Wednesday, March 31, 2010

इंसाफ का दिन: Judgment Day

ईश्वर इंसाफ के दिन (क़यामत) का इंतजार क्यों करता है, आदमी इधर हलाक हुआ उधर उसका हिसाब करे, किसी सरकारी बाबु की तरह एक ही दिन सारे कम निपटने की क्यों सोचता है?

उत्तर: इसमें एक तो यह बात है कि ईश्वर ने इन्साफ का दिन तय किया है ताकि इन्साफ सबके सामने हो और दूसरी बात यह है कि कुछ कर्म इंसान ऐसा करते हैं जिनका पाप या पुन्य इस दुनिया के समाप्त होने तक बढ़ता रहता है. जैसे कि जिस इंसान ने पहली बार किसी दुसरे इंसान की अकारण हत्या की होगी, तो उसके खाते में जितने भी इंसानों कि हत्या होगी सबका पाप लिखा जायेगा. क्योंकि उसने क़यामत तक के इंसानों को कुकर्म का एक नया रास्ता बताया. इसी तरह अगर कोई भलाई का काम किया जैसे कि पानी पीने के लिए प्याऊ बनाया तो जब तक वह प्याऊ है, तब तक उसका पुन्य अमुक व्यक्ति को मिलता रहेगा, चाहे वह कब का मृत्यु को प्राप्त हो गया हो. या फिर कोई किसी एक व्यक्ति को भलाई की राह पर ले कर आया, तो जो व्यक्ति भलाई कि राह पर आया वह आगे जितने भी व्यक्तियों को भलाई कि राह पर लाया और भले कार्य किये, उन सभी के अच्छे कार्यो का पुन्य पहले व्यक्ति को और साथ ही साथ सम्बंधित व्यक्तियों को भी पूरा पूरा मिलता रहेगा, यहाँ तक कि इस पृथ्वी के समाप्ति का दिन आ जाये.

"इसमें एक तो यह बात है कि ईश्वर ने इन्साफ का दिन तय किया है ताकि इन्साफ सबके सामने हो." - आपकी ये बात भी ईश्वर के दुनियाबी होने का घोतक लगती है, ईश्वर बहुत से कार्य सबके सामने नहीं करता और यदि सबके सामने न करे, जो मृत्यु को प्राप्त हुआ उसका न्याय करता जाए तो क्या उसकी बात मानने से मनुष्य इंकार कर देगा, उसके न्याय पे शक करेगा?

उत्तर: मित्र इन्साफ के दिन पर डरपोक या दुनियावी होने की बात पर स्वयं ईश्वर कहता है कि इन्साफ करने के लिए उसे किसी की ज़रूरत नहीं है, वह स्वयं ही काफी है :-

"और हम वजनी, अच्छे न्यायपूर्ण कार्यो को इन्साफ के दिन (क़यामत) के लिए रख रहे हैं. फिर किसी व्यक्ति पर कुछ भी ज़ुल्म न होगा, यद्दपि वह (कर्म) राइ के दाने ही के बराबर हो, हम उसे ला उपस्थित करेंगे. और हिसाब करने के लिए हम काफी हैं. (21/47)"

रही बात इन्साफ का दिन तय करने की तो जैसे की मैंने पहले भी बताया था, यह इसलिए भी हो सकता है, क्योंकि बहुत से पुन्य और पाप ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध दुसरे व्यक्ति या व्यक्तियों से होता है. इसलिए "इन्साफ के दिन" उन सभी लोगो का इकठ्ठा होना ज़रूरी है. जब इन्साफ होगा तब ईश्वर गवाह भी पेश करेगा. कई बार तो हमारे शरीर के अंग ही बुरे कर्मो के गवाह होंगे.

जिस व्यक्ति ने पहली बार कोई "पाप" किया होगा, तो उस "पाप" को अमुक व्यक्ति कि बाद जितने भी लोग करेंगे उन सभी के पापो की सजा उस पहले व्यक्ति को भी होगी, इसलिए धरती के आखिरी पापी तक की पेशी वहां होगी.

मान लो अगर कोई राजा अथवा न्यायपालिका यह कहे कि जब तक "सौ कैदी" इकट्ठे नहीं हो जाएँगे तब तक वह न्याय नहीं करेगा, तो यह बड़ा ही अन्याय होगा| क्यूंकि एक व्यक्ति के गुनाहों का दुसरे व्यक्ति के गुनाहों से कोई लेना देना नहीं है| इसलिए उनका इकट्ठे न्याय करना सही नहीं| ठीक इसी तरह क्या क़यामत के दिन तक सब को इकट्ठे न्याय के लिए रोक के रखना गलत नहीं है?

उत्तर:
एक व्यक्ति का दुसरे व्यक्ति के गुनाहों से बिलकुल लेना-देना है, उदहारण स्वरुप अगर किसी व्यक्ति ने दुसरे व्यक्ति की हत्या के इरादे से किसी सड़क पर गड्ढा खोदा और उसमें कई और व्यक्ति गिर कर मर गए तो उसके इस पाप के लिए जितने व्यक्तियों की मृत्यु होगी उन सभी का पाप गड्ढा खोदने वाले व्यक्ति पर होगा. ऐसे ही अगर किसी ने कोई बुरा रास्ता किसी दुसरे व्यक्ति को दिखाया तो जब तक उस रास्ते पर चला जायेगा, अर्थात दूसरा व्यक्ति तीसरे को, फिर दूसरा और तीसरा क्रमशः चोथे एवं पांचवे को तथा दूसरा, तीसरा, चोथा एवं पांचवा व्यक्ति मिलकर आगे जितने भी व्यक्तियों को पाप का रास्ता दिखेंगे उसका पाप पहले व्यक्ति को भी मिलेगा, पहला व्यक्ति सभी के चलने का जिम्मेदार होगा. क्योंकि उसी ने वह रास्ता दिखाया है. और इस ज़ंजीर में से जो भी व्यक्ति जानबूझ कर और लोगो को पाप के रास्ते पर डालेगा वह भी उससे आगे के सभी व्यक्तियों के पापो का पूरा पूरा भागीदार होगा.

इसमें अन्याय कैसे है? वह अगर बुराई की कोई राह दुसरे को दिखता ही नहीं तो दूसरा व्यक्ति तीसरे और चोथे व्यक्तियों तक वह बुराई पहुंचाता ही नहीं. इसलिए उनका इकट्ठे न्याय करना सही है.

ठीक यही क्रम अच्छाई की राह दिखने वाले व्यक्ति के लिए है. उसको भी उसी क्रम में पुन्य प्राप्त होता रहेगा. क्या तुम यह कहना चाहते हो की अगर किसी व्यक्ति ने पूजा करने के लिए मंदिर का निर्माण किया तो उसके मरने के बाद उसका पुन्य समाप्त हो जायेगा? जब तक उस मंदिर के द्वारा पुन्य के काम होते रहेंगे, मंदिर का निर्माण करवाने वाले को पुन्य मिलता रहेगा.

नोट: उपरोक्त प्रश्न एवं उत्तर कुछ ग़ैर-मुस्लिम भाइयों से मेरी वार्तालाप में से लिए गए हैं.

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Monday, March 29, 2010

शोभायमान आँखों वाली हूर!

हूर शब्द की अधिकतर गलत व्याख्या की गई है. हूर की धारणा समझना मुश्किल नहीं है.

शब्द हूर, अहवार (एक आदमी के लिए) और हौरा (एक औरत के लिए) का बहुवचन है. इसका मतलब ऐसे इंसान से हैं जिसकी आँखों को "हवार" शब्द से संज्ञा दी गयी है. जिसका मतलब है ऐसी आंखे जिसकी सफेदी अत्यधिक सफ़ेद और काला रंग अत्यधिक काला हो.

शब्द अहवार (हूर का एकवचन) भी शुद्ध या शुद्ध ज्ञान का प्रतीक है.

शब्द हूर पवित्र कुरआन में चार बार आता है:

1. Moreover, We shall join them to companions with beautiful, big and lustrous eyes”. (Al-Dukhan, 44:54)

और यही नहीं, हम उनको ऐसे साथियों के साथ जोड़ देंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.

2. “And We shall join them to companions, with beautiful, big and lustrous
eyes”. (Al-Tur, 52:20)

और हम उनको ऐसे साथियों के साथ जोड़ देंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.


3. “Companions restrained (as to their glances), in goodly pavilions”. (Al-Rahman Verse 72)

खेमो में रहने वाले साथी.

4. “And (there will be) companions with beautiful, big and lustrous eyes”.
(Al-Waqi’ah Verse 22)

और (वहां) ऐसे साथी होंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.




