Wednesday, September 30, 2009

मानवता का धर्म है इस्लाम: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद

मुझे पता चला कि जिस धर्म को संसार इस्लाम के नाम से जानता है वास्तव में वही धार्मिक मतभेद के प्रश्न का वास्तविक समाधान है। इस्लाम दुनिया में कोई नया धर्म स्थापित नहीं करना चाहता बल्कि उसका आंदोनक स्वंय उसके बयान के अनुसार मात्र यह है कि संसार में प्रत्येक धर्म के मानने वाले अपनी वास्तविक और शुद्ध सत्य पर आ जाएं और बाहर से मिलाई हुई झूटी बातों को छोड़ दें- यदि वह ऐसा करें तो जो आस्था उनके पास होगी उसी का नाम क़ुरआन की बोली में इस्लाम है।

क़ुरआन कहता है कि खुदा की सच्चाई एक है, आरम्भ से एक है, और सारे इनसानों और समुदायों के लिए समान रूप में आती रही है, दुनिया का कोई देश और कोई कोना ऐसा नहीं जहाँ अल्लाह के सच्चे बन्दे न पैदा हुए हों और उन्होंने सच्चाई की शिक्षा न दी हो, परन्तु सदैव ऐसा हुआ कि लोग कुछ दिनों तक उस पर क़ाएम रहे फिर अपनी कल्पना और अंधविश्वास से भिन्न भिन्न आधुनिक और झूटी बातें निकाल कर इस तरह फैला दीं कि वह ईश्वर की सच्चाई इनसानी मिलावट के अनदर संदिग्ध हो गई।

अब आवश्यकता थी कि सब को जागरुक करने के लिए एक विश्य-व्यापी आवाज़ लगाई जाए, यह इस्लाम है। वह इसाई से कहता है कि सच्चा इसाई बने, यहूदी से कहता है कि सच्चा यहूदी बने, पारसी से कहता है कि सच्चा पारसी बने, उसी प्रकार हिन्दुओं से कहता है कि अपनी वास्तविक सत्यता को पुनः स्थापित कर लें, यह सब यदि ऐसा कर लें तो वह वही एक ही सत्यता होगी जो हमेशा से है और हमेशा सब को दी गई है, कोई समुदाय नहीं कह सकता कि वह केवल उसी की सम्पत्ती है।

उसी का नाम इस्लाम है और वही प्राकृतिक धर्म है अर्थात ईश्वर का बनाया हुआ नेचर, उसी पर सारा जगत चल रहा है, सूर्य का भी वही धर्म है, ज़मीन भी उसी को माने हुए हर समय घूम रही है और कौन कह सकता है कि ऐसी ही कितनी ज़मीनें और दुनियाएं हैं और एक ईश्वर के ठहराए हुए एक ही नियम पर अमल कर रही हैं।

अतः क़ुरआन लोगों को उनके धर्म से छोड़ाना नहीं चाहता बल्कि उनके वास्तविक धर्म पर उनको पुनः स्थापित कर देना चाहता है। दुनिया में विभिन्न धर्म हैं, हर धर्म का अनुयाई समझता है कि सत्य केवल उसी के भाग में आई है और बाक़ी सब असत्य पर हैं मानो समुदाय और नस्ल के जैसे सच्चाई की भी मीरास है अब अगर फैसला हो तो क्यों कर हो? मतभेद दूर हो तो किस प्रकार हो? उसकी केवल तीन ही सूरतें हो सकती हैं एक यह कि सब सत्य पर हैं, यह हो नहीं सकता क्योंकि सत्य एक से अधिक नहीं और सत्य में मतभेद नहीं हो सकता, दूसरी यह कि सब असत्य पर हैं इस से भी फैसला नहीं होता क्योंकि फिर सत्य कहाँ है? और सब का दावा क्यों है ? अब केवल एक तीसरी सूरत रह गई अर्थात सब सत्य पर हैं और सब असत्य पर अर्थात असल एक है और सब के पास है और मिलावट बातिल है, वही मतभेद का कारण है और सब उसमें ग्रस्त हो गए हैं यदि मिलावट छोड़ दें और असलियत को परख कर शुद्ध कर लें तो वह एक ही होगी और सब की झोली में निकलेगी। क़ुरआन यही कहता है और उसकी बोली में उसी मिली जुली और विश्वव्यापी सत्यता का नाम “इस्लाम” है।

Sunday, September 27, 2009

उलमाओं का फतवा चाँद तारा मुसलमानों का निशान नहीं है

आज हमारी मस्जिदों और घरों में चाँद तारे का ये निशान आम है। आज के मुस्लिम इस निशान को इस्लाम का निशान समझते हैं और लोग भी ऐसा ही मानने लगे हें। अब ये माना जाता है कि जैसे ईसाइयों का निशान क्रास है, हिन्दुओं का निशान ओम या स्वास्तिक है इसी तरह मुसलमानों का निशान चाँद तारा है, आज शायद ही कोई मस्जिद ऐसी हो जिसके गुम्बद या मीनार की चोटी पर चाँद तारे का ये निशान मौजूद न हो।मैने इस बारे में सोचा और इस बात पर शोध किया कि क्या वाकई ये निशान इस्लाम के पैगम्बर का है या अल्लाह के दीन से इसका कोई ताल्लुक है । मुझे तब हैरत हुयी जब मैनें इस निशान की तस्दीक के लिए कुरआन और हदीस में इसे तलाश किया । मुझे कोई सनद न मिली। अलबत्ता ये जरूर पता चला कि इब्राहीम अलै. ने चाँद तारे को पूजने वालों के खिलाफ ज़िहाद किया था। और मूसा अलै. ने भी और अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्‍ल. ने भी इनकी मूर्तियों को तुडवाया था। मुझे 22000 साल पूराने सबूत मिले हैं जिनसे साबित होता है कि ये गैरूल्लाह का निशान है न कि इस्लाम का।शोध के बाद मैने उलेमाओं से 14 सवाल पूछे जिन पर उन्होनें फौरी तौर पर कुछ जवाब दिए है और तफसील से जवाब देने के लिए उलेमा इस पर गहन शोध कर रहे हैं । -- मुहम्‍मद उमर (उमर सेफ)उलेमा को लिखे खत पर मज़ाहिरउलूम के उलेमाओं के जवाबः

असलामुअलैकुम, जनाब मेरे जेहन में कुछ सवाल उठे हैं ? आप से दरख्वास्त है कि मेरे सवालों पर गौर करें और जवाब में फतवा जारी करें, अल्लाह हम सब पर रहम करे और सीधा रास्ता दिखाए।

सवाल 1. क्या चाँद , चाँद के साथ तारा, चाँद के साथ सूरज या सूरज के निशान का इस्लाम से कोई ताल्लुक है ?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब- नही

सवाल 2. क्या चाँद , चाँद के साथ तारा,अण्डे के उपर चाँद , चाँद के साथ सूरज या सूरज के निशान का नमाज से कोई ताल्लुक है?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब-
नही

सवाल 3. क्या चाँद, चाँद के साथ तारा,अण्डे के उपर चाँद, चाँद के साथ सूरज या सूरज के निशान का मस्जिदों से कोई ताल्लुक है? और क्या इस निशान से दुआऐं में कुछ असर बढता है या घटता है?
मज़ाहिरउलूम के मूफतियों का जवाब-
नही

सवाल 4. क्या हज़रत मुहम्मद सल्‍ल. का चाँद , चाँद के साथ तारा, अण्डे के उपर चाँद , चाँद के साथ सूरज या सूरज के निशान के इस्तेमाल से कोई ताल्लुक है? और क्या अल्लाह के नबी ने इन निशनों को कभी खास अहमियत दी?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब- ऐसा भी हमारी नज़र से कहीं नही गुज़रा।

सवाल 5. क्या किसी ख़लिफा या ईमाम ने चाँद , चाँद के साथ तारा,अण्डे के उपर चाँद , चाँद के साथ सूरज या सूरज के निशान का इस्तेमाल किया ? और क्या कभी इन निशानों को खास तरजीह दी ?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब- ऐसा भी हमारी नज़र से कहीं नही गुज़रा।

सवाल 6. क्या हजुरेपाक सल्‍ल. ,या किसी खलीफा के ज़माने में उनके झण्डे पर चाँद , चाँद के साथ तारा,अण्डे के उपर चाँद , चाँद के साथ सूरज या सूरज का निषान हुआ करता था ? क्या नबी की मुहर पर चाँद तारा बना था?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब- ऐसा भी हमारी नज़र से कहीं नही गुज़रा।

सवाल 7. क्या चांद, चांद के साथ तारा,अण्डे के उपर चाँद , चाँद के साथ सूरज या सूरज के निशान को खास अहमियत देने के लिए अल्लाह ने कुरआन में कोई हुक्म जारी किया है? अगर किया है तो किस सूराः की किस आयत में जिक्र है। और कोई हुक्म नही है तो हमारा इन्हे खास मानना किस तरह का गुनाह है और क्या बिना सनद के किसी को खास मानने से अल्लाह नाराज नही होगा ? क्या आगे चलकर हमारी मस्जिदें शिर्कगाहें नही बन जाऐंगी?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब- ऐसा कुछ नही है।

