Wednesday, January 27, 2010

पवित्र कुरआन में गणितीय चमत्कार - quran-math

"और जो 'हमने' अपने बन्दे 'मुहम्मद' पर 'कुरआन' उतारा है, अगर तुमको इसमें शक हो तो इस जैसी तुम एक 'ही' सूरः बनाकर ले आओ और अल्लाह के सिवा जो तुम्हारे सहायक हों' उन सबको बुला लाओ' अगर तुम सच्चे हो। फिर अगर तुम ऐसा न कर सको और तुम हरगिज़ नहीं कर सकते तो डरो उस आग से जिसका ईंधन इनसान और पत्थर हैं] जो इनकारियों के लिए तैयार की गई है" -('पवित्र कुरआन' 2 : 23-24) विस्‍तार से जानने के लिये देखें

दुःख दर्द का इतिहास
मनुष्य जाति का इतिहास दुख-दर्द और जुल्म की दास्ताना है। उसका वर्तमान भी दुख दर्द और ज़ुल्म से भरा हुआ गुज़र रहा है और भविष्य में आने वाला विनाश भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
ऐसा नहीं है कि इनसान इस हालत से नावाक़िफ़ है या उसने दुख का कारण जानने और दुख से मुक्ति पाने की कोशिश ही नहीं की। इनसान का इतिहास दुखों से मुक्ति पाने की कोशिशों का बयान भी है। वर्तमान जगत की सारी तरक्‍की और तबाही के पीछे यही कोशिशें कारफ़रमा हैं।
सोचने वालों ने सोचा कि दुख का मूल कारण अज्ञान है। अज्ञान से मुक्ति के लिए इनसानों ने ज्ञान की तरफ़ कदम बढ़ाए। कुछ ने नज़र आने वाली चीज़ों पर एक्सपेरिमेन्ट्स शुरू किए तो कुछ लोगों ने अपने मन और सूक्ष्म शरीर को अपने अध्ययन का विषय बना लिया। वैज्ञानिकों ने आग, पानी, हवा, मिट्टी और अतंरिक्ष को जाना समझा, मनुष्य के शरीर को जाना समझा और अपनी ताक़त के मुताबि़क उन पर कंट्रोल करके उनसे काम भी लिया। हठयोगियों ने शरीर को अपने ढंग से वश में किया और राजयोगियों ने मन जैसी चीज़ का पता लगाया और उसे साधने जैसे दुष्कर कार्य को संभव कर दिखाया।

दुख का कारण
कुछ लोगों ने तृष्णा और वासना को दुखों का मूल कारण समझा और उन्हें त्याग दिया और कुछ लोगों ने सोचा कि शायद उनकी तृप्ति से ही शांति मिले। यह सोचकर वे उनकी पूर्ति में ही जुट गए। इनसानों ने योगी भोगी और नैतिक-अनैतिक सब कुछ बनकर देखा और सारे तरीके़ आज़माए बल्कि आज भी इन्हीं सब तरीकों को आज़मा रहे हैं लेकिन फिर भी मानव जाति को दुखों से मुक्ति और सुख-शांति नसीब नहीं हुई बल्कि उसके दुखों की लिस्ट में एड्स, दहेज, कन्या, भ्रूण हत्या, ग्लोबल वॉर्मिग और सुपरनोवा जैसे नये दुखों के नाम और बढ़ गए। आखि़र क्या वजह रही कि सारे वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लोग मिलकर मानवजाति को किसी एक दुख से भी मुक्ति न दिला सके?
कहीं कोई कमी तो ज़रूर है कि साधनों और प्रयासों के बावजूद सफलता नहीं मिल रही है। विचार करते हैं तो पाते हैं कि ये सारी कोशिशें सिर्फ़ इसलिए बेनतीजा रहीं क्योंकि ये सारी कोशिशें इनसानों ने अपने मन के अनुमान और बुद्धि की अटकल के बल पर कीं और ईश्वर को और उसके ज्ञान को उसका वाजिब हक़ नहीं दिया।

सच्चा राजा एक है
सारी सृष्टि का सच्चा स्वामी केवल एक प्रभु परमेश्वर है। उसी ने हरेक चीज़ को उत्पन्न किया। उनका मक़सद और काम निश्चित किया। उनमें परस्पर निर्भरता और संतुलन क़ायम किया। उनकी मर्यादा और सीमाएं ठहराईं। परमेश्वर ही स्वाभाविक रूप से मार्गदर्शक है। उसने प्रखर चेतना और उच्च मानवीय मूल्यों से युक्त मनुष्यों के अन्तःकरण में अपनी वाणी का अवतरण किया। उन्हें परमज्ञान और दिव्य अनुभूतियों से युक्त करके व्यक्ति और राष्ट्र के लिए आदर्श बना दिया। उन्होंने हर चीज़ खोलकर बता दी और करने लायक सारे काम करके दिखा दिए। इन्हीं लोगों को ऋषि और पैग़म्बर कहा जाता है।