क्या आतंकवादियों अथवा नाहक क़त्ल करने वालों को जन्नत में हूरें मिलेंगी?


ईश्वर के अंतिम संदेष्ठा, महापुरुष मौहम्मद (स.) की कुछ बातें लिख रहा हूँ, इन्हें पढ़ कर फैसला आप स्वयं कर सकते हैं:

"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)


"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)

"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)

"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)

"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).


एवं पवित्र कुरआन में ईश्वर ने कहा है कि:

इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेशवाहक) स्पष्‍ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]

जो ईश्वर के साथ किसी दूसरे इष्‍ट-पूज्य को नहीं पुकारते और न नाहक़ किसी जीव को जिस (के क़त्ल) को अल्लाह ने हराम किया है, क़त्ल करते है। और न वे व्यभिचार करते है - जो कोई यह काम करे तो वह गुनाह के वबाल से दोचार होगा [25:68]



ईश्वर अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला देगा?

इसके साथ ही यह बात समझना ज़रूरी है कि ईश्वर अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला देगा.

पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद (स.) ने फ़रमाया कि, "अल्लाह कहता है कि, मैंने अपने मानने वालो के लिए ऐसा बदला तैयार किया है जो किसी आँख ने देखा नहीं और कान ने सुना नहीं है. यहाँ तक कि इंसान का दिल कल्पना भी नहीं कर सकता है." (बुखारी 59:8)


पवित्र कुरआन भी ऐसे ही शब्दों में कहता है:

और कोई नहीं जानता है कि उनकी आँख की ताज़गी के लिए क्या छिपा हुआ है, जो कुछ अच्छे कार्य उन्होंने किएँ है यह उसका पुरस्कार है. (सुरा: अस-सज्दाह, 32:17)

दूसरी बात यह है कि स्वर्ग का आशीर्वाद महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसा हैं. वहाँ दो लिंग के बीच एक छोटा सा भी अंतर नहीं है. यह सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:

मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करने वाले पुरुष और आज्ञापालन करने वाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धरी रखने वाली स्त्रियाँ, विनर्मता दिखाने वाले पुरुष और विनर्मता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदका (दान) देने वाले पुरुष और सदका देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और यद् करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है. [सुर: अल-अहज़ाब, 33:35]

इसमें एक बात तो यह है कि, वहां जो मिलेगा वह ईश्वर का अहसान होगा, हमारा हक नहीं. और वहां सब उसके अहसान मंद होंगे, जैसे कि इसी धरती पर मनुष्यों को छोड़कर बाकी दूसरी जीव होते हैं. दूसरी बात वहां किसी वस्तु की आवशयक इस धरती की तरह नहीं होगी, जैसे कि यहाँ जीवित रहने के लिए भोजन, जल एवं वायु की आवश्यकता होती है.

ईश्वर परलोक के बारे में कहता है कि:

[41:31-32] और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी इच्छा तुम्हारे मन को होगी. और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी तुम मांग करोगे.

रही बात "हूर" की तो उनकी अहमियत का एक बात से शायद कुछ अंदाजा हो जाए कि दुनिया की पत्नी, (अगर अच्छे कार्यों के कारण स्वर्ग में जाती है तो) स्वर्ग की सबसे खुबसूरत हूर से भी लाखों गुणा ज्यादा खुबसूरत होगी.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी

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Sunday, March 28, 2010

क्या सूद का कारोबार करने वाले को ज़कात का माल देना वैध है ?

हमारी अन्जुमन में आप लोग पिछले दिनों आपने जाना कि: 

समलैंगिकता (Homosexuality/Lesbianism) को इस्लाम में हराम (वर्जित) क्यूँ समझा जाता है?
मैं सुअर के मांस के निषिध होने का कारण जानना चाहता हूँ! Why Pork is Prohibited
मुसलमानों को कुत्ता रखने, उसे छूने और उसे चूमने के बारे में क्या हुक्म है?


और इसी श्रृंखला को आगे बढाते हुए हम आज जानेंगे कि:



क्या सूद का कारोबार करने वाले को ज़कात का माल देना वैध है ?


अथवा क्या धन के ज़कात को क्रेडिट कार्ड के ऋण का भुगतान करने में देना जाइज़ है ?

ऐसे "क्रेडिट कार्ड" से लेन देन करना जो ऋण का भुगतान करने में देरी करने की अवस्था में आर्थिक जुर्माना लगाने पर आधारित हो हराम (वर्जित) है, क्योंकि यह एक हराम सूद पर आधारित शर्त है


ज़कात के हक़दार लोगों में से जिनका उल्लेख अल्लाह तआला ने अपनी किताब में किया है उन में से एक "अल-ग़ारेमीन" हैं, अर्थात क़र्ज़दार (ऋणी) लोग, अत: जिस व्यक्ति ने अपनी आवश्यकता को पूरी करने और अपने हित को साकार करने के लिए उधार (ऋण) लिया, फिर ऋण को चुकाने में विफल रहा, तो उसे ज़कात के पैसे से इतनी राशि दी जायेगी जिस से वह अपने क़र्ज़ का भुगतान कर सके, और इतनी मात्रा में दिया जायेगा जिस का भुगतान करने में वह असक्षम रहा है।

तथा क़र्ज़ में डूबे हुये व्यक्ति को ज़कात का पैसा देने के लिए यह शर्त है कि :

उस का क़र्ज़ किसी पाप के काम में न हो, अत: जो व्यक्ति किसी पाप में क़र्ज़दार हो गया है जैसेकि शराब, जुआ, सूदखोरी, तो उसे ज़कात के पैसे से देना वैध नहीं है। हाँ, अगर वह उस पाप से तौबा कर ले, उस को तुरन्त त्याग कर दे और उस पर पछतावा करे, और इस बात का पक्का संकल्प करे कि पुन: उस पाप को नहीं करेगा ; तो ऐसी स्थिति में उसे ज़कात का पैसा देने और तौबा करने पर उस की मदद करने में कोई आपत्ति नहीं है

अल्लामा मर्दावी कहते हैं : "यदि वह किसी अवज्ञा (गुनाह के काम) में क़र्ज़ दार हुआ है तो बिना किसी मतभेद के उसे ज़कात के माल से नहीं दिया जायेगा।" (किताब "अल इंसाफ" 3/247)

और अल्लामा शैकानी कहते हैं : "जहाँ तक उस के अन्दर यह शर्त लगाने का संबंध है कि वह पाप के काम में न हो तो यह सहीह है, क्योंकि ज़कात को अल्लाह सुब्हानहु व तआला की अवज्ञा के कामों में नहीं दिया जायेगा, और न ही उन कामों में दिया जायेगा जिन के द्वारा सर्वशक्तिमान अल्लाह की हुर्मतों का उल्लंघन करने पर शक्ति प्राप्त की जाती है।" (किताब "अस्सैलुल जर्रार" 2/59).

और चूंकि "क्रेडिट कार्ड" के द्वारा क़र्ज़ लेना हराम (निषिद्ध) है, इसलिए उस के ऋण को ज़कात के पैसे से चुकाना जाइज़ नहीं है। हाँ, यदि वह इस से तौबा कर ले, उस पर पछतावा करे और इस पाप की ओर दुबारा न लौटने का पक्का संकल्प कर ले, तो ऐसी स्थिति में उसे अपने क़र्ज़ को चुकाने के लिए ज़कात के पैसे से दिया जा सकता है।

अल्लामा मर्दावी कहते हैं : "अगर वह इस से तौबा न करे, और उस पाप (अवज्ञा) पर अटल हो तो उसे क़र्ज़ दारों के हिस्से से देना जाइज़ नहीं है, क्योंकि उस के लिए अवज्ञा और पाप करना निषिद्ध है, इसलिए गुनाह के काम में उसके ऋण को उठा कर उस पर उसकी सहायता नही की जाये गी।" (किताब "अल-ह़ावी" 8/508)

शैख मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह फरमाते हैं :

"प्रश्न : जो आदमी किसी हराम चीज़ के अन्दर क़र्ज दार हो गया है, तो क्या हम उसे ज़कात का पैसा दे सकते हैं ?
उत्तर : अगर वह उस (हराम) काम से तौबा कर ले तो हम उसे देंगे, अन्यथा हम उसे ज़कात का पैसा नहीं देंगे, क्योंकि यह हराम काम पर मदद करना है, यही कारण है कि अगर हम उसे देंगे तो वह दुबारा ऋण लेगा।"
"अश्शर्हुल मुम्ते" (6/235)

तथा डॉ. सुलैमान अल अश्क़र कहते हैं : "जो आदमी सूद पर क़र्ज़ लेता है, तो उस के क़र्ज़ को ज़कात के अध्याय में क़र्ज़ दारों के हिस्से से नहीं दिया जायेगा, सिवाय इस के कि वह सूद के लेन देन से तौबा कर ले और उस से पलट आये।"

और अल्लाह तआला ही सब से श्रेष्ठ ज्ञान रखने वाला है।


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Friday, March 26, 2010

क्या धर्म परिवर्तन करना सही है?

