की बात है, तो कोई भी किसी को भी अपनी जायदाद में हिस्सा दे सकता है, हाँ ऐसा हिस्सा अपने-आप नहीं होता है. अर्थात पिता की मृत्यु के पश्चात् (अगर उसके नाम जायदाद नहीं की गयी है) गोद लिए बच्चा जायदाद में हिस्से की मांग नहीं कर सकता है.

इस्लाम अनुसार किसी भी महिला के लिए मर्द की स्थिति दो तरह की होती हैं: महरम और ना-महरम. सामान्यत: ना-महरम वह होते हैं जिनके सामने परदे की आवश्यकता होती है (अर्थात मुंह और हाथ को छोड़ कर शरीर के सभी अंगो को ढकना आवश्यक होता है). ना-महरम उस श्रेणी में आते हैं जिनसे विवाह जायज़ होता है.

जिनसे खून अथवा दूध का रिश्ता होता है वह महरम की श्रेणी में आते हैं, और उनसे वैवाहिक सम्बन्ध नहीं बनाए जा सकते हैं. जैसे कि माता-पिता, सास-ससुर, बेटें-बेटियां, पति के बेटें-बेटियां, भाई-बहन, भतीजे-भतीजियाँ, भांजे-भांजियां इत्यादि.

Allah says : (Interpretation of Qur'an Surah An-Noor)


"And say to the faithful women to lower their gazes, and to guard their private parts, and not to display their beauty except what is apparent of it, and to extend their headcoverings (khimars) to cover their bosoms (jaybs), and not to display their beauty except to their husbands, or their fathers, or their husband's fathers, or their sons, or their husband's sons, or their brothers, or their brothers' sons, or their sisters' sons, or their womenfolk, or what their right hands rule (slaves), or the followers from the men who do not feel sexual desire, or the small children to whom the nakedness of women is not apparent, and not to strike their feet (on the ground) so as to make known what they hide of their adornments. And turn in repentance to Allah together, O you the faithful, in order that you are successful".


अल्लाह कुरआन में फरमाता है (जिसका मतलब है):


और ईमान वाली स्त्रियों से कह दो कि वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखे और अपनी शर्मगाहों की रक्षा करें. और अपने श्रृंगार प्रकट न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है (अर्थात महरम) और अपने सीनों (वक्षस्थलों) पर दुपट्टे डाले रहे और अपना श्रृंगार किसी पर प्रकट न करे सिवाह अपने पति के या अपने पिता के या अपने पति के पिता के या अपने बेटों के अपने पति के बेटों के या अपने भाइयों के या अपने भतीजों के या अपने भांजो के या अपने मेल-जोल की स्त्रियों के या जो उनकी अपनी मिलकियत में हो उनके, या उन अधीनस्थ पुरुषों के जो उस अवस्था को पार कर चुकें हो, जिसमें स्त्री की ज़रूरत होती है,.या उन बच्चो के जो औरतों के परदे की बातों से परिचित ना हो. ..............[सुर: अन-नूर, 24:31] 

इस्लाम के अनुसार "माना हुआ" जैसे किसी रिश्ते की क़ानूनी मान्यता नहीं है. इस शब्द के जाल में आज भी चोरी-छिपे गुनाह होते हैं, कितने ही प्रेमी-प्रेमिका अपने पाप को समाज से छुपाने के लिए एक दुसरे को राखी बांध कर, दिखावे के बहन-भाई बन जाते हैं और "राखी" जैसी पवित्र भावना को बदनाम करते हैं.

"मुंह बोले" अथवा "माने हुए" रिश्ते को अगर मान्यता मिलती तो वह घर की अन्य महिलाओं के लिए "महरम" होते परन्तु खून अथवा दूध का सीधा रिश्ता ना होने की स्थिति के कारणवश व्यभिचार को बढ़ावा मिलता. इसलिए ईश्वर ने इस रिश्ते को महरम का स्थान नहीं दिया.  ईश्वर ने "माने हुए रिश्ते" को सगे रिश्ते के बराबर मान्यता नहीं दी, और इसकी आड़ में होने वाले बुराइयों से बचाने के लिए अपने प्यारे संदेशवाहक मुहम्मद (स.) के ज़रिये इस बुराई को समाप्त किया.