पैग़म्बर (स.) मानवता का आदर्श
इतिहास के जिस कालखण्ड में इन लोगों की शिक्षाओं का पालन किया गया बुरी परम्पराओं और बुरी आदतों का खात्मा हो गया। इनसान की जिन्दगी संतुलित और सहज स्वाभाविक होकर दुखों से मुक्त हो गयी। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) के द्वारा अरब की बिखरी हुई युद्धप्रिय और अनपढ़ आबादी में आ चुका बदलाव एक ऐतिहासिक साक्ष्य है। यह युगांतरकारी परिवर्तन केवल तभी सम्भव हो पाया जबकि लोगों ने ईश्वर को उसका स्वाभाविक और वाजिब हक़ देना स्वीकार कर लिया। उसे अपना मार्गदर्शक मान लिया। ईश्वर ही वास्तविक राजा और सच्चा बादशाह है यह हमें मानना होगा। उसके नियम-क़ानून ही पालनीय हैं। ऐसा हमें आचरण से दिखाना होगा। यही वह मार्ग है जिसकी प्रार्थना गायत्री मंत्र और सूरा-ए-फ़ातिहा पढ़कर हिन्दू-मुस्लिम करते हैं। सबका रचयिता एक है तो सबके लिए उसकी नीति और व्यवस्था भी एक होना स्वाभाविक है।

कुरआन का इनकार कौन करता है?
पवित्र कुरआन इसी स्वाभाविक सच्चाई का बयान है। इस सत्य को केवल वे लोग नहीं मानते जो पवित्र कुरआन के तथ्यों पर ग़ौर नहीं करते या ग़ुज़रे हुए दौर की राजनीतिक उथल-पुथल की कुंठाएं पाले हुए हैं। ये लोग रहन-सहन,खान-पान और भौतिक ज्ञान में, हर चीज़ में विदेशी भाषा-संस्कृति के नक्क़ाल बने हुए हैं लेकिन जब बात ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन की आती है तो उसे यह कहकर मानने से इनकार कर देते हैं कि यह तो विदेशियों का धर्मग्रंथ है। जबकि देखना यह चाहिए कि यह ग्रंथ ईश्वरीय है या नहीं?

बदलता हुआ समाज
पवित्र क़ुरआन से पहले भी ईश्वर की ओर से महर्षि मनु और हज़रत इब्राहिम आदि ऋषियों-पैग़म्बरों पर हज़ारों बार वाणी का अवतरण हुआ, लेकिन आज उनमें से कोई भी अपने मूलरूप में सुरक्षित नहीं है और जिस रूप में आज वे हमें मिलती हैं तो न तो उनके अन्दर इस तरह का कोई दावा है कि वे ईश्वर की वाणी हैं औन न ही एक आधुनिक समतावादी समाज की राजनीतिक,सामाजिक, आध्यात्मिक व अन्य ज़रूरतों की पूर्ति उनसे हो पाती है। यही वजह है कि उन ग्रन्थों के जानकारों ने उनके द्वारा प्रतिपादित सामाजिक नियम,दण्ड-व्यवस्था और पूजा विधियाँ तक या तो निरस्त कर दी हैं या फिर उनका रूप बदल दिया है। बदलना तो पड़ेगा। लेकिन यह बदलाव भी ईश्वर के मार्गदर्शन में ही होना चाहिए अन्यथा अपनी मर्जी से बदलेंगे तो ऐसा भी हो सकता है कि हाथ में केवल भाषा-संस्कृति ही शेष बचें और धर्म का मर्म जाता रहे, क्योंकि धर्म की गति बड़ी सूक्षम होती है।

पवित्र कुरआन : कसौटी भी, चुनौती भी
पवित्र कुरआन बदलते हुए युग में आवश्यक बदलाव की ज़रूरतों को पूरा करता है। यह स्वयं दावा करता है कि यह ईश्वर की ओर से है। यह स्वयं अपने ईश्वरीय होने का सुबूत देता है और अपने प्रति सन्देह रखने वालों को अपनी सच्चाई की कसौटी और चुनौती एक साथ पेश करता है कि अगर तुम मुझे मनुष्यकृत मानते हो तो मुझ जैसा ग्रंथ बनाकर दिखाओ या कम से कम एक सूरः जैसी ही बनाकर दिखाओ और अगर न बना सको तो मान लो कि मैं तुम्हारे पालनहार की ओर से हूँ जिसका तुम दिन रात गुणगान करते हो। मैं तुम्हारे लिए वही मार्गदर्शन हूँ जिसकी तुम अपने प्रभु से कामना करते हो। मैं दुखों से मुक्ति का वह एकमात्र साधन हूँ जो तुम ढूँढ रहे हो

पवित्र कुरआन अपनी बातों में ही नहीं बल्कि उन्हें कहने की शैली तक में इतना अनूठा है कि तत्कालीन समाज में अपनी धार्मिक-आर्थिक चैधराहट की ख़ातिर हज़रत मुहम्मद (स.) का विरोध करने वाले भी अरबी के श्रेष्ठ कवियों की मदद लेकर भी पवित्र कुरआन जैसा नहीं बना पाये। जबकि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (स.) के जीवन की योजना ही ईश्वर ने ऐसी बनायी थी कि वे किसी आदमी से कुछ पढ़ाई-लिखाई नहीं सीख सके थे।

पवित्र कुरआन का चमत्कार
हज़रत मुहम्मद (स.) आज हमारी आँखों के सामने नहीं हैं लेकिन जिस ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन के ज़रिये उन्होंने लोगों को दुख निराशा और पाप से मुक्ति दिलाई वह आज भी हमें विस्मित कर रहा हैै।