हर किसी को मृत्यु के बाद स्वयं अपने प्रभु के सामने खड़े होना है और उत्तर देना है कि पृथ्वी लोक में ईश्वर के बताए हुए रास्ते पर चला अथवा नहीं? क्योंकि उत्तर स्वयं देना है इसलिए आस्था का मामला भी एकदम निजी है, इसमें किसी और का हस्तक्षेप तो हो ही नहीं सकता है, मैं अथवा तुम (अर्थात शुभचिंतक) तो सिर्फ राह ही दिखा सकते हैं. क्योंकि आस्था का सम्बन्ध ह्रदय से होता है इसलिए मनुष्य उसी राह पर चलता है जिसपर उसका ह्रदय "हाँ" कहता है.

इसमें एक बात बहुत ही अधिक ध्यान देने की है. और वह यह कि ईश्वर एक है और उसका सत्य मार्ग भी एक ही है. जिसने भी ईश्वर से प्रार्थना कि उसे सत्य के मार्ग का ज्ञान दे, तो वह अवश्य ही उस मार्ग का ज्ञान अमुक मनुष्य को देता है. चाहे वह मनुष्य समुन्द्रों के बीचों-बीच, किसी छोटे से टापू में बिलकुल अकेला ही रहता हो. इसमें कोई दो राय किसी भी धर्म के पंडितो की हो नहीं सकती है. इसलिए मनुष्य के लिए यह कोई मायने रखता ही नहीं कि वह किसी मुसलमान के घर पैदा हुआ है या फिर हिन्दू अथवा इसाई के घर. उसे तो बस अपने ईश्वर से सत्य के मार्ग को दिखाने की प्रार्थना एवं प्रयास भर करना है. क्योंकि अब यह ईश्वर का कार्य है कि अमुक व्यक्ति को "अपने सत्य" का मार्ग दिखलाये.

मित्र, प्रभु के सत्य मार्ग को पहचानना धरती के हर मनुष्य के लिए एक सामान है. ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है (जिसका अर्थ है) कि "वह ना चाहने वालो को धर्म की समझ नहीं देता".

और प्रभु को पहचानना या न पहचानना मेरे या तुम्हारे (अर्थात किसी भी मनुष्य के) वश की बात नहीं है, यहाँ तो सिर्फ प्रभु का ही वश चलता है और वह पवित्र कुरआन में कहता है कि:

"अगर कोई मनुष्य मेरी तरफ एक हाथ बढ़ता है, तो मैं उसकी तरफ दो हाथ बढ़ता हूँ, अगर कोई चल कर आता है तो मैं दौड़ कर आता हूँ."

इससे यह पता चलता है कि प्रभु को पाने कि इच्छा करना और इसके लिए प्रयास करना ही सब कुछ है, आगे का काम तो स्वयं उस ईश्वर का है. हाँ, एक बात यह भी है कि जब प्रभु अपना ज्ञान किसी को दे दे तो उसके बाद उसके बताए हुए रास्ते पर चलना ही उसकी सच्ची अराधना है.

ईश्वर ने हमें अवसर दिया है पृथ्वी पर धर्म अथवा अधर्म पर चलने का ताकि इसके अनुसार स्वर्ग अथवा नर्क का फैसला हो सके. इसलिए कोई भी व्यक्ति अपनी आस्था के अनुरूप जीवन को व्यतीत कर सकता है. ईश्वर जिसे चाहता है, धर्म की सही समझ देता है, परन्तु वह ना चाहने वालो को धर्म की सही समझ नहीं देता.

अगर किसी ने ईश्वर को पाने की और उसके सत्य मार्ग को जानने की कोशिश ही नहीं की, और अंधे-गुंगो की तरह वही करता रहा जो उसके माँ-बाप, परिवार वाले करते आ रहे हैं, तो वह अवश्य ही गुमराह है, चाहे उसका उद्देश्य अच्छा ही हो. ईश्वर को पाना है तो उसके पाने की इच्छा और प्रयास करना ही पड़ेगा

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आस्था मज़बूरी अथवा लालच में बदली जा सकती है? और क्या पूर्वजो ने मज़बूरी में इस्लाम धर्म स्वीकार किया?

पहली बात तो यह कि पूर्वजो की मज़बूरी वाली बात ही गलत है, दूसरी बात यह कि पूर्वजो की क्या मान्यता थी, इससे किसी को फर्क नहीं पड़ना चाहिए. मेरा नाता तो मेरे ईश्वर से है, और वह मुझे अरबी, भारतीय या किसी और देश के वासी की नज़र से नहीं देखता है, अपितु मेरे कर्मों और उसके प्रति मेरे प्रेम पर निगाह डालता है. और वह स्वयं तो मुझे मेरे कर्मों और मेरे प्रेम को देखे बिना भी बेइन्तिहाँ प्रेम करता है.

धर्म का सम्बन्ध आस्था से होता है और आस्था का सम्बन्ध ह्रदय से होता है. और कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परन्तु अपने ह्रदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है. ह्रदय को तो पता होता है कि उसपर किस का राज है.

प्राणों के भय और पैसे के मोह से मानुष दिखावा तो कर सकता है मित्र, किन्तु आस्था की जननी तो ह्रदय ही है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया, कि कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परन्तु अपने ह्रदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है. अगर किसी के सर पर तलवार लटकी है तो वह दिखावे के लिए तो हो सकता है कि कहदे, परन्तु हृदय पर तो उसके प्रभु का ही राज होगा, क्योंकि किसी का दिल चीर कर कोई नहीं देख सकता.

इस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि आस्था किसी भी मज़बूरी में नहीं बदली जा सकती है.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी

Thursday, March 25, 2010

मुसलमानों को कुत्ता रखने, उसे छूने और उसे चूमने के बारे में क्या हुक्म है?

सवाल को कुछ इस तरह से भी कहा जा सकता है जैसे:  
कुत्ता रखना नापाकियों में से समझा जाता है, किन्तु यदि मुसलमान केवल घर की रखावाली के लिए कोई कुत्ता रखे, और उसे घर के बाहर रखे और उसके परिसर के अंतिम भाग में किसी जगह रखे, तो वह अपने आप को किस प्रकार पाक (पवित्र) रखेगा ? और जब वह अपने आप को साफ-सुथरा रखने के लिए मिट्टी (धूल) या कीचड़ न पाये तो इस का क्या हुक्म है ? और क्या मुसलमान के लिए अपने आप को पाक साफ रखने के लिये कोई विकल्प उपलब्ध है ? और कभी कभार वह आदमी दौड़ने के लिए कुत्ते को अपने साथ लेकर जाता है, और उसे थपकता और चूमता है ... 
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हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

सर्व प्रथम :
पवित्र इस्लामी शरीअत (धर्म शास्त्र) ने कुत्ता रखना मुसलमान पर हराम (निषिद्ध) कर दिया है, और इस का उल्लंघन करने वाले को इस प्रकार दंडित किया है कि प्रत्येक दिन उसकी नेकियों में से एक क़ीरात या दो क़ीरात की कमी कर दी जाती है, किन्तु इस दण्ड से वह कुत्ता अलग कर दिया है जिसे शिकार के लिए, या मवेशियों की रखवाली के लिए या खेती (फसल) की रखवाली के लिए रखा जाता है।

अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस ने मवेशियों, या शिकार, या खेती के कुत्ते के अलावा कोई कुत्ता रखा, उसके अज्र (पुण्य) से हर दिन एक क़ीरात कम कर दिया जाता है।" (इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है हदीस संख्या : 1575).

तथा अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि उन्हों ने कहा कि अल्ला के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस आदमी ने पशुधन की रक्षा के लिए, या शिकार के अलावा कोई कुत्ता रखा उसके अमल से हर दिन दो क़ीरात कम कर दिया जायेगा।" (बुखारी हदीस संख्या : 5163, मुस्लिम : 1574).

क्या घर की रखवाली के लिए कुत्ता रखना जाइज़ है ?