अंजुम जी ने बहुत ही ज़बरदस्त बात की तरफ इशारा किया है.

@ Anjum Sheikh ने कहा…
"जब हज़रत ज़ैद (रज़ी.) को हुजुर (स.) ने गोद लिया तो अल्लाह ने कुरान के ज़रिये बताया कि गोद लिए बच्चे का दर्जा महरम का नहीं हो सकता है. इसलिए आप (स.) उसको अपना नाम नहीं दे सकते हैं."


दर-असल प्यारे नबी (स.) ने गुलामों के हक की बात उठाई और लोगो को अपने गुलामों को आज़ाद करने के लिए प्रेरित करने हेतु अपने गुलाम हज़रत ज़ैद (र.) को आज़ाद किया. इसके साथ ही उन्होंने हज़रत ज़ैद (र.) को अपने मुंहबोले बेटे का दर्जा भी दिया तो अल्लाह ने कुरआन की आयत उतार कर उनको ऐसा करने से रोक दिया. ईश्वर ने कहा कि तुम उनको (अर्थात आज़ाद किये हुए गुलामों को) उनके बाप के नाम के साथ पुकारों और अगर तुम्हे उनके बाप का नाम नहीं पता है, तो उनको अपना भाई समझो.

[सुर: अल-अहज़ाब 33:4] ..... और ना उसने तुम्हारे मुंह बोले बेटों को तुम्हारे वास्तविक बेटे बनाए. ये तो तुम्हारे मुँह की बातें हैं. किन्तु अल्लाह सच्ची बात कहता है और वही मार्ग दिखता है.



[33:5] उन्हें (अर्थात मुँह बोले बेटों को) उनके बापों का बेटा कहकर पुकारो. अल्लाह के यहाँ यही अधिक न्यायसंगत बात है. और यदि तुम उनके बापों को न जानते हो, तो धर्म में वे तुम्हारे भाई तो हैं ही और तुम्हारे सहचर भी. इस सिलसिले में तुमसे जो गलती हुई हो उसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं, कुन्तु जिसका संकल्प तुम्हारे दिलों ने कर लिया, उसकी बात और है. वास्तव में अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, दयावान है.

क्योंकि दोनों में खून अथवा दूध का रिश्ता नहीं है, इसलिए मुँह बोले बेटों के घर की औरतों के लिए ना-महरम की स्तिथि होती और वहीँ उसके घर में भी गोद लेने वाले की स्तिथि ना-महरम की ही होती. इसलिए बेटों की जगह धर्म भाई मानना अधिक अच्छा है.

- शाहनवाज़ सिद्दीकी

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Sunday, April 4, 2010

पर्दा मेरा हक है - Anjum Sheikh

बहन अंजुम को ब्लोगवाणी ने अपनी वाणी नहीं बनाई, इसलिए मैंने कोशिश की है कि उनकी वाणी को हमारी अंजुमन का मंच दे सकूँ.

http://anjumsheikh.blogspot.com

मैं एक साधारण सी गृहणी हूँ. हिंदुस्तान से बाहर रहती हूँ और आजकल अपने प्यारे वतन आई हुई हूँ. कोई लेखक नहीं हूँ, मगर फिरदौस जी के लेख ने मुझे मजबूर किया यहाँ लिखने के लिए.

वह कहती हैं कि परदे पर बैन महिलाओं की जीत है और मैं कहती हूँ की पर्दा मेरा हक है?

आखिर कैसे कोई सरकार मेरे हक को छीन सकती है? यह मसअला तो मेरे और मेरे खुदा की बीच का है. यह तो एक इंसान का अपने रब के लिए प्यार है, आखिर इसका अंदाज़ा कोई सरकार कैसे लगा सकती है????

मैं अपने खुदा के आदेशों को मानु अथवा नहीं, इसके बीच में सरकार कहाँ से आ गई?