एक साल में 12 माह और 365 दिन होते हैं। पूरे कुरआन शरीफ में हज़ारों आयतें हैं लेकिन पूरे कुरआन शरीफ में शब्द शह् र (महीना) 12 बार आया है और शब्द ‘यौम’ (दिन) 365 बार आया है। जबकि अलग-अलग जगहों पर महीने और दिन की बातें अलग-अलग संदर्भ में आयी हैं। क्या एक इनसान के लिए यह संभव है कि वह विषयानुसार वार्तालाप भी करे और गणितीय योजना का भी ध्यान रखे? ‘मुहम्मद’ नाम पूरे कुरआन शरीफ़ में 4 बार आया है तो ‘शरीअत’ भी 4 ही बार आया है। दोनों का ज़िक्र अलग-अलग सूरतों में आया है।‘मलाइका’ (फरिश्ते) 88 बार और ठीक इसी संख्या में ‘शयातीन’ (शैतानों) का बयान है। ‘दुनिया’ का ज़िक्र भी ठीक उतनी ही बार किया गया है जितना कि ‘आखि़रत’ (परलोक) का यानि प्रत्येक का 115 बार। इसी तरह पवित्र कुरआन में ईश्वर ने न केवल स्त्री-पुरूष के मानवधिकारों को बराबर घोषित किया है बल्कि शब्द ‘रजुल’ (मर्द) व शब्द ‘इमरात’ (औरत) को भी बराबर अर्थात् 24-24 बार ही प्रयुक्त किया है।

ज़कात (2.5 प्रतिशत अनिवार्य दान) में बरकत है यह बात मालिक ने जहाँ खोलकर बता दी है। वही उसका गणितीय संकेत उसने ऐसे दिया है कि पवित्र कुरआन में ‘ज़कात’ और ‘बरकात’ दोनों शब्द 32-32 मर्तबा आये हैं। जबकि दोनांे अलग-अलग संदर्भ प्रसंग और स्थानों में प्रयुक्त हुए हैं।

पवित्र कुरआन में जल-थल का अनुपात
एक इनसान और भी ज़्यादा अचम्भित हो जाता है जब वह देखता है कि ‘बर’ (सूखी भूमि) और ‘बह्र’ (समुद्र) दोनांे शब्द क्रमशः 12 और 33 मर्तबा आये हैं और इन शब्दों का आपस में वही अनुपात है जो कि सूखी भूमि और समुद्र का आपसी अनुपात वास्तव में पाया जाता है।

सूखी भूमि का प्रतिशत- 12/45 x 100 = 26.67 %
समुद्र का प्रतिशत- 33/45 x 100 = 73.33 %

सूखी जमीन और समुद्र का आपसी अनुपात क्या है? यह बात आधुनिक खोजों के बाद मनुष्य आज जान पाया है लेकिन आज से 1400 साल पहले कोई भी आदमी यह नहीं जानता था तब यह अनुपात पवित्र कुरआन में कैसे मिलता है? और वह भी एक जटिल गणितीय संरचना के रूप में।

क्या वाकई कोई मनुष्य ऐसा ग्रंथ कभी रच सकता है?

क्या अब भी पवित्र कुरआन को ईश्वरकृत मानने में कोई दुविधा है? (...जारी)
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साभार ''वन्‍दे ईश्‍वरम'' मासिक पत्रीका, प़ष्‍ठ 5 से 9, डा. अनवर जमाल eshvani@gmail.com

Saturday, January 23, 2010

क्या कुरआन को समझ कर पढना ज़रुरी है? भाग- १

कुरआन मजीद अल्लाह तआला की आखिरी वही (पैगाम) अपने आखिरी पैगम्बर मुहम्मद रसुल अल्लाह सल्लाहोअलैह वस्सलम पर नाज़िल की थी। कुरआन मजीद सारी दुनिया मे सबसे बेहतरीन किताब है, वो इन्सानियत के लिये हिदायत है, कुरआन मजीद हिकमत का झरना है और जो लोग नही मानते उन्के लिये चेतावनी है, उन्के लिये सख्ती है और जो लोग भटके हुए है उन्हे सीधी राह दिखाती है कुरआन मजीद। जिन लोगो को शक है कुरआन मजीद उन्के लिये यकीन है और जो मुश्किलात मे है उन्के लिये राहत है लेकिन ये कुरआन मजीद की सारी खुबियां कोई इन्सान तब तक हासिल नही कर सकता है जब की वो कुरआन मजीद को नही पढे, कुरआन मजीद को नही समझे, और कुरआन मजीद पर अमल न करे। कुरआन मजीद की ये सारी खुबियां हम तब ही हासिल कर सकते है जब कुरआन मजीद को पढे, उसकॊ समझें और उस पर अमल करें। कुरआन मजीद सारे जहां मे सबसे ज़्यादा पढी जाने वाली किताब है लेकिन अफ़्सोस की बात है की कुरआन मजीद वो ही किताब है जो सबसे ज़्यादा बिना समझे पढी जाती है, ये वो किताब है जो लोग बिना समझे पढते है यही वजह की हम मुस्लमानॊं और कुरआन के बीच जो रिश्ता है, जो बंधन है वो कमज़ोर होता जा रहा है।