सवाल 8. क्या अल्लाह के रसूल ने चाँद , चाँद के साथ तारा,अण्डे के उपर चाँद , चाँद के साथ सूरज या सूरज के निशान को खास अहमियत देने के लिए कोई हुक्म जारी किया है? अगर किया है तो वो क्या है?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब- ऐसा कोई हुक्म हमारे इल्म में नही है।

सवाल 9. आज हमारी मस्जिदों और घरों में मौजूद चटाइयों और मुसल्लों के उपर लाल नीले व अन्य रंगों में गुम्बद के उपर चाँद तारे (उज्जा, षुक्र ग्रह) के निशान बने हैं एक नमाजी के सामने 5 निशान बनें रहते है। जब नमाजी नमाज पढतें हैं तो निगाह सज्दे करने की जगह पर रखते हैं। और नमाजी नमाज के पूरे वक्त सामने बने चाँद तारा को एकटक देखता रहता है और जब रूकु में होता है तब भी निगाह चाँद तारे पर होती है और जब सज्दा करते हैं तो पेशानी ठीक चाँद तारे के निशान पर रखते हैं।क्या नमाज पढते वक्त चाँद तारे के निशान को देखते रहने से अल्लाह कुछ ज्यादा राजी होता है या नाराज?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब- चटाई और मुसल्लों पर इस किस्म की कोई चीज ना बनी हो ताकि मजकूरा अलामात में से किसी किस्म का इहाम(भ्रम) ही पैदा ना हो,चटाई या मुसल्ला बिल्कुल सादा बगैर किसी मजहबी या गैर मजहबी नक्‍शो निगार के होने को शरअन पसन्द किया गया है। ताकि नमाज़ी को जेहनी उलझन ही पैदा ना हो। नमाज पढते वक्त चाँद सितारे को देखते रहने से अल्लाह कुछ ज्यादा राजी होता है ऐसा तो कोई दीन से जाहिल ही समझता होगा।

सवाल 10. क्या चाँद तारे के खास निशान पर पेशानी रखने पर सज्दा कबूल हो जाता है? और नमाज में कोई खलल नही पडता है?
(No Answer)

सवाल 11. और अगर खलल नही पडता तो क्या सज्दे की जगह पर दूसरे आसमानी चीजों जैसे सूरज, बुध ग्रह, शनि ग्रह, मंगल ग्रह, धु्रव तारा, सप्त रिशी , या 27 नक्षत्रों या बारह राशियों या स्वातिक या ओम आदि के निशान वाले चटाई पर सज्दा किया जा सकता है या नही? और नही किया जा सकता तो क्या अल्लाह को चाँद तारे के छोडकर बाकि कोई भी निशान पसन्द नही है?
मज़ाहिरउलूम के मुफत‍ियों का जवाब- जब चांद सितारे के निशानात पर पेशानी रखने से उनकी इबादत या ताज़ीम (इज्ज़त देना) मकसूद ना हो , जैसा कि मसाजिद की जानमाजों पर सज्दा करते वक्त होत
ा है । तो इस तरह सज्दा हो जाता है और नमाज में कोई खलल नही पडता और अगर चाँद सितारे या दूसरे मजाहिब की चीजों के खास निशानात पर पेशानी रखने से मकसूद बिज्जात (उन्हीं की इबादत) वो ही निशानात हों और उन्ही को माबूद समझकर सज्दा करें जैसा कि इन जिक्र की हुयी चीजों के पुजारियों का तरीका है,तो ऐसा करना बिला शुब्हा शिर्क होगा जो कतन हराम है और ममनू (मना है) है। मगर ध्यान रहे, कि इससे ये गलतफहमी न होनी चाहिए कि मज़कूरा (सवाल में जिक्र किए गए) आसमानी या गैर आसमानी चीजों के निशानात को बगैर सज्दे की नियत के सज्दा किया जा सकता है। या चाँद तारे वगैराह के निशान वाली चटाई होनी चाहिए।


सवाल 12 हमारी मस्जिदों पर बने इन निशानों का क्या करें और अगर ये सब गुनाह और शिर्क है तो ऐसी चटाईयों का क्या करें क्या उनके साथ वही सलूक करें जो अल्लाह के रसूल ने काबे में रखे लगभग 360 बुतों के निशानों के साथ किया था ?
मज़ाहिरउलूम के मुफतियों का जवाब- ऐसी चटाईयों (जिन पर चाँद सितारे बने हुए हों) का जायज इस्तेमाल करें उनकी बिज्जात ताज़ीम ना की जाए इनके उपर पैर वगैराह रखने से ऐहतराज व इज्तीनाब न किया जाए । अलबत्ता इन चाँद सितारों वाली चटाइयों के साथ वो सलूक तो ना करें जो अल्लाह तआला के रसूल सल्‍ल. ने काबा में रखे 360 बुतों के साथ किया था .
दारुल उलूम देवबंद देवबन्द के उलेमाओं का जवाब


अल जवाब बिल्लाही तौफीक।
आपने एक से लेकर चौदह नम्बरों तक जिस कदर सवाल किए हैं कुरआन हदीस से इसका कोई तआल्लुक नही है, ना ही इस्लामी हुक्मरानों के यहाँ ऐसे निशानात को हमारे इल्म में अहमियत दी गयी । चाँद सितारों के निशानात जो 7000 साल पहले उज्जा देवी के निशानात या गैरउल्लाह की परस्तिश करने वालों के मज़हबी निशानात बताए गए हैं अव्वल तो मुस्तनद तारीख से उसका सबूत होना चाहिए अगर मज़हबी तारीख में मुस्तनद तरीके पर इसका सबूत मिलता है तो हमें ऐसे धार्मिक निशानात से बचना चाहिए जिसमें दूसरे धर्म वालों की मज़हबी तकलीद (पैरवी करना) या मुशाबहत(हमशक्ली) लाज़िम आए। अनुवादक मुफती -फारूक कासमी

Thanks Mr. Umar Saif for this Fundamental Research work (tgs.ngo@gmail.com)