इमाम नववी कहते हैं :
"ऊपर उल्लिखित तीन कामों के अलावा किसी और उद्देश्य जैसे कि घरों और रास्तों की रक्षा के लिए कुत्ता रखने के जाइज़ होने के बारे में मतभेद है, और राजेह (उचित) बात यह है कि हदीस से समझी जाने वाली इल्लत (कारण) अर्थात् ज़रूरत पर अमल करते हुये और उपर्युक्त तीनों चीज़ों पर क़ियास करते हुये वह जाइज़ है।"

"शरह सहीह मुस्लिम" (10/236)

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह कहते हैं :

"इस आधार पर जो घर शहर के बीच में है उस की चौकीदारी के लिए कुत्ता रखना जाइज़ नहीं है, अत: इस तरह की स्थितियों में इस उद्देश्य के लिए कुत्ता रखना हराम है वैध नहीं है, और उसके रखने वाले के अज्र व सवाब से प्रति दिन एक या दो क़ीरात कम कर दिया जायेगा। इसलिए उन लोगों पर अनिवार्य है कि वे इस कुत्ते को भगा दें और उसे अपने पास न रखें। किन्तु अगर यह घर बाहर एकांत मैदान में है, उस के आस पास कोई नहीं है तो उस के लिए घर की चौकीदारी और उस में रहने वालों की रखवाली के लिए कुत्ता रखना जाइज़ है, तथा घर वालों की रखवाली और रक्षा करना पशुधन और खेती की रक्षा करने से अधिक महत्वपूर्ण है।" (मज्मूअ़ फतावा इब्ने उसैमीन 4/246)

शब्द "अल-क़ीरात" (अर्थात् एक क़ीरात) और शब्द "अल-क़ीरातैन" (अर्थात् दो क़ीरात) की हदीस के बीच मिलान के बारे में कई कथन हैं :

हाफिज़ ऐनी रहिमहुल्लाह कहते हैं :

1- ऐसा भी हो सकता है कि यह दोनों दो प्रकार के कुत्तों के बारे में हों, जिन में से एक दूसरे से अधिक हानिकारक हो।
2- एक कथन यह है कि : दो क़ीरात शहरों और गांवों के बारे में है, और एक क़ीरात दीहात के बारे में है।
3- एक कथन यह है कि : यह दोनों रिवायतें दो ज़मानों (समय) के बारे में हैं, पहले एक क़ीरात का उल्लेख किया गया, फिर सख्ती को बढ़ाते हुये दो क़ीरात कर दिया गया।
"उमदतुल क़ारी" (12/158)

दूसरा :

प्रश्न करने वाले का यह कहना कि "कुत्ता रखना नापाकियों में से समझा जाता है" तो यह सामान्य रूप् से सहीह नहीं है, क्योंकि नापाकी (अशुद्धता) स्वयं कुत्ते में नहीं है बल्कि उस के थूक (लार) में है जब वह किसी बर्तन से पानी पीता है, अत: जिस ने किसी कुत्ते को छू लिया, या उसे कुत्ते ने छू लिया तो उस के लिए अपने आप को पानी या मिट्टी से पवित्र करना अनिवार्य नहीं है, अगर कुत्ता किसी बर्तन से पानी पी ले तो उस पर पानी को फेंक (उंडेल) देना और उसे सात बार पानी से और आठवीं बार मिट्टी से धोना अनिवार्य है यदि वह उस बर्तन को इस्तेमाल करना चाहता है, अगर उस ने उस बर्तन को कुत्ते के लिए विशिष्ट कर दिया है तो उस के लिए उसे पवित्र करना आवश्यक नहीं है

अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तुम में से किसी व्यक्ति के बर्तन की पाकी (शुद्धता) जब कि कुत्ता उस में मुँह डाल दे, यह है कि वह उसे सात बार धोये उन में से पहली बार मिट्टी के द्वारा हो।" (इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है हदीस संख्या : 279)

और मुस्लिम की एक रिवायत (हदीस संख्या : 280) के शब्द यह हैं कि : "जब कुत्ता बर्तन में मुँह डाल दे तो उसे सात बार धुलो, और आठवीं बार उसे मिट्टी से साफ करो।"

शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह कहते हैं :

"कुत्ते के बारे में विद्वानों ने तीन कथनों पर मतभेद किया है :

पहला : वह पवित्र है यहाँ तक कि उस का थूक (लार) भी पाक है, यह इमाम मालिक का मत है।

दूसरा : वह अशुद्ध (नापाक) है यहाँ तक कि उसका बाल भी अपवित्र है, यह इमाम शाफेई का मत है, और एक रिवायत के अनुसार इमाम अहमद का भी यही कथन है।

तीसरा : उस का बाल पाक है, और उस का थूक (लार) अशुद्ध (नापाक) है, यह इमाम अबू हनीफा का मत है और एक रिवायत के अनुसार इमाम अहमद का भी यही कथन है।

और यही सब से शुद्ध कथन है, अत: जब कपड़े या शरीर पर उस के बाल की नमी (गीलापन) लग जाये तो वह इस से नापाक नहीं होगा।"
"मजमूउल फतावा" (21/530).

तथा एक दूसरे स्थान पर फरमाया :

"इसका कारण यह है कि वस्तुओं में असल पवित्रता का होना है, इसलिए किसी चीज़ को अशुद्ध (नापाक) और निषिद्ध ठहराना वैध नहीं है जब तक कि कोई सबूत न हो, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है :

"और उस (अल्लाह तआला) ने तुम्हारे लिए उन सभी चीज़ों की तफसील बयान कर दी है जो तुम पर हराम किया गया है।" (सूरतुल अनआम : 119)

तथा अल्लाह तआला का फरमान है : "और अल्लाह ऐसा नहीं करता कि किसी क़ौम को हिदायत देने के बाद भटका दे जब तक उन बातों को साफ-साफ न बता दे जिन से वे बचें।" (सूरतुत्तौबा : 115)

और जब ऐसी बात है तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "तुम में से किसी व्यक्ति के बर्तन की पाकी (शुद्धता) जब कि कुत्ता उस में मुँह डाल दे, यह है कि वह उसे सात बार धोये उन में से पहली बार मिट्टी के द्वारा हो।"
और एक दूसरी हदीस में है कि : "जब कुत्ता बर्तन में मुँह डाल दे तो उसे सात बार धुलो, और आठवीं बार उसे मिट्टी से साफ करो।"

सभी हदीसों में केवल बर्तन में मुँह डालने का उल्लेख किया गया है, उस के अन्य भागों का उल्लेख नहीं किया गया है, अत: उन्हें (अर्थात् अन्य भागों को) अपवित्र ठहराना मात्र क़ियास करना है ...

तथा यह बात भी है कि : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने शिकार, तथा पशुधन और फसल की रखवाली के लिए कुत्ता रखने की अनुमति दी है, और उसे रखने वाले को उसके बालों की नमी का लगना आवश्यक है जैसाकि खच्चर, गधे इत्यादि पशुओं की नमी उसे लग जाया करती है, इसलिए उसके बालों को अशुद्ध ठहराने की बात जबकि स्थिति यह है, उस हरज (तंगी) में से है जो इस उम्मत (समुदाय) से समाप्त कर दी गयी है।"
"मजमूउल फतावा" (21/617, 619)

सावधानी का पक्ष यह है कि : जिस ने इस हालत में कुत्ते को छुवा कि उसके हाथ में नमी थी, या कुत्ते के शरीर पर नमी थी तो वह उसे सात बारे धोये जिन में एक बार मिट्टी से होना चाहिये

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह फरमाते हैं :

"जहाँ तक इस कुत्ते को छूने का प्रश्न है तो अगर उस ने बिना नमी के छुआ है तो उस का हाथ नापाक नहीं होगा, और अगर नमी के साथ छुआ है तो इसके कारण अधिकांश विद्वानों के मतानुसार उसका हाथ नापाक हो जायेगा, और उसके बाद हाथ को सात बार धोना अनिवार्य है, जिस में एक बार मिट्टी से होना चाहिये।"
"मजमूअ़ फतावा इब्ने उसैमीन" (11/246)

तीसरा :
तथा अनिवार्य यह है कि कुत्ते की अशुद्धता को सात बार धोया जाये जिन में एक बार मिट्टी से होना चाहिए, और मिट्टी उपलब्ध होने की अवस्था में उसी को इस्तेमाल करना अनिवार्य है, और उसके अलावा कोई अन्य चीज़ पर्याप्त नहीं होगी, परन्तु जब मिट्टी न मिले, तो उस के अतिरिक्त अन्य डिटर्जेन्ट जैसे साबुन के इस्तेमाल करने में कोइ बात नहीं है।