कितने अफ़्सोस की बात है की एक शख्स कुरआन के करीब आता है, कुरआन पढता है, लेकिन उसके ज़िन्दगी जीने का तरीका बिल्कुल भी नही बदलता, उसका रहन-सहन ज़रा भी नही बदलता, उसका दिल ज़रा भी नही पिघलता, बहुत अफ़्सोस की बात है। अल्लाह तआला फ़र्माते है कुरआन मजीद में सुरह: अल इमरान सु. ३ : आ. ११० मे अल्लाह तआला सारे मुसलामानॊं से फ़र्माते है "की आप सारे जहां मे सबसे बेहतरीन उम्मा (उम्मत) है"। जब भी कोई तारिफ़ की जाती है या ओहदा दिया जाता है तो उसके साथ ज़िम्मेदारी होना ज़रुरी है कोई भी ओहदे के साथ ज़िम्मेदारी होना ज़रुरी है। जब अल्लाह तआला हमे सारे जहां मे सबसे बेहतरीन उम्मा कहते है तो क्या हमारे उपर कोई ज़िम्मेदारी नही है? इसी आयत मे अल्लाह तआला हमें हमारी ज़िम्मेदारी भी बताते है "अल्लाह तआला फ़र्माते है क्यौंकी हम लोगों को अच्छाई की तरफ़ बुलाते है और बुराई से रोकते है"। अगर हम लोगो को अच्छाई की तरफ़ बुलाना चाहते है और बुराई से बचाना चाहते है तो ज़रुरी है की हम कुरआन को समझ कर पढे। अगर हम कुरआन को समझ कर नही पढेंगें तो लोगो को अच्छाई की तरफ़ कैसे बुलायेंगें? और अगर हम लोगो को अच्छाई की तरफ़ नही बुलायेंगे तो हम "खैरा-उम्मा" (सबसे बेह्तरीन उम्मा) कहलाने के लायक नही है। हम मुसलमान कहलाने के लायक नही है।

आज हम गौर करते हैं की हम मुसलमान कुरआन को समझ कर क्यौं नही पढतें? हम मुस्लमान क्यौं बहाने बनाते है कुरआन मजीद को समझ कर नही पढने के?

सबसे पहला जो बहाना है वो है की हम अरबी ज़बान नही जानते। ये हकीकत है की सारी दुनिया मे बीस प्रतिशत से ज़्यादा मुसलमान है, सारी दुनिया मे १२५ करोडं से ज़्यादा मुसलमान है लेकिन इसमे से लगभग १५ प्रतिशत मुसलमान अरब है जिनकी मार्त भाषा अरबी है और इन्के अलावा चन्द मुस्लमान अरबी ज़बान जानते है इसका मतलब है की ८० प्रतिशत मुसलमान अरबी ज़बान नही जानते है। जब भी कोई बच्चा पैदा होता है और इस दुनिया मे आता है तो वो कोई ज़बान नही जानता है वो सबसे पहले अपनी मां की ज़बान सीखता है ताकि वो घरवालॊं से बात कर सके, उसके बाद वो अपने मुह्ल्ले की ज़बान सीखता है ताकि मुह्ल्लेवालों से बातचीत कर सके, फिर वो तालिम हासिल करता है जिस स्कुल या कांलेज मे जिस ज़बान मे तालिम हासिल करता है उस ज़बान को सीखता है। हर इन्सान कम से कम दो या तीन ज़बान समझ सकता है, कुछ लोग चार या पांच ज़बान समझ सकते है और लोगो को बहुत सी ज़बानॊ मे महारत हासिल होती है लेकिन आम तौर से एक इन्सान दो या तीन ज़बान समझ सकता है। क्या हमे ज़रुरी नही की हम वो ज़बान समझे जिस ज़बान मे अल्लाह तआला ने आखिरी पैगाम इंसानियत के लिये पेश किया? क्या हमे ज़रुरी नही की हम अरबी ज़बान को जानें और सीखें? और उम्र कभी भी, कोई भी अच्छे काम के लिये रुकावट नही है।

मैं आपकॊं मिसाल पेश करना चाहता हु डां. मौरिस बुकेल की, डां. मौरिस बुकेल एक ईसाई थे, उन्हे फ़्रैचं अक्डेमी अवार्ड मिला था मेडिसिन के श्रेत्र मे, और उनको चुना गया था की "फ़िरौन की लाश" जो बच गयी थी, जिसे लोगों ने ढुढां था १९वीं सदी में, उसे मिस्त्र के अजायबघर रखा गया है। उन्हे चुना गया था की आप इस लाश पर तह्कीक (रिसर्च) करने को और डां. मौरिस बुकेल क्यौंकी ईसाई थे इसलिये जानते थे की "बाईबिल" मे लिखा हुआ था "की जब फ़िरौन मुसा अलैह्स्सलाम का पिछा कर रहा था तो वो दरिया मे डुब जाता है, ये उन्हे पता था। लेकिन डां. मौरिस बुकेल जब अरब का दौरा कर रहे थे तो एक अरब के आदमी ने कहा की कोई नयी बात नही है की आपने "फ़िरौन" कि लाश को ढुढं निकाला क्यौंकी कुरआन मजीद मे सुरह: युनुस सु. १० : आ. ९२ :- "अल्लाह तआला फ़र्माते है की हम फ़िरौन की लाश को हिफ़ाज़त से रखेंगें, महफुज़ रखेंगें ताकि सारी दुनिया के लिये वो एक निशानी बनें"। डां. मौरिस बुकेल हैरान हुए की ये जो किताब आज से १४०० साल पुरानी है उसमे कैसे लिखा गया है की "फ़िरौन की लाश को हिफ़ाज़त से रखा जायेगा"। इसीलिये डां. मौरिस बुकेल ने कुरआन मजीद का तर्जुमा पढां और तर्जुमा पढने के बाद इतने मुतासिर हुए की कुरआन को और अच्छी तरह समझने के पचास साल की उम्र मे उन्होने अरबी ज़बान सीखी और कुरआन का मुताला (समझ कर पढा) किया। और उसके बाद एक किताब लिखी " Bible. Quran And Science" और ये किताब काफ़ी मशहुर है और काफ़ी ज़बानॊ मे इसका तर्जुमा हो चुका है।