एक इसाई पादरी जो मुसलमान हो गया

इब्राहिम खलील अहमद जिनका पुराना नाम खलील फिलोबस था, पहले इजिप्ट के कॉप्टिक पादरी थे। फिलोबस ने धर्मशास्त्र में प्रिंसटोन यूनिवर्सिटी से एम ए किया। इस्लाम को गलत रूप में पेश करने के मकसद से फिलोबस ने इसका अध्ययन किया। वे इस्लाम में कमियां ढूढना चाहते थे लेकिन हुआ इसका उलटा। वे इस्लाम से बेहद प्रभावित हुए और उन्होने अपने चार बच्चों के साथ इस्लाम कबूल कर लिया। जानिए खलील इब्राहिम आखिर कैसे आए इस्लाम की गोद में?
मैं १३जनवरी १९१९को अलेक्जेन्डेरिया में पैदा हुआ था। मैंने सैकण्डरी तक की शिाक्षा अमेरिकन मिशन स्कूल से हासिल की। १९४२ में डिप्लोमा हासिल करने के बाद मैंने धर्मशास्र में स्पेशलाइजेशन के लिए यूनिवर्सिटी में एडमिशान लिया। धर्मशास्र में प्रवेश लेना आसान नहीं था। चर्च की खास सिफारिश पर ही इस विभाग में एडमिशन लिया जा सकता था और इसके लिए एक मुशिकल परीक्षा से भी गुजरना पडता था। मेरे लिए अलेक्जेन्डेरिया अलअटारिन चर्च ने सिफारिश की और लॉअर इजिप्ट की चर्च असेम्बली ने भी मेरा इम्तिहान लिया। असेम्बली ने धर्म के क्षेत्र में मेरी योग्यता का अंकन किया। नोडस चर्च असेम्बली ने भी मेरी सिफारिश की। इस असेम्बली में सूडान और इजिप्ट के पादरी थे। कुल मिलाकर मुझे धर्मशास्र विभाग में एडमिशान के लिए कडे इम्तिहानों से गुजरना पडा।१९४४ में बोर्डिंग स्टूडेंट के रूप में धर्मशास्र विभाग में एडमिशान के बाद मैंने १९४८ तक ग्रेजुएशन के दौरान अमेरिकन और इजिप्टियन टीचर्स से अध्ययन किया।
शिक्षा पूरी होने पर मुझे यरूशलम में नियुक्त किया जाना था लेकिन इस्राइल और फिलीस्तीन के बीच युध्द छिड़ जाने के कारण में वहां नहीं गया और मुझे उसी साल इजिप्ट के आसना में भेज दिया गया। इसी साल मैंने अमेरिकन यूनिवर्सिटी से थिसिस के लिए अपना पंजीयन कराया। मेरे थिसिस का सब्जेक्ट था-‘मुसलमानों के बीच ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां।’ इस्लाम से मेरा परिचय तब हुआ था जब मैंने धर्मशस्र का अध्ययन शुरू किया था। वहां मैंने इस्लाम और मुसलमानों के विशवास और विचारधारा को डगमगाने और भ्रमित करने व उनके धर्म से संबंधित उनके बीच गलतफहमियां पैदा करने के तरीकों का अध्ययन किया।मैंने अमेरिका की प्रिंसटोन यूनिवर्सिटी से १९५२ में एम ए किया। फिर मैं एसूट में धर्मशास्र विभाग में टीचर नियुक्त हुआ। मैं स्टूडेंट को इस्लाम से जुड़ी वे बातें ही पढ़ाता था जो ईसाई मिशनरी मुसलमानों के खिलाफ आम लोगों के बीच बताती थींं। इस्लाम विरोधी ताकतों की ओर से फैलाई जाने वाली झूठी भा्रंतियों को बताकर इस्लाम का गलत रुप स्टूडेंट के सामने पेश करता था। इस्लाम संबंधी अपनी इस क्लास के दौरान मुझे महसूस होने लगा कि मुझे इस्लाम संबंधी अपनी जानकारी को बढाना चाहिए।
मैंने तय किया कि मुझे ईसाई मिशनरियों की इस्लाम के खिलाफ लिखी किताबों के अलावा मुस्लिम लेखकों की किताबें भी पढनी चाहिए। मैंने कुरआन को समझकर पढने का भी निर्णय किया। ज्यादा से ज्यादा इस्लाम की जानकारी हासिल करने के पीछे मेरा मकसद इस्लाम में और खामियां निकालना था। इस अध्ययन का नतीजा मेरी सोच के बिल्कुल उलट निकला। मैं अजीब कशमकश में फंस गया। मेरे मन में अंतरव्ंदव्द चलने लगा क्योंकि अब तक जो कुछ मैं इस्लाम की कमियां लोगों को बताता था ऐसा मैंने कुरआन के अध्ययन में नहीं पाया। मेरे आरोप मुझे निराधार लगने लगे। मैं इस सच्चाई का सामना करने से कतराता रहा और मैंने इस्लाम का नेगेटिव अध्ययन कराना जारी रखा।
१९५४ में मैं जर्मन स्विस मिशन के महासचिव के रूप में आसवान गया। वहां भी मुझे इस्लाम संबंधी भ्रांतियां पैदा करनी थी जो मेरे मिशन का हिस्सा थी। एक होटल में मिशनरी की ओर से कॉन्फ्रेस का आयोजन किया गया। इस मौके पर मैंने इस्लाम को लेकर कई भा्रंतियां पैदा की। अपने लेक्चर के अंत में मेरे मन में अंतव्र्दव्द शुरू हो गया। मैं अपनी इस भूमिका के बारे में सोचने लगा। मैं अपने आपसे सवाल करने लगा कि सच्चाई जानने के बावजूद मैं आखिर झूठ क्यों बोल रहा हूं? आखिर मैं सच्चाई से मुंह क्यों मोड़ रहा हूं? इसी कशमकश के बीच मैं कॉन्फ्रेस खत्म होने से पहले ही वहां से अपने घर के लिए रवाना हो गया। मैं मंथन करने लगा। इस बीच जब मैं एक पार्क की तरफ जा रहा था तो मैंने रेडियो में कुरआन की यह आयत सुनी- कह दो-मेरी ओर ईवर ने ज्ञान भेजा है कि जिन्नों के एक गिरोह ने कुरआन सुना, फिर जिन्नों ने कहा कि हमने एक मनभाता कुरआन सुना जो भलाई और सूझबूझ का मार्ग दिखाता है; इसलिए हम उस पर ईमान ले आए और अब हम कभी किसी को अपने रब का साझी नहीं ठहराएंगे। कुरआन ७२ :१-२
और यह कि जब हमने हिदायत की बात सुनी तो उस पर ईमान ले आए। अब जो कोई अपने रब पर ईमान लाएगा,उसे न तो किसी हक के मारे जाने का भय होगा और न किसी जुल्म ज्यादती का। कुरआन ७२ :१३
कुरआन की यह आयत सुनने के बाद उस रात मुझे सुकून का एहसास हुआ। घर पहंुचने के बाद मंै पूरी रात लाइब्रेरी में बेठकर कुरआन पढ़ता रहा। मेरी पत्नी ने मुझसे पूरी रात बैठे रहने का कारण पूछा लेकिन मैंने उससे मुझे अकेले छोड़ देने को कहा। मैं काफी देर तक कुरआन की इस आयत पर गौर व फिक्र करता रहा- यदि हमने इस कुरआन को किसी पर्वत पर भी उतार दिया होता तो तुम अवश्य देखते अल्लाह के भय से वह दबा हुआ और फटा जाता है। ये मिसालें हम लोगों के लिए इसलिए पेश करते हैं कि वे सोच विचार करें। कुरआन ५९:२१मैंने इन आयतों पर भी चिंतन किया-तुम ईमान वालों का दुशमन सब लोगों से बढकर यहूदियों और मुशरिकों को पाओगे और ईमान वालों के लिए मित्रता में सबसे निकट उन लोगों को पाओगे जिन्होने कहा कि -हम ईसाई हैं। यह इस कारण कि ईसाईयों में बहुत से धर्मज्ञाता और संसार त्यागी संत पाए जाते हैं। और इस कारण कि वे अहंकार नहीं करते। जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आखें आंसुओं से छलकने लगती हंै । इसका कारण यह है कि उन्होने सच्चाई को पहचान लिया है । वे कहते हैं-हमारे रब हम ईमान ले आए। इसलिए तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले। और हम अल्लाह पर और जो सत्य हमारे पास पहुंचा है उस पर ईमान क्यों नहीं लाएं,जबकि हमें उम्मीद है कि हमारा रब हमें अच्छे लोगों के साथ हमें जन्नत में दाखिल करेगा। कुरआन ५:८२-८४मैंने इन आयात पर भी गौर किया- तो आज इस दयालुता के अधिकारी वे लोग हैं जो उस रसूल उम्मी का अनुसरण करते हैं,जिसके बारे में वे अपने यहां तौरात और इंजील में लिखा पाते हैंं। और जो उन्हे भलाई का हुक्म देता है और बुराई से रोकता है। उनके लिए अच्छी स्वच्छ चीजों को हलाल और बुरी अस्वच्छ चीजों को हराम ठहराता है और उन पर से उनके वह बोझ उतारता है,जो अब तक उन पर लदे हुए थे। उन बन्धनों को खोलता है,जिनमें वे जकड़े हुए थे। अत जो लोग उस पर ईमान लाए, उसका सम्मान किया और उसकी सहायता की और उस हिदायत के मार्ग पर चले जो वो लेकर आए,तो ऐसे ही लोग सफलता प्राप्त करने वाले हैं।
कहो-ऐ लोगो! मैं तुम सबकी ओर उस अल्लाह का रसूल हूं जो आकाशों और धरती के राज्य का स्वामी है, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं,वही जीवन देता है और वही मौत देता है। अत अल्लाह और उसके रसूल,उस उम्मी नबी पर ईमान लाओ जो खुद अल्लाह और उसके कलाम पर ईमान रखता है। उसका अनुसरण करो,ताकि तुम सही राह पा लो। कुरआन ७:१५७-१५८