चौथा :
प्रश्न करने वाले ने कुत्तों को चूमने की बात का जो उल्लेख किया है तो यह बहुत सारी बीमारियों का कारण है, और वो बीमारियाँ जो मनुष्य को कुत्तों को चूमने या उसके मुँह डाले हुये बर्तन से उस को पाक करने से पहले ही पी कर के शरीअत की अवहेलना करने के कारण लगती हैं, बहुत अधिक हैं।

उन्हीं में से एक "पास्चरलोसिस" का रोग है, वह एक जीवाणु का रोग है, जिस के रोग का कारण स्वभाविक रूप से मनुष्यों और पशुओं के ऊपरी श्वसन प्रणाली में मौजूद होता है, और विशेष परिस्थितियों के तहत यह जीवाणु शरीर पर आक्रमण करता है और रोग को जन्म देता है।

और उन्हीं में से एक "पानी की थैलियाँ" है, वह परजीवी रोगों में सै है जो मुष्यों और पशुओं के आंतरिक अंगों (आँतों) को प्रभावि करता है, और सब से अधिक जिगर और फेफड़ों को प्रभावित करता है, उसके बाद उदर गुहा और शरीर के बाक़ी अंगों को प्रभावित करता है।

इस बीमारी का कारण एक टेप कृमि (tapeworm) है जिसे एकायनिकोस क्रानिलेसिस कहा जाता है, यह एक छोटा कीड़ा है जिसके व्यस्क की लंबाई (2-9) मिमी होती है, जो तीन वर्गों और सिर और गर्दन से मिलकर बनता है और सिर में चार चूसक होते हैं

व्यस्क कीड़े उनके मेज़बानों जैसे कुत्तों, बिल्लियों, लोमड़ियों और भेड़ियों की आँतों में रहते हैं।

यह रोग कुत्तों को पालने के शौक़ीन मनुष्य को उस समय स्थानांतरित होता है जब वह उसे चुंबन करता है, या उसके बर्तन से पानी पीता है।

देखिये : किताब "अमराज़ुल हैवानातिल अलीफा अल्लती तुसीबुल इंसान" (पालतु पशु रोग जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं) लेखक : डॉ. अली इसमाईल उबैद अस्सनाफी

सारांश:

यह कि शिकार या पशुधन और फसलों की रखवाली के अलावा के लिए कुत्तों को रखना जाइज़ नहीं है, तथा घरों की रखवाली के लिए कुत्तों को रखना इस शर्त पर जाइज़ है कि वे (घर) शहर से बाहर हों तथा यह शर्त भी कि (घर की रखवाली का) कोई अन्य साधन उपलब्ध न हो। और मुसलमान के लिए कुत्तों के साथ दौड़ने में ग़ैर-मुस्लिम की छवि अपनाना उचित नहीं है, तथा उस के मुँह को छूना और उसे चुंबन करना ढेर सारे रोगों का कारण है

इस पवित्र और परिपूर्ण शरीअत पर हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति अल्लाह के लिए है, जो कि लोगों के दीन और दुनिया (आध्यात्मिक और सांसारिक मामलों ) का सुधार करने के लिए आई है, किन्तु अधिकतर लोग जानते ही नहीं ।

और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ जानता है

मैं सुअर के मांस के निषिध होने का कारण जानना चाहता हूँ! Why Pork is Prohibited ?



हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह तआला के लिए योग्य है ।

मूल रूप से एक मुसलमान अल्लाह के आदेश का पालन करता है और उसकी मना की हुई बातों से बचाव करता है, चाहे उस चीज़ के अन्दर अल्लाह सुब्हानहु व तआला की हिकमत (तत्वदर्शिता) का उसे बोध हा या न हो।

मुसलमान के लिए वैध नहीं है कि वह शरीयत के आदेश को नकार दे, या उसको लागू करने में संकोच करे यदि उसे उसकी हिक्मत का बोध न हो, बल्कि किसी चीज़ के हलाल (वैध) और हराम (अवैध) ठहराये जाने के बारे में शरीयत के हुक्म को स्वीकार करना अनिवार्य है जब भी वह प्रमाण सिद्ध हो जाये ; चाहे उसे उसकी हिकमत की समझ हो या न हो। अल्लाह तआला का फरमान है :

"और (देखो) किसी मुसलमान मर्द और औरत को अल्लाह और उसके रसूल के फैसले के बाद अपनी किसी बात का कोई अधिकार बाक़ी नहीं रह जाता। (याद रखो!) अल्लाह तआला और उसके रसूल की जो भी नाफरमानी करेगा वह खुली गुमराही में पड़ेगा।" (सूरतुल अहज़ाब : 33)

तथा अल्लाह तआला का फरमान है :

"ईमान वालों का कहना तो यह है कि जब उन्हें इसलिए बुलाया जाता है कि अल्लाह और उसके रसूल उन में फैसला कर दें, तो वे कहते हैं कि हम ने सुना और मान लिया, यही लोग कामयाब होने वाले हैं।" (सूरतुन नूर : 51)

इस्लाम में सुअर का मांस क़ुर्आन के स्पष्ट प्रमाण के द्वारा हराम (निषिद्ध) किया गया है, और वह अल्लाह तआला का यह कथन है : 

"तुम पर मुर्दा, (बहा हुआ) खून और सुअर का मांस हराम है।" (सूरतुल बक़रा : 173)

किसी भी परिस्थिति में मुसलमान के लिए उसको खाना वैध नहीं है सिवाय इसके कि उसे ऐसी ज़रूरत पेश आ जाये जिस में उसका जीवन उसे खाने पर ही निर्भर करता हो, उदाहरण के तौर पर उसे ऐसी सख्त भूख लगी हो कि उसे अपनी जान जाने का भय हो, और उसके अतिरिक्त कोई दूसरा भोजन न हो, तो शरीयत के नियम : "आवश्यकतायें, अवैध चीज़ों को वैध बना देती हैं" के अंतर्गत उसके लिए यह वैध होगा

शरीयत के ग्रंथों में सुअर के मांस के हराम किए जाने के किसी विशिष्ट कारण का उल्लेख नहीं किया गया है, इस के बारे में केवल अल्लाह तआला का यह कथन है कि : "यह निश्चित रूप से गंदा -अशुद्ध और अपवित्र- है।"

"रिज्स" (अर्थात् अपवित्र) का शब्द उस चीज़ पर बोला जाता है जो शरीयत में तथा शुद्ध मानव प्रकृति वाले लोगों की निगाह में घृणित, घिनावनी और अशुद्ध हो। और मात्र यही कारण उस के हराम होने के लिए पर्याप्त है। इसी तरह एक सामान्य कारण भी वर्णित हुआ है, और वह खाने और पीने इत्यादि में हराम चीज़ों की निषिद्धता के बारे में वर्णित कारण है, और वह पोर्क के निषेद्ध की हिक्मत की ओर संकेत करता है, वह सामान्य कारण अल्लाह तआला का यह फरमान है :

"और वह (अर्थात् पैग़म्बर) पाक (शुद्ध) चीज़ों को हलाल (वैध) बताते हैं और नापाक (अशुद्ध) चीज़ों को हराम (अवैध) बताते हैं।" (सूरतुल आराफ : 157)

इस आयत का सामान्य अर्थ सुअर के मांस के निषिद्ध होने के कारण को भी सम्मिलत है, और इस से ज्ञात होता है कि पोर्क इस्लामी शरीयत के दृष्टिकोण में अशुद्ध और अपवित्र चीज़ों में से गिना जाता है।

इस स्थान पर "अपवित्र चीज़ों" (खबाइस) से अभिप्राय वह सब कुछ़ है जो मानव के स्वास्थ्य, धन और नैतिकता के लिए हानिकारक हो, अत: हर व चीज़ जिस का मानव जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं में से किसी एक पर भी नकारात्मक परिणाम और दुष्टप्रभाव हो वह अपवित्र (खबाइस) के अतंर्गत आता है।

वैज्ञानिक और चिकित्सा अनुसंधानों ने भी यह सिद्ध किया है कि सुअर, अन्य सभी जानवरों के बीच मानव शरीर के लिए हानिकारक रोगाणुओं का एक भण्डार है, इन हानिकारक तत्वों और रोगों का विस्तार लंबा है, संछिप्त रूप से वे इस प्रकार हैं : परजीवी रोग, जीवाणु रोग, वायरल रोग, बैक्टीरियल बीमारियां, और अन्य