मैनें ये मिसाल आपकॊ दी ये समझाने के लिये की एक गैर-मुसलमान, एक ईसाई, कुरआन को अच्छी तरह समझने के लिये पचास साल की उम्र मे अरबी ज़बान सीखता है। मै जानता है की हम सब डां. मौरिस बुकेल की तरह जज़्बा नही रखते है लेकिन कम से कम हम कुरआन का तर्जुमा तो पढ सकते है। मौलाना अब्दुल मजीद दरियाबादी फ़र्माते है की सारी दुनिया मे सबसे मुश्किल किताब जिस्का तर्जुमा हो सकता है वो है कुरआन मजीद। क्यौंकी कुरआन मजीद की ज़बान अल्लाह तआला की तरह से है और एक बेहतरीन ज़बान है, एक करिश्मा है। कुरआन की एक आयत एक ज़हीन और पढे - लिखे आदमी को मुत्तासिर (Impress) करती है और वही आयत एक आम आदमी कॊ मुत्तासिर करती है यह खुबी है कुरआन मजीद की और कई अरबी अल्फ़ाज़ (शब्द) उसके पचास से ज़्यादा माईने (मतलब/अर्थ) होते हैं और कुरआन मजीद की एक आयत के कई माईने होते है इसीलिये ये अल्लाह तआला की आखिरी किताब सबसे मुश्किल किताब है जिस्का तर्जुमा (अनुवाद) हो सकता है लेकिन इसके बावजुद कई उलमा ने कुरआन मजीद का तर्जुमा दुनिया की कई ज़बानॊ मे किया, जितनी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ज़बानें (भाषायें) है उसके अंदर कुरआन मजीद का तर्जुमा (अनुवाद) हो चुका है तो अगर आपकॊ अरबी ज़बान मे महारत हासिल नही है तो आप कुरआन का तर्जुमा उस ज़बान (भाषा) मे पढे जिसमे आपको महारत हासिल है।

भाग -२ में जारी

साभार :- इस्लाम और कुरआन

Monday, January 18, 2010

मीनारों के विरोधी स्विस नेता ने किया इस्लाम कबूल Converts-to- Islam

स्विट्जरलैंड में मस्जिदों के मीनारों का विरोधी, प्रसिद्ध नेता एवं स्विस मिल ट्री के इन्‍सट्रक्‍टर डेनियल स्‍ट्रेच (Daniel Streich) जो मीनारों की मुखालफत का झण्डा उठाये हुआ था ने इस्लाम कबूल कर लिया है। वही पहला नेता था जिसने स्वीटजर्लेंड में मस्जिदों ताले लगाने और मीनारों पर पाबन्दी लगाने की मुहिम छेडी थी। उसने अपनी इस इस्लाम विरोधी आन्दोलन को देश-भर में फैलाया था। लोगों से मिलकर उनमें इस्लाम के विरूद्ध नफरत की बीज बोये और मस्जिदों के गुम्बद और मीनारों के लिखाफ आम जनता को खडा कर रहा था। परन्तु आज वह इस्लाम की सिपाही बन चुका है। इस्लाम के विरोध ने उसे इस्लाम के इतना निकट कर दिया कि वह इस्लाम कबूल किये बगैर न रह सका और अब अपने किये पर इतना शर्मिन्दा है और अब वह स्वीटजर्लेंड में युरोप की सबसे सुन्दर मस्जिद बनाना चाहता है। लिदचस्प बात यह है कि स्वीटजर्लेंड में इस समय मीनारों वाली केवल चार मस्जिदें हैं और डेनियल स्‍ट्रेच पांचवीं मस्जिद की बुनियाद रखना चाहता है। उनकी तमन्ना है कि वह दुनिया की सबसे सुन्दर मस्जिद बना सकें और अपने उस गुनाह की तलाफी कर सकें जो उन्होंने मस्जिदों की विरूद्ध जहर फैला कर किये हैं। अह वह स्वयं अपने आरम्‍भ किये आन्दोलन के विरूद्ध भी आन्दोलन चलाना चाहते हैं। हालाँकि स्वीटजर्लेंड में मीनार पर पाबन्दी अब कानूनी हेसियत पा चुकी है।

इस विवाद को समझने के लिए देखें "अब मीनार पर तकरार"