उस रात मैंने सच्चाई जान ली और फिर इस्लाम कबूल करने का फैसला कर लिया। सुबह मैंने अपने इस फैसले के बारे में अपनी पत्नी को बताया। मेरे तीन बेटे और एक बेटी हैं। मेरी पत्नी को यह एहसास होने पर कि मैं जल्दी ही इस्लाम कबूल करने जा रहा हूं तो उसने बिना देरी किए ईसाई मिशनरी के मुखिया से मदद मांगी और मुझे रोकने कोे कहा। मिशनरी के मुखिया स्विटजरलेंड के मॉन्सियोर शोविटस बहुत चतुर व्यक्ति थे। मॉन्सियोर के पूछने पर मैंने उनको साफ साफ बता दिया कि मैं अब इस्लाम अपनाना चाहता हूं, यह जानकर उन्होने मुझसे कहा कि ऐसा करने पर तुम्हे नौकरी से निकाल दिया जाएगा और इसके लिए तुम खुद जिम्मेदार बनोगे। मैंने तुरंत अपना इस्तीफा उनको पकड़ा दिया। उन्होने मुझ पर अपना फैसला वापस लेने का दबाव बनाया और मेरी मानसिकता बदलने की काफी कोशिश की लेकिन मैं अपने फैसले पर अटल था। मुझे अपने फैसले पर अडिग देख मॉन्सियोर ने मेरे बारे में अफवाह उड़ा दी कि मैं पागल हो गया हूं। फिर तो मुझे बेहद मुशिकलों का सामना करना पड़ा। मुसीबतों से परेशान होकर मैं आसवान छोड़कर वापस केअरो आ गया। केअरो में मेरा परिचय एक सम्मानीय और अच्छे प्रोफेसर से हुआ। उन्होने मेरे बारे में बिना कुछ जाने मुसीबतों और परेशानियों के दौर में मेरा साथ दिया। मैंने उनके सामने अपना परिचय एक मुस्लिम के रूप में दिया था हालांकि तब तक मैंने आफिसियल रूप से इस्लाम कबूल नहीं किया था। डॉ मुहम्मद अब्दुल मोनेम अल जमाल नाम के यह व्यक्ति कोसागार में सचिव थे। उनकी इस्लामिक अध्ययन में जबरदस्त दिलचस्पी थी और वे कुरआन का अमेरिकी अंगे्रजी में अनुवाद कराने के इच्छुक थे। उन्होने कुरआन के अनुवाद के लिए मुझसे मदद चाही क्योंकि मेरी अंग्रेजी अच्छी थी और मैं अमेरिकन यूनिवर्सिटी से एम ए कर चुका था। वे यह भी जानते थे कि मैं कुरआन,तोरात और बाइबिल का तुलनात्मक अध्ययन कर रहा हूंं। मैंने उनकी कुरआन के अनुवाद में मदद की।इस बीच जब डॉ जमाल को पता चला कि मैंने नौकरी छोड़ दी है और इन दिनों मैं बेरोजगार हूं तो उन्होने मुझे केअरो में ही नौकरी दिलाने में मेरी मदद की। और इस तरह मेरी गाड़ी फिर से पटरी पर आ गई। इस दौरान पत्नी से दूर रहने पर उसको लगा कि मैंने उसको भुला दिया है जबकि उससे दूरी इस बीच की उथल पुथल के कारण हुई थी। इस्लाम ग्रहण करने के ऐलान का इरादा मैंने कुछ वक्त के लिए टाल दिया क्योंकि मैं इससे उत्पन्न होने वाली स्थितियों से निपटने के लिए खुद को और मजबूत बनाना चाहता था। १९५५ में मैंने अपना इस्लामिक अध्ययन और विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन पूरा कर लिया। इस बीच मेरा जीवन सहज हो गया था। मैंने नौकरी छोड़कर स्टेशनरी निर्यात का बिजनेस शुरू कर दिया था। बिजनेस में मैंने अपनी जरूरत के मुताबिक अच्छा पैसा कमाया। इस तरह सैट होने के बाद मैंने इस्लाम कबूल करने और इसका ऐलान करने का निशचय किया। और फिर २५ दिसंबर १९५९ को मैंने इजिप्ट में अमेरिकन मिशान के मुखिया डॉ थॉमसन को टेलीग्राम के जरिए इस्लाम कबूल करने की जानकारी दी। मैंने डॉ जमाल को अपनी वास्तविक दास्तां बताई तो वे आशचर्यचकित हुए क्योंकि वे अब तक इससे अनजान थे। इस्लाम कबूल करने के ऐलान के साथ ही मेरे सामने नई तरह की परेशानियां आनी शाुरू हो गई। मिशानरी में मेरे साथ काम करने वाले मेरे पूर्व सात साथियों ने मुझ पर इस्लाम कबूल न करने का दबाव बनाया। मैं अपने इरादे पर अंिडग था। उन्होने मुझे मेरी पत्नी से अलग करने की धमकी दी। मैंने साफ कह दिया- वह अपना फैसला लेने के लिए आजाद है। मुझे मारने की धमकी दी गई।जब उनकी बातों का मुझ पर असर नहीं हुआ तो उन्होने मेरे पास मेरे एक पुराने खास दोस्त और मेरे साथ काम कर चुके सहकर्मी को भेजा। वह मेरे पास आकर रोने लगा। मैंने उसके सामने कुरआन की यह आयत पढ़ी- जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आंखें छलकने लगती हंै । इसका कारण यह है कि उन्होने सत्य को पहचान लिया है । वे कहते हैं -हमारे रब हम ईमान लाए। अत तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले। और हम अल्लाह पर और जो सत्य हमारे पास पहुंचा है उस पर ईमान क्यों नहीं लाएं,जबकि हमें उम्मीद है कि हमारा रब हमें अच्छे लोगों के साथ जन्नत में दाखिल करेगा। कुरआन ५:८३-८४ मैंने उससे कहा- कुरआन सुनने के बाद तुम्हे विनम्र होकर ई’वर के सामने झुक जाना चाहिए और सच्चे धर्म को तुम्हे भी अपना लेना चाहिए। अपनी बातों का असर न होता देख वह मुझे अकेला छोड़ चला गया। और फिर मैंने जनवरी १९६० में आधिकारिक रूप से इस्लाम कबूल करने का ऐलान कर कर दिया।
इस्लाम कबूल करने के ऐलान के करते ही मेरी पत्नी मुझे छोड़ गई और अपने साथ घर का सारा फर्नीचर ले गई। मेरे तीन बेटे और एक बेटी मेरे साथ रहे और उन्होने भी इस्लाम कबूल कर लिया। इस्लाम कबूल करने में सबसे ज्यादा उत्साहित मेरा बड़ा बेटा इसाक था जिसने अपना इस्लामिक नाम ओसामा रख लिया। ओसामा ने फिलोसोफी में डॉक्टरेट की और वह पेरिस की यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बन गया।घर छोड़ने के छह साल बाद मेरी पत्नी वापस लौट आई इस शार्त पर कि वह अपना धर्म नहीं छोड़ेगी। मैंने उसे अपना लिया क्योंकि इस्लाम में इसकी इजाजत थी। मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हे दबाव डालकर मुस्लिम नहीं बनाना चाहता, बल्कि चाहता हूं कि इस्लाम को समझने के बाद तुम ही इस मामले मेंं फैसला लो। कुछ वक्त बाद वह भी इस्लाम के मूल्यों में भरोसा करने लगी लेकिन अपने घर वालों के डर से इस्लाम अपनाने का ऐलान नहीं कर पाई। लेकिन हमारा व्यवहार उसके साथ मुस्लिम औरत की तरह है। वह रमजान के महीने के रोजे रखती है। मेरे सभी बच्चे भी रोजे रखते हैं और नमाज पढते हैं। मेरी बेटी नाजवा कWामर्स की स्टूडेंट है,बेटा जोसेफ डॉक्टर और जमाल इंजिनियर है। १९६१ से अब तक मैं इस्लाम पर और ईसाई मिशानरियों की इस्लाम के खिलाफ मुहिम पर कई किताबें लिख चुका हूं। १९७३ में मैंने हज किया। मैं इस्लाम पर तकरीर करता हूं। मैंने कई यूनिवर्सिटी और समाजसेवी संस्थाओं में सेमिनार का आयोजन किया। मैं अपना पूरा वक्त इस्लाम के लिए खर्च कर रहा हूं। कुरआन और पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहो अलेहेवस्सलम की जीवनी का अध्ययन करने पर इस्लाम के प्रति मेरा यकीन पुख्ता बनता गया। इस्लाम से जुड़ी सारी गलतफहमियां दूर हो गईंं। इस्लाम में एक ईश्वर की अवधारणा से मैं बेहद प्रभावित हुआ और मुझे इस्लाम की यह सबसे बड़ी खूबी लगी। अल्लाह एक है। उसका कोई साझी नहीं है। इस्लाम की इस अवधारणा से मैं उस एक ईश्वर का बन्दा बन गया जिसका कोई हमसर नहीं। एक ईश्वर में भरोसा व्यक्ति को खुद्दार बनाता है और समस्त मानव जाति को हर तरह की दासता से मुक्ति देता है और यही सही मायनों में आजादी है। मैं इस्लाम में माफी देने के नियम और ई’वर और बन्दे के बीच सीधे संबंध से बेहद प्रभावित हुआ। अल्लाह कहता है -कह दो - ऐ मेरे बन्दो जिन्होने अपने आप पर ज्यादती की है अल्लाह की दयालुता से निराशा न हो। निसंदेह अल्लाह सारे ही गुनाहों को माफ कर देता है। निशचय ही वह बड़ा क्षमाशील,अत्यन्त दयावान है। ३९: ५३