ये और अन्य हानिकारक प्रभाव इस बात का प्रमाण हैं कि बुद्धिमान शास्त्रकार ने सुअर का मांस खाना किसी व्यापक हिक्मत के लिए ही हराम ठहराया है, और वह मानव के जान (स्वास्थ्य) की रक्षा है, जो कि इस्लामी शरीयत के द्वारा संरक्षित पाँच बुनियादी ज़रूरतों में से एक है।

और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखने वाला है।

Tuesday, March 23, 2010

मस्जिद तोडऩे वाला मुसलमान हो गया

यह जुबानी है एक ऐसे नौजवान शख्स की जिसे इस्लाम और मुसलमान नाम से ही बेहद चिढ़ थी। मुसलमान और इस्लाम से नफरत करने वाला और एक मस्जिद को तोडऩे वाला यह शख्स आखिर खुद मुसलमान हो गया।

  मैं गुजरात के मेहसाना जिले के एक गांव के ठाकुर जमींदार का बेटा हूं। मेरा पुराना नाम युवराज है। युवराज नाम से ही लोग मुझो जानते हैं। हालांकि बाद में पण्डितों ने मेरी राशि की खातिर मेरा नाम महेश रखा, मगर मैं युवराज नाम से ही प्रसिद्ध हो गया। लेकिन अब मैं सुहैल सिद्दीकी हूं। मैं 13 अगस्त 1983 को पैदा हुआ। जसपाल ठाकुर कॉलेज से मैं बीकॉम कर रहा था कि मुझो पढ़ाई छोडऩी पड़ी। मेरा एक भाई और एक बहन है। मेरे जीजा जी बड़े नेता हैं। असल में वे भाजपा के हैं,स्थानीय राजनीति में वजन बढ़ाने के लिए उन्होंने इस साल कांग्रेस से चुनाव लड़ा और वे जीत गए।

  गुजरात के गोधरा कांड के बाद 2002 ई के दंगों में हम आठ दोस्तों का एक गु्रप था,जिसने इन दंगों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। हमारे इलाके में दरिंदगी का नंगा नाच हो रहा था। हमारे घर के पास गांव में एक छोटी सी मस्जिद थी। लोग कहते हैं यह ऐतिहासिक मस्जिद है। हम लोगों ने योजना बनाई कि गांव की इस मस्जिद को गिरा देना चाहिए। हम आठों साथी उस मस्जिद को गिराने के लिए गए। बहुत मेहनत के बाद भी हम उस मस्जिद को गिरा ना सके। ऐसा लगता था हमारे कुदाल लोहे के नहीं लकड़ी के हों। बहुत निराश होकर हमने मस्जिद के बाहर वाली दीवार गिरानी शुरू कर दी जो कुछ साल पहले ही गांव वालों ने बनवाई थी। दीवार गिराने के बाद हम दोस्तों ने सोचा कि इस मस्जिद को जला देना चाहिए। इसके लिए पेट्रोल लाया गया और पुराने कपड़े में पेट्रोल डालकर मस्जिद को जलाने के लिए एक साथी ने आग जलाई तो खुद उसके कपड़ों में आग लग गई। और देखते ही देखते वह खुद जलकर मर गया। मैं तो यह दृश्य देखकर डर गया। हमारी इस कोशिश से मस्जिद को कुछ नुकसान पहुंचा। हैरत की बात यह हुई कि इस घटना के बाद दो सप्ताह के अन्दर ही मेरे चार साथी एक के बाद एक मरते गए। उनके सिर में दर्द होता था और वे तड़प-तड़प क र मर जाते थे। मेरे अलावा बाकी दो साथी पागल हो गए। यह सब देख मैं तो बेहद डर गया। मैं डरा-छिपा फिरता था। रात को उसी टूटी मस्जिद में जाकर रोता था और कहता था-ए मुसलमानों के भगवान मुझो क्षमा कर दे। मैं अपना माथा वहां टेकता।

इस दौरान मुझे सपने में नरक और स्वर्ग दिखाई देने लगे। मैंने एक बार सपने में देखा कि मैं नरक में हूं और वहां का एक दरोगा मेरे उन साथियों को जो मस्जिद गिराने में मेरे साथ थे अपने जल्लादों से सजा दिलवा रहा है। सजा यह है कि लंबे- लंबे कांटों का एक जाल है। उस जाल पर डालकर उनको खींचा जा रहा है जिससे मांस और खाल गर्दन से पैरों तक उतर जाती है लेकिन शरीर फिर ठीक हो जाता है। इसके बाद उनको उल्टा लटका दिया और नीचे आग जला दी गई जो मुंह से बाहर ऊपर को निकल रही है और दो जल्लाद हंटर से उनको मार रहे हैं। वे रो रहे हैं,चीख रहे हैं कि 'हमें माफ कर दो।' दरोगा क्रोध में कहता है-'क्षमा का समय समाप्त हो गया है। मृत्यु के बाद कोई क्षमा और प्रायश्चित नहीं है।'

सपने में इस तरह के भयानक दृश्य मुझे बार-बार दिखाई देते और मैं डर के मारे पागल सा होने को होता तो मुझे स्वर्ग दिखाई पड़ता। मैं स्वर्ग में देखता कि तालाब से भी चौड़ी दूध की नहर है। दूध बह रहा है। एक नहर शहद की है। एक ठण्डे पानी की इतनी साफ कि उसमें मेरी तस्वीर साफ दिख रही है। मैंने एक बार सपने में देखा कि एक बहुत सुंदर पेड़ है,इतना बड़ा कि हजारों लोग उसके साए में आ जाए। मैं सपने में बहुत अच्छे बाग देखता और हमेशा मुझे अल्लाहु अकबर,अल्लाहु अकबर की तीन बार आवाज आती। यह सुनकर मुझे अच्छा ना लगता और जब कभी मैं साथ में अल्लाहु अकबर ना कहता तो मुझे  स्वर्ग से उठाकर बाहर फैंक दिया जाता। जब मेरी आंख खुलती तो मैं बिस्तर से नीचे पड़ा मिलता। एक बार सपने में मैंने स्वर्ग को देखा तो 'ला इलाहा इल्लल्लाह' कहा तो वहां के बहुत सारे लड़के-लड़कियां मेरी सेवा में लग गए।

  इस तरह बहुत दिन गुजर गए। गुजरात में दंगे होते रहे लेकिन अब मुझे दिल से लगता जैसे मैं मुसलमान हूं। अब मुझे मुसलमानों की हत्या की सूचना मिलती तो मेरा दिल बहुत दुखता। मैं एक दिन बीजापुर गया। वहां एक मस्जिद देखी। वहां के इमाम साहब सहारनपुर के थे। मैंने उनसे अपनी पूरी कहानी बताई। उन्होंने कहा-'अल्लाह को आपसे बहुत प्रेम है,अगर आपसे प्रेम ना होता तो अपने साथियों की तरह आप भी नरक में जल रहे होते। आप अल्लाह के इस उपकार को समझों।'

सपने देखने से पहले मैं इस्लाम के नाम से ही चिढ़ता था। ठाकुर कॉलेज में किसी मुसलमान का प्रवेश नहीं होने देता था। लेकिन जाने क्यों अब मुझे इस्लाम की हर बात अच्छी लगने लगी। बीजापुर से मैं घर आया और मैंने तय कर लिया कि अब मुझे मुसलमान होना चाहिए। मैं अहमदाबाद की जामा मस्जिद में गया और इस्लाम कबूल कर लिया। अहमदाबाद से नमाज सीखने की किताब लेकर आया और नमाज याद करने लगा और फिर नमाज पढऩा शुरू कर दिया।

यह आर्टिकल दिल्ली से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक 'कान्ति' ( 21 फरवरी से 27 फरवरी 2010)से लिया गया है।