इस्लाम की सबसे बडी खूबी यही है कि विरोध से इसका रंग अधिक निखरकर सामने आता है। नफरत से भी जो इसका अध्ययण करता है वह उसको अपना बना लेता है। जितना इसका विरोद्ध किया जाए उतनी ही शक्ति से इस्लाम उभरकर सामने आता है।
आज युरोप में इस्लाम बहुत तेजी से फैल रहा है जिन इलाकों में जितनी कडाई से इस्लाम के विरूद्ध प्रोपगेंण्डा होरहा है वहां उतनी ही तेजी से इस्लाम कबूल किया जा रहा है।
युरोप में सभी जानना चाहते हैं कि इस्लाम को आतंक के साथ क्यूँ जोडा जाता है फिर वह अध्ययण करते हैं ऐसा ही इस नेता के साथ हुआ । डेनियल स्टेच मीनारों के विरोध और इस्लाम दुशमनी में कुरआन मजीद का अध्ययण किया जिससे इस्लाम को समझ सके। तब उसके दिमाग में केवल इस्लाम धर्म में कीडे निकालना था। वह इस्लाम में मीनारों की हकीकत भी जानना चाहता था ताकि मीनार मुखलिफ आन्दोलन में शक्ति डाल सके और मुसलमानों और मीनारों से होने वाले खतरों से स्वीटजर्लेंड की जन्ता का खबरदार कर सके लेकिन हुआ इसका उल्टा। जैसे-जैसे वह कुरआन और इस्लामी शिक्षाओं का अध्ययण करता गया, वह उसके दिल और दिमाग पर छाते गये। उसके दिल और दिमाग से गुनाह और बुत-परस्ती की तह हटती गयी। न उसे तीन खुदाओं पर विश्वास न रहा।
डेनियल स्टेच का कहना है कि वह पहले पाबन्दी से बाईबिल पढा करता था और चर्च जाया करता था लेकिन अब वह कुरआन पढता है और पांचों समय की नमाज अदा करता है। उसे इस्लाम में जिन्दगी के तमाम सवालात का जवाब मिल गया जो वह ईसाइयत में कभी नहीं पा सकता था। वह जो सुन्दर मस्जिद युरोप में बनाना चाहते हैं उसके लिए कुछ दौलतमन्दों ने उनकी साहयता करने का वचन दिया है लेकिन साथ ही यही भी कह दिया कि इस्लाम की महानता के लिए मीनारों और गुम्बदों के सहारे की आवश्यकता नहीं है। मुल्क का कानून मीनारों पर ही पाबन्दी लगा सकता है दिल और दिमाग पर नहीं।

more detail ''Member of the Swiss Political Party that Pushed for Minaret Ban Converts to Islam''

urdu

सुब्‍हान अल्‍लाह

Thursday, January 7, 2010

औरंगज़ेब ने मन्दिर तोडा तो मस्जिद भी तोडी लेकिन क्यूं? aurangzeb

तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना। कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।। --- जब में(पाण्डेय) इलाहाबाद नगरपालिका का चेयरमैन था (1948 ई. से 1953 ई. तक) तो मेरे सामने दाखिल-खारिज का एक मामला लाया गया। यह मामला सोमेश्वर नाथ महादेव मन्दिर से संबंधित जायदाद के बारे में था। मन्दिर के महंत की मृत्यु के बाद उस जायदाद के दो दावेदार खड़े हो गए थे। एक दावेदार ने कुछ दस्तावेज़ दाखिल किये जो उसके खानदान में बहुत दिनों से चले आ रहे थे। इन दस्तावेज़ों में शहंशाह औरंगज़ेब के फ़रमान भी थे। औरंगज़ेब ने इस मन्दिर को जागीर और नक़द अनुदान दिया था। मैंने सोचा कि ये फ़रमान जाली होंगे। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हो सकता है कि औरंगज़ेब जो मन्दिरों को तोडने के लिए प्रसिद्ध है, वह एक मन्दिर को यह कह कर जागीर दे सकता हे यह जागीर पूजा और भोग के लिए दी जा रही है। आखि़र औरंगज़ेब कैस बुतपरस्ती के साथ अपने को शरीक कर सकता था। मुझे यक़ीन था कि ये दस्तावेज़ जाली हैं, परन्तु कोई निर्णय लेने से पहले मैंने डा. सर तेज बहादुर सप्रु से राय लेना उचित समझा। वे अरबी और फ़ारसी के अच्छे जानकार थे। मैंने दस्तावेज़ें उनके सामने पेश करके उनकी राय मालूम की तो उन्होंने दस्तावेज़ों का अध्ययन करने के बाद कहा कि औरंगजे़ब के ये फ़रमान असली और वास्तविक हैं। इसके बाद उन्होंने अपने मुन्शी से बनारस के जंगमबाडी शिव मन्दिर की फ़ाइल लाने को कहा। यह मुक़दमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में 15 साल से विचाराधीन था। जंगमबाड़ी मन्दिर के महंत के पास भी औरंगज़ेब के कई फ़रमान थे, जिनमें मन्दिर को जागीर दी गई थी। इन दस्तावेज़ों ने औरंगज़ेब की एक नई तस्वीर मेरे सामने पेश की, उससे मैं आश्चर्य में पड़ गया। डाक्टर सप्रू की सलाह पर मैंने भारत के पिभिन्न प्रमुख मन्दिरों के महंतो के पास पत्र भेजकर उनसे निवेदन किया कि यदि उनके पास औरंगज़ेब के कुछ फ़रमान हों जिनमें उन मन्दिरों को जागीरें दी गई हों तो वे कृपा करके उनकी फोटो-स्टेट कापियां मेरे पास भेज दें। अब मेरे सामने एक और आश्चर्य की बात आई। उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर, चित्रकूट के बालाजी मन्दिर, गौहाटी के उमानन्द मन्दिर, शत्रुन्जाई के जैन मन्दिर और उत्तर भारत में फैले हुए अन्य प्रमुख मन्दिरों एवं गुरूद्वारों से सम्बन्धित जागीरों के लिए औरंगज़ेब के फरमानों की नक़लें मुझे प्राप्त हुई। यह फ़रमान 1065 हि. से 1091 हि., अर्थात 1659 से 1685 ई. के बीच जारी किए गए थे। हालांकि हिन्दुओं और उनके मन्दिरों के प्रति औरंगज़ेब के उदार रवैये की ये कुछ मिसालें हैं, फिर भी इनसे यह प्रमाण्ति हो जाता है कि इतिहासकारों ने उसके सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, वह पक्षपात पर आधारित है और इससे उसकी तस्वीर का एक ही रूख सामने लाया गया है। भारत एक विशाल देश है, जिसमें हज़ारों मन्दिर चारों ओर फैले हुए हैं। यदि सही ढ़ंग से खोजबीन की जाए तो मुझे विश्वास है कि और बहुत-से ऐसे उदाहरण मिल जाऐंगे जिनसे औरंगज़ेब का गै़र-मुस्लिमों के प्रति उदार व्यवहार का पता चलेगा। औरंगज़ेब के फरमानों की जांच-पड़ताल के सिलसिले में मेरा सम्पर्क श्री ज्ञानचंद और पटना म्यूजियम के भूतपूर्व क्यूरेटर डा. पी एल. गुप्ता से हुआ। ये महानुभाव भी औरंगज़ेब के विषय में ऐतिहासिक दृस्टि से अति महत्वपूर्ण रिसर्च कर रहे थे। मुझे खुशी हुई कि कुछ अन्य अनुसन्धानकर्ता भी सच्चाई को तलाश करने में व्यस्त हैं और काफ़ी बदनाम औरंगज़ेब की तस्वीर को साफ़ करने में अपना योगदान दे रहे हैं। औरंगज़ेब, जिसे पक्षपाती इतिहासकारों ने भारत में मुस्लिम हकूमत का प्रतीक मान रखा है। उसके बारें में वे क्या विचार रखते हैं इसके विषय में यहां तक कि ‘शिबली’ जैसे इतिहास गवेषी कवि को कहना पड़ाः तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना। कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।। औरंगज़ेब पर हिन्दू-दुश्मनी के आरोप के सम्बन्ध में जिस फरमान को बहुत उछाला गया है, वह ‘फ़रमाने-बनारस’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह फ़रमान बनारस के मुहल्ला गौरी के एक ब्राहमण परिवार से संबंधित है। 1905 ई. में इसे गोपी उपाघ्याय के नवासे मंगल पाण्डेय ने सिटि मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया था। एसे पहली बार ‘एसियाटिक- सोसाइटी’ बंगाल के जर्नल (पत्रिका) ने 1911 ई. में प्रकाशित किया था। फलस्वरूप रिसर्च करनेवालों का ध्यान इधर गया। तब से इतिहासकार प्रायः .......... More More More Ex-governor Prof. B.N. Pandey research