Saturday, September 26, 2009

इस्लाम में दिल की अहमियत

आज विश्व हदय दिवस है। इस मौके पर पेश है इस्लाम में दिल संबंधी दी गई कुछ हिदायतें-

अल्लाह का डर रखो। निसन्देह अल्लाह दिलों तक की बातें जानता है। कुरआन ५:७

जिसे अल्लाह सीधे रास्ते पर लाना चाहता है,उसका दिल ईश्वरीय आदेशों के लिए खोल देता है और जिसे पथभ्रष्ट करना चाहता है,उसके दिल को तंग कर देता है। कुरआन-६:१२५

ताकि जो लोग परलोक को नहीं मानते,उनके दिल शैतान की ओर झुके और वे उसे पसंद कर लें और जो कमाई उन्हें करनी है कर लें। कुरआन-६:११३

लोगों तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से नसीहत आ चुकी है,और दिलों की बीमारियों की दवा और आस्था रखने वालों के लिए मार्गदर्शन और दयालुता। कुरआन-१०:५७

अल्लाह जानता है जो कुछ तुम लोगों के दिलों में है और अल्लाह जानने वाला और सहनशील है। कुरआन-३३:५१

अल्लाह ही है जिसने ईमान वालों के दिलों को सुकून पहुंचाया ताकि उनका ईमान और बढ़ जाए। कुरआन-४८:४
जो दिलवाला है या कान लगाकर दिल से सुनता है, उसके लिए इन बातों में शिक्षा है। कुरआन-५०:३७

जो कोई अल्लाह पर ईमान लाए,वह उसके दिल को राह दिखा देगा। और अल्लाह हर चीज को भलीभाति जानता है। कुरआन-६४:११

सुन लो अल्लाह के स्मरण से ही दिलों को इत्मीनान हासिल होता है। कुरआन-१३:२८

दिल और हदीस
अल्लाह से बहुत ज्यादा दूर वे लोग हैं जो सख्त दिल वाले हैं। हदीस- तिर्मिजी

मुहम्मद सल्ल़ दुआ मांगते- ए दिलों को पलटने वाले अल्लाह, मेरे दिल को अपनी आज्ञापालन पर जमा दे। हदीस-हुसने हसीन

आप सल्ल ने दिलों पर लगी जंग और नापाकी को दूर करने का तरीका यह बताया-
मौत को अक्सर याद करो और कुरआन पढ़ते रहो। हदीस-बैहकी फी शिबउल ईमान
यतीम के सिर पर हाथ फेरा करो और दरिद्र को खाना खिलाया करो इससे तुम्हारा दिल नरम होगा। हदीस अहमद

जिस आदमी के दिल में जर्रा बराबर भी गुरूर और घमण्ड होगा,जन्नत में नहीं जाएगा। हदीस बुखारी

Friday, September 25, 2009

खुदा ने मेरे लिए इस्लाम को चुना


पीटर सैंडर्स ने अपना कैरियर साठ के दशक के मध्य में शुरू किया। वे अपने वक्त के संगीत के सितारों बॉब डायलन,जिमी हैंडरिक्स, द डोर्स और रोलिंग स्टोन्स की अगली पीढ़ी के नुमाइंदे थे। लेकिन संगीत से सैंडर्स के दिल की प्यास नहीं बुझ सकी। १९७० के आखिर में उन्होंने भारत की आध्यात्मिक यात्रा की। साल भर बाद जब वे ब्रिटेन लौटे तो इस्लाम धर्म ग्रहण कर चुके थे और उन्होने अपना नाम बदलकर अब्दुल अदीम रख लिया था।
सैंडर्स अब प्यासे नहीं थे। इस्लाम ने उनके काम को नई ऊर्जा दे दी थी। इसी वर्ष उन्होंने मुस्लिम देशों की यात्राएं शुरू की। १९७१ में उन्होंने काबा और हज यात्रियों की करीब से तस्वीरें खींची जो पहली बार पश्चिमी अखबारों-द सण्डे टाइम्स और द ऑब्जर्वर में छपीं। आज सैंडर्स या अब्दुल अदीम मुस्लिम समाज के सबसे बड़े फोटोग्राफर के रूप में जाने जाते हैं,संभव है वे इकलौते भी हों। अब्दुल अदीम एक फोटो प्रदर्शनी लगाने जकार्ता आए। रिपब्लिका में प्रकाशित इमान यूनियार्ता एफ़ द्वारा लिए गए उनके साक्षात्कार के प्रमुख अंश हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
१९७१ में भारत की यात्रा के बाद आपने इस्लाम धर्म अपना लिया। यह कैसे हुआ?
जब मैं बीस साल का हो रहा था,मौत के बारे में सोचता था कि क्या हम इसके बाद खत्म हो जाते हैं? यह सवाल मुझे आतंकित किए हुए था। आखिरकार मैंने संगीत में अपने कैरियर को छोडऩे का फैसला किया। मै भारत गया और वहां पर हिंदू,बौध्द,सिक्ख और इस्लाम धर्मों के बारें में सीखा।
आपने इस्लाम को ही क्यों चुना?
मैं पक्का नहीं जानता। खुदा ने मेरे लिए इसे चुना। लेकिन भारत में मेरे साथ एक अद्भुत घटना घटित हुई। एक सुबह मैं स्टेशन पर रेल का इंतजार कर रहा था। स्टेशन खचाखच लोगों से भरा था। भीड़ के बीच एक महिला ने अचानक मेरे बगल में अपनी जाजम बिछा ली और नमाज पढऩे लगी। मेरे लिए यह घटना चौंकाने वाली थी। ऐसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैंने एक व्यक्ति से पूछा-यह सब क्या है? उसने जवाब दिया-यह मेरी दादी है। यह मुस्लिम है और प्रार्थना कर रही है। संभव है यही कारण रहा हो। अल्लाह ने वह क्षण एक तस्वीर की तरह मुझे दिया जो आज भी मेरी स्मृतियों में है। जब मैं ब्रिटेन लौटा तो मेरे कई साथी नशे के लती हो चुके थे और कुछ इस्लाम धर्म अपनाकर इससे बचे हुए थे, तब मुझे लगा कि यही मेरा रास्ता है। इसके तीन महीने बाद मेरी जिंदगी में निर्णायक मोड़ आया। मैं हज करने मक्का गया और फिर मैंने चालीस विभिन्न मुस्लिम देशों की एक अंतहीन यात्रा शुरू कर दी।
आपको दुनिया का सबसे दिलचस्प हिस्सा कौनसा लगता है?
यह सवाल मुझसे अक्सर पूछा जाता है। मेरा जवाब यही होता है-ब्रिटेन। हालाकि मुझे अन्य स्थान भी पसंद है। मैं चीन तीन बार गया। मैं इस बार फिर वहां जाऊंगा। पूरी दुनिया दिलचस्प है और हर देश अपने आप में विशिष्ट है।
तस्वीरें खींचने के लिए एक यात्रा में आप कितना वक्त बिताते हैं?
जब मै जवान था, एक देश में मैं छह महीने तक रह जाता था। लेकिन अब मैं दो सप्ताह से ज्यादा नहीं रुकता हूं खासकर कठिन इलाकों में।
आप विभिन्न देशों के लोगों से कैसे घुल मिल जाते हैं?
सिर्फ मुस्कराते रहना ही काफी है,इससे मैं संबंध बना लेता हूं। आप मानें या न मानें इंसान गजब की चीज है। वह जितना गरीब होता है उतना ज्यादा उदार होता है। चीन में नब्बे साल की एक वृध्दा से मैं मिला। यह जानकर कि मैं भी एक मुस्लिम हूं,उसने मुझे अपने यहां बुलाया। उसके यहां पहुंचते ही मैंने देखा कि वहां सिर्फ एक पतला गद्दा और एक दुबली बिल्ली थी। लेकिन इस्लाम हमें मेहमानों का सत्कार करना सिखाता है। उसने मेरा अच्छा स्वागत किया और सबसे अच्छे खाने लगाए। जिस देश में मैं पैदा हुआ,वहां के लोग बहुत संकुचित सोच के हैं। वे पहली मुलाकात में आपको अपने घर आने का न्यौता नहीं देंगे। लेकिन,हम दुनिया के गरीब लोगों में उनकी बदहाली के बावजूद यह दिलचस्प उदार भाव पाते हैं।
आपके द्वारा मुस्लिम समाज की ली गई तस्वीरें पश्चिम मीडिया में काफी छपी हैं। आपको उनसे क्या उम्मीद है?
कई घटनाओं ने मुस्लिमों के खिलाफ नफरत पैदा की है। अमेरिका में ११/९ और ब्रिटेन में ७/७ की घटना। ये लोग डरे हुए हैं। लेकिन आपको जानना चाहिए कि अधिकतर मुस्लिम अमनपसंद है। इस्लाम के मायने ही अमन के है। इस्लाम को हिंसा से जोडऩा गलत है।मैंने संबंधों को जोडऩे की कोशिश की। मैं ब्रिटिश नागरिक हूं। मैं लन्दन में जन्मा हूं। इस्लाम का सम्मान करता हूं। इस्लाम एक महान धर्म है। मैं कई मुस्लिमों से मिलता हूं। सबसे बेहतर वे मुस्लिम है जो अपनी जिंदगी में इस्लाम को अपनाए हुए होते हैं
क्या आप मुस्लिम समाज के खूबसूरत पक्ष की तस्वीरें उतारते हैं या सच्चाई बयान करने को प्राथमिकता देते हैं?
मैंने सकारात्मक तस्वीरें बनाने और मुस्लिमों की खूबसूरती को सामने लाने की कोशिश की है। हमें इस जीवन में खूबसूरती की जरूरत है। खुदा को भी खूबसूरत चीजें पसंद हैं। मैं अक्सर गरीब मुस्लिम समुदाय के बीच रहता हूं और मेरा मानना है कि इन लोगों में अब भी खूबसूरती और रहमदिली बाकी है।
तमाम यात्राओं के बाद मुस्लिम समुदाय के बारें में आपकी क्या राय है? इस्लाम एक ऐसी स्वच्छ नदी है जिसमें तमाम संस्कृतियां घुलमिल कर एक साथ रह सकती हैं। जब इस नदी की धारा काली चट्टानों से होकर गुजरती है तो पानी काला दिखता है और जब यही धारा पीली चट्टान पर से गुजरेगी तो पानी पीला दिखेगा। यही वजह है कि अफ्रीका में इस्लाम अफ्रीकी है,यूके में इस्लाम ब्रितानी है और चीन में चीनी इस्लाम है।
आपका एक प्रोजेक्ट परंपरागत मुस्लिम समुदायों के बारे में दस्तावेजीकरण का है। क्यों?
मैंने पैंतीस साल यात्रांए की और पाया कि इस्लाम पारंपरिक माहौल में बेहतर पनप सकता है जहां कुछ विशिष्ट समुदाय पैदा हो जाते हैं। लेकिन आधुनिक विश्व में यह चीज खत्म हो रही है। पारंपरिक इस्लाम मॉरिशेनिया जैसे स्थानों पर ही बचा है। जहां लोग एक दूसरे की रक्षा करते हैं और अध्यात्म के उच्चतम स्तर पर आपस में जुड़े हैं। यह मैंने पश्चिम में नहीं पाया। मैंने अपने बच्चों को ऐसा माहौल देने की कोशिश की लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मैं क्या करता? मैं जबरदस्ती नहीं कर सकता। इस्लाम में जोर जबरदस्ती नहीं चलती। अपनी समझ से ही सच्चाई तक पहुंचा जा सकता है। मैंने इंडोनेशिया में देखा कि यहां आधुनिकता और परंपरागत मान्यताओं के बीच एक संतुलन है।
साभार: स्पैन,अंक:फरवरी-मार्च,पेज:२८-२९