Sunday, March 21, 2010

पानी को इस्तेमाल करो मगर इस्लामी तरीके से


विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष 
पानी की अहमियत बच्चे बच्चे को मालूम है। तपती दोपहर में पसीने से तरबतर जब कोई शख्स घर पहुंचता है तो उसकी सबसे पहली ख्वाहिश होती है कि थोड़ा सा ठंडा पानी मिल जाये जो उसकी प्यास को फौरन बुझा दे। पानी अल्लाह की बेमिसाल रहमत है। पानी के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता। अभी तक साइंस कोई ऐसी जिंदगी दरियाफ्त नहीं कर पायी है जो पानी के बगैर हो। 
प्यास बुझाने के अलावा पानी में कुछ और भी ऐसी साइंसी खुसूसियात पायी जाती हैं जिससे साबित होता है कि अल्लाह ने इसे ज़मीन पर जिंदगी पैदा करने के लिए ही खल्क किया है। और इसकी तरफ कुरआन हकीम की 21 वीं सूरे अंबिया की 30 वीं आयत में इरशाद हुआ है, ‘‘क्या वह लोग जो मुनकिर हैं गौर नहीं करते कि ये सब आसमान व जमीन आपस में मिले हुए थे। फिर हम ने उन्हें जुदा किया और पानी के जरिये हर जिन्दा चीज़ पैदा की। क्या वह अब भी यकीन नहीं करते?’
पानी की एक अहम क्वालिटी इसका लिक्विड फार्म में होना है। लिक्विड होने की वजह से यह जानदारों के पूरे जिस्म में आसानी से फैल जाता है और जिस्म के लिए जरूरी चीज़ों को अंदर फैला देता है। जानदारों के लिए जरूरी ज्यादातर चीज़ें पानी में आसानी से घुल जाती हैं। जैसे कि नमक, ग्लूकोज और चीनी। पानी महीन से महीन चीज़ों के भीतर पहुंच सकता है। इसीलिए वह हाथी से लेकर निहायत बारीक बैक्टीरिया तक तमाम जानदारों के जिस्म में जरूरियात पहुंचाने का जरिया है।
पानी में एक ऐसी क्वालिटी होती है जो और किसी लिक्विड में नहीं होती। कोई भी लिक्विड ठंड बढ़ने पर सिकुड़ता है। लेकिन पानी चार डिग्री सेण्डीग्रेड टेम्प्रेचर होने तक सिकुड़ता है, उससे कम टेम्प्रेचर पर फिर फैलने लगता है। इसलिए जाड़ों में ठन्डे मुल्कों में तालाब का पानी जब बर्फ में बदलता है तो वह हलका होकर पूरे तालाब को ढंक लेता है और नीचे फ्रेश वाटर में मछलियां आराम से तैरती रहती हैं। बर्फ में गर्मी रोकने की भी खासियत होती है। जो पानी को हद से ज्यादा ठण्डा होने से रोक देती हैं। और इसमें रहने वाले जानदार एक आरामदेय माहौल में अपना गुज़र बसर करते रहते हैं।
पानी हाईड्रोजन और आक्सीजन के बीच जोड़ से बनता है। केमिस्ट्री के नजरिये से यह जोड़ सबसे मजबूत बांड होता है। बांड मजबूत होने की वजह से उसका ब्वायलिंग प्वाइंट बढ़ जाता है। उसका माल्क्यूल ज्य़ादातर केमिकल रिएक्शन में ब्रेक नहीं होता और वह पानी की ही हालत में चीज़ों का हिस्सा बन जाता है। इंसानी जिस्म का लगभग साठ-सत्तर फीसद हिस्सा पानी होता है। ज़मीन का इकहत्तर फीसद हिस्सा पानी है। कुछ पौधों में नब्बे फीसद तक पानी होता है।
पानी अगर लाखों साल तक भी किसी बरतन में रख दिया जाये तो भी उसकी बनावट पर कोई असर नहीं होता। जो कुछ भी उसकी जाहिरी हालत में तब्दीली आती है वह दरअसल उसमें दूसरे मैटीरियल के मिक्स होने से आती है। और अगर उस मैटीरियल को अलग कर दिया जाये तो पानी वापस अपनी असली हालत में आ जाता है।
पानी को वापस अपनी असली हालत में लाने के लिए अल्लाह ने इंतिजाम भी कर रखा है। इंसान और दूसरे जानदार जब पानी का इस्तेमाल करते हैं तो वह गंदी चीज़ों के मिक्स हो जाने से पीने लायक नहीं रहता। यह पानी नदियों के जरिये समुन्द्र में जाता है। सूरज की गर्मी समुन्द्र के इस गंदगी मिले पानी को भाप में बदल कर बादलों की शक्ल दे देती है। इस दौरान पानी की गंदगी समुन्द्र में ही छूट जाती है और बारिश के जरिये साफ पानी वापस ज़मीन पर आ जाता है।
पानी अल्लाह की बेमिसाल रहमत है। ‘रहमान’ अल्लाह के उन नामों में से है जिसको खुद अल्लाह ने पसंद फरमाया है। हालांकि अल्लाह की रहमतों को गिनने वाले गिन नहीं सकते। अगर सिर्फ पानी की क्वालिटीज़ को ही देखा जाये तो उसमें खालिके कायनात की रहमतों के बेशुमार पहलू निकलकर सामने आ जाते हैं।
कुरआन ने पानी की अहमियत बार बार बतायी है।
तो क्या तुमने पानी पर भी नज़र डाली जिसे तुम पीते हो?’’ (56-68)
‘‘और अल्लाह ही ने जमीन पर चलने वाले तमाम जानवरों को पानी से पैदा किया।-----’’ (24-45)
‘‘और उसी की निशानियों में से एक ये भी है कि वह तुमको डराने व उम्मीद लाने के वास्ते बिजली दिखाता है और आसमान से पानी बरसाता है और उसके जरिये से मुर्दा ज़मीन को आबाद करता है।---’’ (30-24)
कुरआन में जब भी जन्नत का जिक्र आया है तो पानी और नहरों का जिक्र जरूर आया है।
‘उन दोनों बागों में दो चश्मे (तालाब या झीलें) जोश मारते होंगे।’’ (55-66)
लेकिन अफसोस आज के दौर में हम अल्लाह की इस बेमिसाल रहमत को बरबाद कर रहे हैं। नदियों को गंदा कर रहे हैं। एक तरफ पाश कालोनियों में रोजाना पानी से सड़के धुली जाती हैं तो दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हिस्से हैं जहां लोग बूंद बूंद को तरसते हैं। जबकि रसूल (स-अ-) ने फरमाया है कि अगर तुम्हारे पास सिर्फ वुजू करने के लिए पानी है और तुम सामने एक कुत्ते को प्यासा देखते हो तो वह पानी उसे पिला दो।
अगर नहाने के लिए हमारा एक बाल्टी पानी से काम चल सकता है तो वहां चार बाल्टी खर्च कर देते हैं। जबकि रसूल (स-अ-) की एक और हदीस है कि अगर तुम नदी के किनारे बैठे हो और तुम्हें प्यास लगी है तो नदी से सिर्फ इतना पानी लो कि तुम्हारी प्यास बुझ जाये।
किसी व्यक्ति को पानी जरूरत से ज्यादा इकट्‌ठा करने और दूसरों को उससे वंचित करने से सख्ती से मना किया गया है। एक हदीस कहती है, ‘‘अल्लाह कयामत के दिन उन लोगों से सख्ती से पेश आयेगा जो पानी को सड़कों पर बहा देते हैं और मुसाफिरों (जरूरतमन्दों) को तरसाते हैं।’’ (बुखारी 3-838)
पानी पीने से जानवरों को भी रोकना इस्लाम में सख्ती से मना है, हदीस के अनुसार ‘‘अगर कोई व्यक्ति रेगिस्तान में कुआँ खोदता है तो उसे इसका अधिकार हरगिज नहीं कि वह उस कुएं से किसी जानवर को पानी पीने से रोक दे।’’ (बुखारी -5550)
रसूल (स-अ-) ने नदियों या साफ पानी के ज़खीरों में गंदगी बहाने से सख्ती से मना किया है। (मुस्लिम-553)
रसूल (स-अ-) ने पानी को बेचने के लिए भी सख्ती से मना किया है। (मुस्लिम - 3798)
गर्ज ये कि इस तरंह की बेशुमार कुरानी आयतें व रसूल की हदीसें इस्लाम में मौजूद हैं जो न सिर्फ हमें पानी की अहमियत बताती हैं बल्कि उसका सही इस्तेमाल कैसे किया जाये इसके तरीके भी बताती हैं। अगर इन पर सही तरंह से अमल किया जाये तो पानी के लिए न तो किसी को तरसना पड़ेगा और न ही जल संरक्षण दिवस मनाने की ज़रूरत होगी। 
वरना फिर यही पानी अज़ाब बनकर दुनिया को खत्म भी कर सकता है। जैसा कि तूफाने नूह में हुआ था.