अगर कोई सरकार किसी महिला पर ज़बरदस्ती पर्दा करने के खिलाफ कानून बनती तो यकीनन मैं उस फैसले का समर्थन करती. और फिरदौस जी के समर्थन पर खुश होती. परन्तु यहाँ तो किसी देश की सरकार के द्वारा हम औरतों के हक का हनन किया जा रहा है, और एक औरत (फिरदौस जी) बड़े फख्र के साथ उसका समर्थन कर रही हैं. अगर ऐसा कोई कानून मेरे देश में होता अथवा वहां जहाँ मैं रहती हूँ तो एक महिला होने के नाते मैं इसके खिलाफ आखिरी साँस तक क़ानूनी लड़ाई लडती. परन्तु मुझे रंज हुआ कि यहाँ एक महिला ही महिलाओं के हक के खिलाफ बन रहे कानून का पक्ष ले रही है.

यहाँ जो बुरखे का ज़िक्र सभी लोग कर रहे हैं, इस्लाम में उसका कोई महत्त्व नहीं है. असल लफ्ज़ 'हिजाब' है और हिजाब का मतलब अलग-अलग परिस्तिथियों के हिसाब से अलग-अलग होता है. यह कोई ज़रूरी नहीं है, कि औरतें काले रंग का बुरखा पहने. वह मोटे दुपट्टे अथवा शाल से भी अपने बदन को अच्छी तरह से ढक सकती हैं. क्योंकि असल मकसद तो बदन को ढकना है. औरतों के लिए महरम के सामने का हिजाब अपने बदन को ढकना है, वहीँ ग़ैर-महरम रिश्तेदारों के सामने हिजाब का मतलब मुंह और हाथ के पंजे छोड़ कर पुरे बदन को ढंकना है.

अल्लाह ने कुरआन में मर्दों और औरतों को अपनी आंख्ने नीची करने, और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करने का हुक्म दिया है. वहीँ औरतों को ऐसे कपडे पेहेन्ने का हुक्म दिया है, जिसे उनका बदन अच्छी तरह से ढका रहे. अल्लाह ने कुरआन में फ़रमाया है -

[सुर: 24, अन-नूर, 30] इमान वाले पुरुषों से कह दो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपनी शर्म गाहों की हिफाज़त करें. यही उनके लिए ज्यादा अच्छी बात है. अल्लाह को उसकी पूरी खबर रहती है, जो कुछ वे किया करते हैं.

[31] और ईमान वाली औरतों से कह दो कि वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखे और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करें. और अपने श्रृंगार ज़ाहिर न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है (अर्थात महरम) और अपने सीनों पर दुपट्टे डाले रहे और अपना श्रृंगार किसी पर ज़ाहिर न करे सिवाह अपने शौहर के या अपने पिता के या अपने शौहर के पिता के या अपने बेटों के अपने पति के बेटों के या अपने भाइयों के या अपने भतीजों के या अपने भानजो के या अपने मेल-जोल की औरतों के या जो उनकी अपनी मिलकियत में हो उनके, या उन गुलाम पुरुषों के जो उस हालात को पार कर चुके हों जिसमें स्त्री की ज़रूरत होती है, या उन बच्चो के जो औरतों के परदे की बातों को ना जानते हों. और औरतों अपने पांव ज़मीन पर मरकर न चलें कि अपना जो श्रृंगार छिपा रखा हो, वह मालूम हो जाए. ऐ ईमान वालो! तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, ताकि तुम्हे सफलता प्राप्त हो.


मैंने उनके लेख पर भी कमेंट्स लिखा था, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया. पता नहीं क्यों? क्योंकि वहां मैंने प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद (सल.) के खिलाफ बहुत ही गंदे कमेंट्स देखे हैं, जिन्हें फिरदौस जी ने कुबूल कर लिया और मेरे सवालों को क़ुबूल नहीं किया. आखिर क्यों? मैंने उनको जानती नहीं हूँ, पर उनके इस फैसले से मुझे शक होता है, क्या वह मुसलमान है? और मुसलमान छोडो, क्या वह एक इन्साफ पसंद महिला हैं???

- Anjum Sheikh

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