Thursday, September 24, 2009


"समान नागरिक संहिता" Uniform / Common Civil Code

स्वतंत्रता के बाद सबसे ज्यादा न समझा हुआ, अव्याख्यित पद अगर कोई रहा है तो वो है "सामान नागरिक संहिता" जिसका प्रचार राजनेता जनता को बरगलाने के लिए करते है और उनको संप्रदाय के आधार पर बांटकर अपना राजनीतिक हित साधते हैं. उन्होंने हिन्दू भाइयों के बीच एक गलत धारणा पैदा कर दी है कि मुसलमानों को मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के द्वारा चार बीवियां रखने कि छूट मिली हुई है और जिससे मुसलमान जल्द ही हिन्दुओं को आबादी में पछाड़ देंगे और हिन्दू अल्पसंख्यक हो जायेंगे और बाबर की औलादे एक बार फिर भारत पर शासन करेंगी और वो भी अपनी संख्या के आधार पर लोकतांत्रिक तरीके से।
इसी प्रकार मुसलमानों के बीच एक एक डर पैदा किया जाता है कि अगर "सामान नागरिक संहिता" भारत में लागू की गयी तो उनसे जबरदस्ती हिन्दू कानून को मनवाया जायेगा और उनका भारत में रहना मुश्किल हो जायेगा। लेकिन वे एक बात बड़ी चालाकी से छिपा जाते हैं कि इसलाम भारत में बाबर के आने से पहले से आ चुका था और सन १५२६ में बाबर ने इब्राहीम लोधी को, जो कि एक मुस्लिम राजा था, को हराकर दिल्ली पर कब्ज़ा किया था न कि हिन्दू राजा को हराकर. इसके अतिरिक्त मुसलमानों कि एक बहुत छोटी से संख्या विदेशी धरती से सम्बन्ध रखती है और अधिकतर आबादी स्थानीय मिटटी की औलाद है.

और ये बात न केवल इतिहासकार बार-बार कहते हैं बल्कि स्वामी विवेकानंद जो कि एक महान हिन्दू दार्शनिक हैं का कहना है कि इसलाम भारत में तलवार के दम पर नहीं फैला। इस्लाम भारत में गरीबों और दबे कुचले लोगों के लिए एक वरदान बनकर आया. यही वजह है कि आबादी का १/५ लोग ही मुसलमान हुए. इसी तरह, सच्चर कमेटी कि रिपोर्ट ने संघ परिवार के इस झूठे और आधारहीन प्रचार की पोल खोल दी कि अनियंत्रित मुस्लिम आबादी एक दिन हिन्दुओं से ज्यादा हो जायेगी. सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में ये पाया कि "भारत कि जनसँख्या बढोत्तरी को देखते हुए २१वी शताब्दी के अंत तक भारत की जनसँख्या स्थिर हो जायेगी जिसमे मुस्लिम आबादी २० प्रतिशत से कम होगी"

इसके अतिरिक्त, इस प्रकार के झूठे प्रचार में सफलता प्राप्त कर लेने के बाद सांप्रदायिक शक्तियों और संघ परिवार ने हिन्दू भाइयों का वोट हासिल करने के लिए ये कहते हैं कि अगर वे सत्ता में आये तो "सामान नागरिक संहिता" को लागू करके मुस्लिमों को अनियंत्रित आबादी पर रोक लगायेंगे और एक बार फिर भारत को मुस्लिमों के हाथों में जाने से रोकेंगे। कभी-कभी वे हिन्दुओं से भी आबादी बढाने कि अपील करते हैं. इसी तरह, स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए घोषणा करते हैं कि अगर वे सत्ता में आये तो ऐसा कुछ भी नहीं होने देंगे और मुसलमानों के लिए मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के प्राविधान को जारी रखेंगे. निश्चित रूप से, "सामान नागरिक संहिता" की बात तब ही उठनी चाहिए जब भारत में एक से अधिक नागरिक संहिता हो लेकिन संवैधानिक रूप से भारत में नागरिक संहिता है ही नहीं इसलिए "सामान नागरिक संहिता" की बात उठनी ही नहीं चाहिए थी.

इसके अतिरिक्त, हमारे राजनेता अपने राजनीतिक हित के लिए जान बूझकर इस बात से देश के नागरिकों को अँधेरे में रखते है. विडंबना देखिये, कोई भी नहीं, यहाँ तक कि मीडिया भी कोशिश नहीं करती कि इस ग़लतफ़हमी को दूर किया जाये और सच्चाई को उजागर करे ताकि "सामान नागरिक संहिता" कि गलत धारणा को दूर किया जाये इससे पहले कि ये लोगों के दिमाग में गलत रूप से जगह बना ले और लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बाँट दे जिसका दुष्परिणाम देश को भुगतना पड़े.हमारे हिन्दुस्तान में कई तरह के पर्सनल ला बोर्ड हैं जो कई समुदाय से सम्बंधित हैं जो उनके संपत्ति, विवाह, तलाक़, रख-रखाव, गोद लेने और उत्तराधिकार के अधिकारों की रक्षा करते हैं और ये विशिष्ट धर्म से सम्बन्ध रखने वाले लोगों पर ही लागू होते हैं। जैसे हिन्दू विवाह कानून एक्ट १९५५ हिन्दू, सिख, बौध और जैन से सम्बंधित है. मुस्लिम, ईसाई, पारसी और यहूदी के लिए उनका अपना पर्सनल ला है. ये सर्वत्र सच है कि संघ परिवार और उनके सहयोगी हमेशा मुस्लिमों को ही विलेन के रूप में प्रदर्शित करते हैं ताकि जनता को सांप्रदायिक आधार पर बांटकर हिन्दू वोटों का तुष्टिकरण किया जा सके.