Tuesday, January 5, 2010

एक व्यक्ति 125 बार बलात्कार करता है लेकिन उसके विरुद्ध मुकदमा चलने का अवसर केवल एक बार ही आता है!

एक व्यक्ति 125 बार बलात्कार की घटनाओं में लिप्त हो तो केवल एक बार ही उसे सज़ा दी जाने की संभावना हैं बहुत से लोग इसे अच्छा जुआ समझेंगे रिपोर्ट से यह भी अंदाज़ा होता है की सज़ा दिए जाने वालों में से केवल 50 प्रतिशत लोगों को एक साल से कम की सज़ा दी गयी है हालाँकि अमेरिकी कानून के मुताबिक सात साल की सज़ा होनी चाहिए उन लोगों के सम्बन्ध में जो पहली बार सज़ा के दोषी पाए जातें हैं, जज़ नरम पद जाते हैं!

इस्लामी क़ानून में बलात्कार की सज़ा मौत है!!!

बहुत से लोग इसे निर्दयता कह कर इस दंड पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कुछ का तो कहना है कि इस्लाम एक जंगली धर्म है मैंने उन जैसे कई व्यक्तियों से एक सवाल पूछा था - सीधा और सरल कोई आपकी माँ या बहन के साथ बलात्कार करता है और आपको न्यायधीश बना दिया जाये और बलात्कारी को सामने लाया जाये तो उस दोषी को आप कौन सी सज़ा सुनाएँगे ? मुझे प्रत्येक से एक ही जवाब सुनने को मिला- उसे मृत्यु दंड दिया जाये कुछ ने कहा कि उसे कष्ट दे दे कर मारना चाहिए मेरा अगला प्रश्न था अगर कोई व्यक्ति आपकी माँ, पत्नी अथवा बहन के साथ बलात्कार करता है तो आप उसे मृत्यु दंड देना चाहते हैं लेकिन यही घटना किसी और कि माँ, पत्नी या बहन के साथ होती है तो आप कहते हैं मृत्युदंड देना जंगलीपन है इस स्तिथि में यह दोहरा मापदंड क्यूँ?


पश्चिमी समाज औरतों को ऊपर उठाने का झूठा दावा करता है!!!
औरतों की आज़ादी का पश्चिमी दावा एक ढोंग है, जिनके सहारे वो उनके शरीर का शोषण करते हैं, उनकी आत्मा को गंदा करते हैं और उनके मान सम्मान को उनसे वंचित रखते हैं पश्चिमी समाज दावा करता है की उसने औरतों को ऊपर उठाया इसके विपरीत उन्होंने उनको रखैल और समाज की तितलियों का स्थान दिया है, जो केवल जिस्मफरोशियों और काम इच्छुओं के हांथों का एक खिलौना है जो कला और संस्कृति के रंग बिरंगे परदे के पीछे छिपे हुए हैं!!!