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Saturday, March 20, 2010

मक्का भूमण्डल का केंद्रीय शहर

उस समय संसार आश्चर्यचकित रह गया जब कि 1977 में एक आधुनिक वैज्ञानिक खोज सामने आई कि मक्का भूमण्डल के सर्वथा मध्य में स्थित है। इस खोज का क्रेडिट एक मुसलमान वैज्ञानिक डा0 हुसैन कमालुद्दीन को जाता है। जब उन्होंने खोज का आरम्भ किया तो उनका अभिप्राय सर्वथा भिन्न था। वह ऐसा माध्यम तैयार करना चाहते थे जो संसार के किसी भी कोने में क़िबला का दिशा निर्देशन में सहायक बन सके। इसी उद्देश्य के अंतर्गत उन्होंने भूमण्डल का एक आधुनिक भौगोलिक रेखाचित्र तैयार किया और खोज शुरू की। अपनी प्रारम्भिक खोज में प्रथम लकीर खींजी और उस पर पाँच महाद्वीपों का मानचित्र बनाया। फिर हाथ में औज़ार बक्स लेकर उसके एक किनारा को मक्का के मानचित्र पर रखा और दूसरे किनारे को सारे महाद्वीपों की ओर घुमाया तो आकस्मिक रूप में यह नवीन खोज उनके सामने आ गई कि मक्का सारे संसार के मध्य में स्थित है।

और अभी कुछ दिनों पहले अल इस्कांडरिया के एक वैज्ञानिक सभा में मिस्र के विश्व इस्लामी दावत कौंसल के अध्यक्ष डा0 यहया वज़ीरी ने अपने एक गवेषणिक लेख में कहा कि प्रत्येक वैज्ञानिक तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि मक्का ही भूमण्डल का केंद्रीय शहर है।

प्रिय पाठकगण: यहीं पर हमें यह बात समझ में आती है कि इस्लाम चूंकि विश्वव्यापी धर्म है, मुहम्मद सल्ल0 की आगमन सम्पूर्ण संसार के लिए हुई है तथा क़ुरआन सारे मानव के मार्गदर्शन हेतु ईश्वर की ओर से बहुमूल्य उपहार है, इस लिए आवश्यकता थी कि मक्का में ही विश्व नायक आएं ताकि इस्लाम का संदेश विश्व के कोने कोने तक सरलतापूर्वक पहुंच सके।

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Wednesday, March 17, 2010

समलैंगिकता (Homosexuality/Lesbianism) को इस्लाम में हराम (वर्जित) क्यूँ समझा जाता है?









बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम 
(मैं अति मेहरबान और दयालु अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ)

हर प्रकार की हम्द व सना (प्रशंसा व गुणगान) अल्लाह के लिए योग्य है, हम उसी की प्रशंसा करते हैं उसी से मदद मांगते हैं और उसी से क्षमा याचना करते हैं तथा हम अपने नफस की बुराई और अपने बुरे कामों से अल्लाह की पनाह में आते हैं, जिसे अल्लाह तआला हिदायत दे दे उसे कोई पथ्भ्स्थ करनेवाला नहीं, और जिसे गुमराह करदे उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं. हम्द व सना के बाद: 

हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए ही योग्य है.
१. मुसलमान के लिए एक पल के लिए भी यह संदेह करना उचित नहीं कि अल्लाह त-आला के क़ानून तत्वदर्शी व बुद्धिपूर्ण हैं, और इस बात को जान लेना उचित है कि अल्लाह तआला ने जिस चीज़ का आदेश दिया है और जिस चीज़ से मना किया है उसके अन्दर सम्पूर्ण और व्यापक हिकमत (तत्वदर्शिता) है और वही सीधा पथ और एक मात्र रास्ता है कि मनुष्य सुरक्षा और संतुष्टि के साथ जीवन यापन करे और उसकी इज्ज़त और आबरू (सतीत्व), बुद्धि और स्वास्थ्य की सुरक्षा हो और वह उस प्रकृति के अनुरूप हो जिस पर अल्लाह तआला ने पैदा किया है.
कुछ विधर्मी और स्वधर्मभ्रष्ट लोगों ने इस्लाम और उसके प्रावधानों और नियमों पर हमला करने का प्रयास किया है:::अतः उन्होंने तलाक़ और बहु विवाह की निंदा की है और शराब की अनुमति दी है, और जो आदमी उनके समाज की स्तिथि को देखेगा तो उसे उस दयनीय स्तिथि और दुर्दशा का पता चल जायेगा जहाँ वे समाज पहुँच चुके है. 
जब उन्होंने तलाक़ को अविकार किया तो उनका स्थान हत्या ने ले लिया
जब उन्होंने ने बहु-विवाह को अस्वीकार किया तो उसके बदले में रखैल (मिस्ट्रेस) रखने की प्रथा चल पड़ी
और जब उन्होंने शराब को वैध ठहरा लिया तो सभी रंग रूप की बुराइयां और अनैतिक कार्यों का फैलाव हुआ.
वे दोनों यानि पुरुष समलैंगिकता और स्त्री समलैंगिकता अल्लाह त-आला के उस प्राकृतिक स्वभाव के विरुद्ध है जिस पर अल्लाह त-आला ने मनुष्यों को - बल्कि पशुवों को भी पैदा किया है कि पुरुष स्त्री का और स्त्री पुरुष की इछ्हुक होती है और जिसने इसका विरोध किया उसने फ़ितरत (प्राकृतिक स्वभाव) का विरोध किया.
पुरुष और स्त्री समलैंगिकता के फैलाव ने ढेर सारी ने बीमारियों को जन्म दिया है जिनके अस्तित्व का पूरब और पश्चिम के लोग इन्कार नहीं कर सकते, यदि इस विषमता के परिणामों में से केवल 'एड्स' की बीमारी ही होती जो मनुष्य के अन्दर प्रतिरक्षा प्रणाली को धरम-भरम (नष्ट) कर देती है, तो बहुत काफी है.  
इसी प्रकार यह परिवारों के विघटन और उनके टुकड़े-टुकड़े हो जाने और काम-काज और पढाई-लिखाई को त्याग कर इस प्रकार के अप्राकृतिक कृत्यों में व्यस्त हो जाने का कारण बनता है.
चूँकि इसका निषेध उसके पालनहार की ओर से आया है अतः मुसलमान को इस बात की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि चिकित्सा विज्ञान अल्लाह त-आला के के वर्जित किये हुए अपराध से होने वाली क्षति और नुक्सान को सिद्ध करे, बल्कि उसे इस बात का डरीं विश्वास होना चाहिए कि अल्लाह त-आला उसी चीज़ हो वैध करता है जिसमें लोगों का हित और कल्याण हो और यह आधुनिक खोज अल्लाह त-आला की महान हिकमत और तत्वदर्शिता के प्रति उसके संतोष को बढ़ाते हैं.
२. स्त्री की समलैंगिकता (Lesbianism) का अर्थ यह है कि एक महिला दुसरे महिला के साथ ऐसा ही सम्बन्ध स्थापित करे जिस तरह एक पुरुष महिला के साथ करता है.
पुरुष समलैंगिकता (Homosexuality) का अर्थ यह है कि पुरुष का पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध बनाना, जो कि अल्लाह के ईश-दूत लूत अलैहिस्सलाम के समुदाय के शापित लोगों की करवाई है.
अल्लाह त-आला कुरआन में फरमाता है कि:
(وَلُوطًا إِذْ قَالَ لِقَوْمِهِ أَتَأْتُونَ الْفَاحِشَةَ مَا سَبَقَكُمْ بِهَا مِنْ أَحَدٍ مِنَ الْعَالَمِينَ. إِنَّكُمْ لَتَأْتُونَ الرِّجَالَ شَهْوَةً مِنْ دُونِ النِّسَاءِ بَلْ أَنْتُمْ قَوْمٌ مُسْرِفُونَ )الأعراف)
अर्थात
"और हमने लूत (अ.) को भेजा जबकि उन्होंने अपनी काम से कहा कि क्या तुम ऐसा बुरा काम करते हो जिसे तुमसे पहले सारी दुनिया में किसी ने नहीं किया? तुम महिलाओं को छोड़ कर पुरुषों के साथ सम्भोग करते हो. बल्कि तुम तो हद से गुज़र गए हो." (सूरतुल आराफ 80-81)
और फ़रमाया:
(إِنَّا أَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ حَاصِبًا إِلَّا آلَ لُوطٍ نَجَّيْنَاهُمْ بِسَحَرٍ (القمر:34 )
अर्थात
"बेशक हमने उन पर पत्थर की बारिश करने वाली हवा भेजी, सिवाय लूत (अ) के परिवार वालों के, उन्हें सुबह के वक़्त हमने मुक्ति प्रदान कर दी." (सूरतुल क़मर 34)
इसी तरह अल्लाह त-आला अपनी किताब कुरआन में कई जगह फरमाता है. अल्लाह त-आला फरमाता है सूरतुल अनकबूत:२८, सूरतुल अम्बिया ७४, सूरतुल नम्ल ५४-५८ और सुरतुन्निसा १६ में.
यही नहीं वेदों में भी समलैंगिकता का निषेध है...
आपके विचार का स्वागत है.