Wednesday, September 23, 2009

इस्लाम- जिंदगी गुजारने का एक खास तरीका

दिली सुकून इस्लाम में ही मिलेगा। इस्लाम सच्चा धर्म है। यही वजह है कि मैं इस्लाम में आया।
यूसुफ योहान्ना अब मुहम्मद यूसुफ,पाकिस्तान के मशहूर क्रिकेटर
पाकिस्तान के मशहूर क्रिकेटर यूसुफ योहान्ना ने सितम्बर २००५ में इस्लाम कबूल किया। उन्होंने अपना नाम मुहम्मद यूसुफ रखा। मुहम्मद यूसुफ का कहना है कि उन्होंने इस्लाम अपनाने के ऐलान से तीन साल पहले ही इस्लाम अपना लिया था लेकिन पारिवारिक कारणों के चलते उन्होंने इसका ऐलान नहीं किया था। यूसुफ की बीवी ने भी यूसुफ के साथ ही इस्लाम अपना लिया और अपना नाम तानिया से फातिमा रख लिया। यहां पेश है मोहम्मद यूसुफ का इन्टरव्यू जिसमें उन्होंने इस्लाम कबूल करने से जुड़े विभिन्न सवालों के जवाब दिए है।
आपका बचपन कहां और कैसे गुजरा?
मेरा बचपन कराची की रेलवे कालोनी में गुजरा। मुझे बचपन से ही क्रिकेट खेलने का शौक था। बचपन में धर्म आपके जीवन में क्या अहमियत रखता था। आपने बचपन में अपने धर्म की शिक्षा ली?मैं बचपन में सण्डे को चर्च जाता था। हालांकि मैं चर्च नियमित नहीं जाता था। समझदार होने के बाद मैं हर सण्डे चर्च जाने लगा था।आपका इस्लाम की तरफ रुझान कैसे हुआ?मैं मुस्लिम माहौल के बीच ही पला-बढ़ा। मेरे बचपन के सारे दोस्त मुस्लिम थे और मैं मुस्लिम इलाके में ही रहता था। लेकिन सच्चाई यह है कि मुझे इनका अमल इस्लाम के मुताबिक नजर नहीं आता था। अमल के मामले में वे बाकी लोगों की तरह ही थे, इस वजह से उनका कोई खास असर मुझ पर नहीं हुआ।
आखिर आप में ऐसा बदलाव कैसे आया?
मेरे में अचानक ही बदलाव नहीं आया। जब मैंने तब्लीगी जमात के लोगों का व्यवहार और जिंदगी के प्रति उनका नजरिया देखा तो उनसे बेहद प्रभावित हुआ। हालांकि उन्होने मुझे कभी यह नहीं कहा कि आप मुसलमान बन जाइए। दरअसल मैं उनसे बेहद प्रभावित हुआ और उनको देखकर ही मैं मुस्लिम हो गया। मैं ही क्या तब्लीगी जमात अमेरिका के कैलीफोर्निया गई हुई थी तो वहां का एक यहूदी इनके अमल से बेहद प्रभावित हुआ और वह मुस्लिम हो गया।
इस्लाम के खिलाफ जबरदस्त दुष्प्रचार के बावजूद लोग इस्लाम कबूल कर रहे हैं।
दरअसल यह हमारा ही कसूर है। हम मुसलमान इसके लिए जिम्मेदार हैं। कहने को पाकिस्तान इस्लामिक देश है लेकिन बाहर से आने वाले व्यक्ति को यहां का माहौल देखकर कतई नहीं लगे कि यहां के लोग इस्लामिक उसूलों क ो अपनाए हुए हंै। अगर हम पैगम्बर मुहम्मद सल्लल्लाहो अलेहेवसल्लम की जिंदगी को फोलो करें तो मुसलमानों पर कोई उंगली नहीं उठा सकता।
इस्लाम में आपको ऐसा क्या खास लगा कि आपने ईसाई धर्म छोड़कर इस्लाम अपना लिया?
जिन बाअमल मुसलमानों से प्रभावित होकर मैं मुसलमान बना उनमें मैंने पाया कि इस्लाम जिंदगी गुजारने का एक खास तरीका है। इस्लाम में पीस है,सुकून है,हर एक के साथ अच्छा व्यवहार,लोगों की भलाई की सोच आदि ऐसी बातें हैं जिनसे मैं बेहद प्रभावित हुआ।
आपके लिए यह फै सला लेना कितना मुश्किल था। इस्लाम कबूल करने पर आपके परिवार वालों की किस तरह की प्रतिक्रिया हुई।
परिवार वालों ने मेरे इस फैसले का विरोध किया। मुझे अहसास था मेरे घर वाले मुझसे नाराज होंगे लेकिन सच तो यह है कि दुनिया की कामयाबी ही कामयाबी नहीं है। क्योंकि एक दिन सब को मरना है और अपने कर्मों का हिसाब देना है। दुनिया का सबसे बड़ा सच मौत है और सबसे बड़ा झूठ-जिंदगी।
आपने अपनी पत्नी को मुसलमान होने के बारे में बताया तो उनकी शुरूआती प्रतिक्रिया क्या रही?
मैंने उसको यह नहीं बताया था कि मैं मुसलमान हो गया हूं। मैंने उसको बताया कि आजकल मैं ऐसा कुछ कर रहा हूं जिससे मुझे सुकून हासिल हो रहा है,अच्छा महसूस हो रहा है। तुम भी इस्लामिक तालीम को समझो और तुम्हेे अगर यह अच्छी लगती है तो इन बातों को अपना लो। क्योंकि इस्लाम में जबरदस्ती नहीं है। इस्लाम जबरदस्ती से नहीं फै लाया गया है। इस्लाम प्यार से फैला है,भलाई से फैला है। इस्लाम मन को पवित्र करता है जिससे लोग खुद को ईश्वर के करीब महसूस करते हैं।
आपको इस राह पर लाने में सबसे बड़ा हाथ किसका है?
अल्लाह के हुक्म और पैगम्बर के तरीके के मुताबिक जिंदगी गुजारने वालों से मैं बेहद प्रभावित हुआ। ऐसे लोगों की जिंदगी मेरे लिए अनुकरणीय बनी। इनमें से एक है पाकिस्तानी क्रिकेटर सईद अनवर।
पाकिस्तानी क्रिकेट टीम का रुझान भी अब इस्लाम की तरफ देखने को मिलता है। टीम में यह बदलाव कैसे आया?
मैं काफी समय से टीम में रहा लेकिन पहले मैंने टीम के लोगों में ऐसी अच्छी बातें नहीं पाईं। इस बदलाव का कारण टीम के लोगों का इस्लामिक मूल्यों को अपनी जिंदगी में लागू करना है। सईद अनवर जैसे लोग दुनिया भर में इस्लामिक उसूलों को फैला रहे हैं।
आप उन लोगों को क्या मैसेज देना चाहते हैं जो इस्लाम की हकीकत को जानना चाहते हैं लेकिन किसी दबाव की वजह से घबराते हैं। झिझकते हैं। क्या वास्तव में इस्लाम अपनाना बेहद मुस्लिम है?
देखिए मैंने महसूस किया है कि गैर मुस्लिम का मुस्लिम होना इतना मुश्किल नहीं है जितना एक पैदाइशी मुसलमान का इस्लाम के मुताबिक जिंदगी गुजारना। मुसलमानों के बीच इस्लामिक शिक्षा के प्रचार प्रसार की ज्यादा जरूरत है। मैं तो दूसरे धर्म से आया हूं, मुझे पता है दूसरे धर्मों में सुकून और आत्मिक शंाति नहीं है । दिली सुकून इस्लाम में ही मिलेगा। इस्लाम सच्चा धर्म है। यही वजह है कि मैं इस्लाम में आया। मेरा तो मुस्लिम भाइयों से यही गुजारिश है कि वे अल्लाह के हुक्म और पैगम्बर मुहम्मद साहब की जिंदगी को अपनाएं।
आप जब ईसाई थे तो मुसलमानों को देखकर क्या महसूस करते थे?
इस्लाम के मुताबिक जिंदगी गुजारने वाले मुसलमानों को देखकर मुझे लगता था कि वास्तव में यह अलग हटकर मजहब है। अल्लाह के हुक्म और पैगम्बर की सुन्नतों के मुताबिक जिंदगी गुजारने वाले लोगों को देखकर ही तो मैं मुस्लिम हुआ हूं। मुझे लगता था सच्चे ईश्वर की तरफ से ही यह मजहब है।