अमेरिका में बलात्कार की दर सबसे ज़्यादा है

अमेरिका को दुनियाँ का सबसे उन्नत देश समझा जाता है सन 1990 ई. की FBI रिपोर्ट से पता चलता है कि अमेरिका में उस साल 1,02555 बलात्कार की घटनाएँ दर्ज की गयी रिपोर्ट में यह बात भी बताई गयी है कि इस तरह की कुल घटनाओं में से केवल 16 प्रतिशत ही प्रकाश में आ पाई हैं इस प्रकार 1990 ई. की बलात्कार की घटना का सही अंदाज़ा लगाने के लिए उपरोक्त संख्या को 6.25 गुना करके जो योग सामने आता है वह है 6,40,968 इस पूरी संख्या को 365 दिनों में बनता जाये तो प्रतिदिन के लिहाज से 1756 संख्या सामने आती है


एक दूसरी रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में प्रतिदिन 1900 घटनाएँ पेश आती हैं

Nationl Crime Victimization Survey Bureau of Justice Statistics (U.S. of Justice) के अनुसार 1996 में 3,07000 घटनाएँ दर्ज हुईं लेकिन सही घटनाओं की केवल 31 प्रतिशत ही घटनाएँ दर्ज हुईं इस प्रकार 3,07000x 3,226 = 9,90,322 बलात्कार की घटनाएँ सन 1996 में हुईं ज़रा विचार करें हर 32 सेकंड में एक बलात्कार होता है


ऐसा लगता है कि अमेरिकी बलात्कारी बड़े निडर है

FBI की 1990 की रिपोर्ट यह बताती है कि बलात्कार की घटनाओं में केवल 10 प्रतिशत बलात्कारी ही गिरफ्तार किया जा सके हैं जो कुल संख्या का 1.6 प्रतिशत है बलात्कारियों में से 50 प्रतिशत को मुकदमें से पहले ही रिहा कर दिया गया इसका मतलब यह हुआ कि केवल 0.8 प्रतिशत बलात्कारियों के विरुद्ध ही मुकदमा चलाया जा सका


दुसरे शब्दों में अगर एक व्यक्ति 125 बार बलात्कार की घटनाओं में लिप्त हो तो केवल एक बार ही उसे सज़ा दी जाने की संभावना हैं बहुत से लोग इसे अच्छा जुआ समझेंगे रिपोर्ट से यह भी अंदाज़ा होता है की सज़ा दिए जाने वालों में से केवल 50 प्रतिशत लोगों को एक साल से कम की सज़ा दी गयी है हालाँकि अमेरिकी कानून के मुताबिक सात साल की सज़ा होनी चाहिए उन लोगों के सम्बन्ध में जो पहली बार सज़ा के दोषी पाए जातें हैं, जज़ नरम पद जाते हैं


ज़रा विचार करें एक व्यक्ति 125 बार बलात्कार करता है लेकिन उसके विरुद्ध मुकदमा चलने का अवसर केवल एक बार ही आता है और फिर पचास प्रतिशत लोगों को जज़ की नरमी का फायेदा मिल जाता है और एक साल से भी कम मुद्दत की सज़ा किसी ऐसे बलात्कारी को मिल पाती है जिस पर यह अपराध सिद्ध हो चूका हो



बलात्कार की सज़ा मौत: लाल कृष्ण आडवानी

हालाँकि मैं श्री लाल कृष्ण आडवानी जी की अन्य नीतियों और विचार से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ लेकिन मैं सहमत हूँ लाल कृष्ण आडवानी के इस विचार से कि बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देनी चाहिए उन्होंने यह मांग उठाई थी कि बलात्कारी को मृत्युदंड दिया जाना चाहिए सम्बंधित खबर पढें...




इस्लामी कानून निश्चित रूप से बलात्कार की दर घटाएगा
स्वाभाविक रूप से ज्यों ही इस्लामिक कानून लागू किया जायेगा तो इसका परिणाम निश्चित रूप से सकारात्मक होगा अगर इस्लामिक कानून संसार के किसी भी हिस्से में लागू किया जाये चाहे अमेरिका हो या यूरोप, ऑस्ट्रेलिया हो या भारत, समाज में शांति आएगी

-सलीम खान

Saturday, January 2, 2010

अमरीकी करोडपती और माइकल जैक्सन के वकील ने किया इस्लाम कबूल!

सुबहान अल्लाह! प्यारे नबी जिन्हें बचपन में ही अमीन यानी इमानदार कीउपाधि मिल गयी थी, उनका आफाकी और लासानी सदाक़त यानी सच्चाई का परचम आखिर फिर एक अमरीकी ने बुलंद किया.




मार्क शाफ्फेर न सिर्फ करोड़पति हैं बल्कि अमरीका के मशहूर वकील भी हैं.माशा अल्लाह अब मुसलमान हो गए हैं. सऊदी अरब में शनिवार,17 अक्तूबर 2009 को उन्होंने अपने इस्लाम स्वीकार करने की घोषणा की। मार्क सऊदी अरब में एक छुट्टी पर थे और उन्हों ने रियाद, आभा और जेद्दा जैसे कुछ प्रसिद्ध शहरों की सैर की।


Mark is a well-known millionaire and also a practiced lawyer in Los Angeles, specializing in cases of civil laws. The last big case he handled was the case of the famous American pop singer, Michael Jackson, a week before he passed away.
After Mark declared his Islamic faith, he had the chance to express his happiness in Al-Riyadh Newspaper saying: I could not express my feeling at this time but I am being reborn and my life has just started… then he added: I am very happy.



May Allah bless Mark and make him an obedient Muslim.
[आमीन]