Tuesday, September 22, 2009

बहुत कुछ रखा है नाम में

जी हां,यह सच है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति के नाम का असर उसके व्यक्तित्व पर पड़ता है,इसलिए नाम अच्छे अर्थ वाले रखे जाने चाहिए। मुहम्मद सल्ललाहो अलैहे व सल्लम ने तो चौदह सौ साल पहले ही नामों की अहमियत बताते हुए अच्छे नाम रखने पर जोर दिया था।
बहुत कम लोग हैं जो अपने बच्चों का नाम निकालते वक्त उसके मायने पर गौर करते हैं। रखे गए नाम का अर्थ क्या है,वे नहीं जानते। बल्कि अब तो माडर्न दिखने की चाह के चलते लोग अपने बच्चों के बेतुके नाम रखने लगे हैं। आधुनिकता के नाम पर आधे अधूरे नाम रखने का फैशन भी चल पडा है। मुस्लिम भी इस माहौल से अछूते नहीं रहे हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि नाम और व्यक्तित्व में सीधा संबंध होता है? जी हां,यह सच है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति के नाम का असर उसके व्यक्तित्व पर पडता है,इसलिए नाम अच्छे अर्थ वाले रखे जाने चाहिए। नाम ऐसे हो जो व्यक्ति में खूबियां पैदा करे,उसके व्यक्तित्व को संवारे और तराशे । इस्लाम के महान पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहो अलैहे व सल्लम ने तो चौदह सौ साल पहले ही नामों की अहमियत बताते हुए अच्छे नाम रखने पर जोर दिया था। सवाल उठता है कि बच्चों का नाम रखते वक्त किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? सबसे पहले नाम के अर्थ पर गौर करना चाहिए। नाम का अर्थ नकारात्मक नहीं होना चाहिए। वे नाम जिनके अर्थ नेगेटिव निकलते हो उनसे बचना चाहिए। घमण्ड पैदा करने वाले नामों से भी परहेज किया जाना चाहिए। अच्छा नाम ना केवल व्यक्ति के अन्दर खूबियों को बढावा देता है बल्कि बाहर भी व्यक्ति को नाम के मुताबिक इज्जत और रूतबा दिलाता है। नामों की अहमियत का अंदाजा आप कुरआन की इस आयत से लगा सकते हैं जिसमें अल्लाह खुद अपने बन्दों से कहता है कि वे उसे अच्छे नामों से पुकारे। ऐसे नामों से जिनमें अल्लाह की बड़ाई और पाकीजगी सहित उसकी विभिन्न खूबियों का जिक हो। कुरआन में है- अल्लाह अच्छे नामों का हकदार है। तुम उसको अच्छे नामों से ही पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो जो अल्लाह के नामों के संबंध में कुटिलता करते हैं। जो कुछ वे करते हैं उसका बदला वे पाकर रहेंगे। 7:180
अच्छे नाम रखने की हिदायत हदीस में भी बयान की गई है। पैगम्बर सल्ल। ने फरमाया-कयामत के दिन तुम अपने और वालिद के नाम से पुकारे जाओगे इसलिए अपने नाम अच्छे रखो। अबू दाउद,
बुरे नाम मुहम्मद सल्ल पसंद नहीं करते थे। सईद इब्ने मुसायिब अपने वालिद से रिवायत करते हैं कि उनके दादा जब एक बार मुहम्मद सल्ल. के पास गए तो उन्होने मेरे दादा से पूछा-तुम्हारा नाम क्या है? मेरे दादा ने बताया-हज्न। पैगम्बर सल्ल ने फरमाया-तुम अपन नाम सहल रखो। मेरे दादा ने कहा-मैं अपना नाम नहीं बदलूंगा,क्योंकि यह नाम मेरे वालिद ने निकाला है। रिवायत में है कि फिर गम‘हज्न के मायने गम होता है’ उनके साथ हरदम जुडा रहा। मुहम्मद सल्ल. की आदत थी कि जो भी कोई उनके पास आता तो वे उसका और उसके गांव का नाम पूछा करते थे। अगर कोई नाम उन्हे पंसद नहीं आता तो वे उसे बदल देते थे।आयशा रजि.कहती हैं कि रसूलल्लाह सल्ल. बुरे नामों को बदलकर अच्छा नाम निकाल देते थे। तिर्मिजी अब्दुल्लाह बिन उमर रजि. रिवायत करते हैं कि उनकी एक बहिन का नाम आसिया था। पैगम्बर सल्ल. ने उसका नाम बदलकर जमीला रख दिया। जैनब रजि. कहती हैं- ‘पहले मेरा नाम बिर्राह था। रसलूल्लाह सल्ल. ने मुझसे कहा-पवित्र आत्मा होने का दावा मत करो, क्योंकि अल्लाह बेहतर जानता है कि पाक रूह किसकी है?
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Sunday, September 20, 2009

....तेरी गवाही.....




तेरी गवाही हमें आनेवाले एक नये दिन का संदेश देती है।

तेरी गवाही के लिये हमलोग तुझे ढूंढते रहते हैं आसमान में।

पर तूं है कि .......छूप जाता है कभी बादलों में। कभी पेडों के पीछे,

हर नये महिने की शुरुआत, तेरी गवाही के बिना मंज़ूर नहिं।

आज भी इंतेज़ार है रोज़दारों को तेरी गवाही का।

कि तूं आज आसमान में नज़र आयेगा।

और एक महिने के रोज़दार , एक महिने की "ईबादत" के बाद....

तेरी गवाही के बाद कल "ईद" मनायेंगे।

Thursday, September 17, 2009

कुरआन ने मुझ पर जादुई असर डाला

मैंने इस्लामिक प्रार्थना में विनम्रता और आत्मीयता महसूस की है। दूसरी तरफ इंग्लैण्ड के लोग भौतिकवादी और उथले हैं। वे खुश होने का दिखावा करते हैं लेकिन खुशी उनसे दूर है।
अब्दुर्रहीम ग्रीन ब्रिटेन, पहले ईसाई
अब इस्लाम के माने हुए स्कॉलर
तंजानिया में जन्में और ब्रिटेन में पले बढ़े ४५ वर्षीय ग्रीन का इस्लाम से परिचय मिस्र में हुआ जहां वे अक्सर अपनी छुट्टियां बिताते थे।
अक्टूबर १९९७ में उन्होंने गॉड्स फाइनल रिवेलेशन विषय पर बंगलौर में लेक्चर दिया। इस दौरान बंगलौर से अंगे्रजी में प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका इस्लामिक वॉइस ने उनका इन्टरव्यू लिया। यहां पेश है उस वक्त लिया गया अब्दुर्रहीम ग्रीन के इन्टरव्यू का हिन्दी अनुवाद।
अब्दुर्रहीम ग्रीन इस्लामिक दुनिया में एक जाना पहचाना नाम है। वे पिछले बीस सालों से ब्रिटेन में इस्लामिक मूल्यों के प्रचार प्रसार में जुटे हैं। वे इस्लामिक चैनल पीस टीवी और अन्य इस्लामिक चैनल्स के जरिए भी इस्लाम को बेहतर तरीके से दुनिया के सामने रख रहे हैं। वे पहले ईसाई थे लेकिन ईसाई आस्था से उनका जल्दी ही मोह भंग हो गया। सुकून की तलाश में अब्दुर्रहीम ग्रीन ने कई धर्मों का अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने कुरआन पढऩा करना शुरू किया। वे कुरआन से बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने कुरआन में अपने हर सवाल का जवाब पाया। वे इस नतीजे पर पहुंचे की कुरआन ईश्वरीय ग्रन्थ और फिर अब्दुर्रहीम ग्रीन ने १९८८ में इस्लाम कबूल कर लिया। अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि बताएं?
मैं १९६४ में तंजानिया के दारुस्सलाम में पैदा हुआ। मेरे माता-पिता दोनों ब्रिटेन के थे। मेरे पिता गेविन ग्रीन ब्रिटेन उपनिवेशवाद में एडमिनिस्ट्रेटर थे। बाद मे उन्होंने १९७६ में बारक्लेज बैंक जॉइन कर लिया और उन्हें इजिप्टियन बारक्लेज बैंक को जमाने के लिए इजिप्ट भेजा गया। मैंने मशहूर रोमन कैथोलिक मोनेस्टिक स्कूल एम्पलेफोर्थ में पढ़ाई की और बाद में इतिहास का अध्ययन करने लन्दन यूनिवर्सिटी चला गया। हालंाकि मैंने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी।अभी मैं इंग्लैण्ड की एक इस्लामिक मीडिया कम्पनी के साथ काम कर रहा हूं। इस्लाम के मैसेज को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने में जुटा हूं।
आपने बीच में ही पढ़ाई क्यों छोड़ दी?
मेरा ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली से मोहभंग हो गया था। दरअसल ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली में विश्व इतिहास को प्रायोजित तरीके से पेश किया गया था। उन्होंने अपनी सभ्यता को महिमामण्डित करके यूरोप पर थोपा है। इजिप्ट में रहने के दौरान कुछ आलीशान खण्डहर देखकर मुझे लगा कि यह तो अच्छे पुरातत्ववेत्ताओं का काम था। मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि पश्चिम ने इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश किया है। मैंने दुनिया के विभिन्न लोगों और सभ्यताओं के इतिहास का अपने स्तर पर अध्ययन करना शुरू किया। मैंने विभिन्न धर्मग्रंथों और दर्शनशास्त्र को भी पढ़ा। मैंने तीन साल तक गहराई से बोध धर्म का भी अध्ययन किया। इस दौरान मैंने जब कुरआन पढ़ा तो मैं इससे बेहद प्रभावित हुआ। कुरआन की शिक्षा ने मुझ पर जादुई असर डाला और मुझे पूरी तरह यकीन हो गया कि कुरआन सच्चे ईश्वर की तरफ से भेजा गया धर्मग्रन्थ है। मैं नहीं जानता कि मैं किस तरह इस्लाम की छांव में आ पहुंचा। मेरा भरोसा है कि ईश्वर ही ने मुझे सही राह दिखाई।
आपको इस्लाम में ऐसा क्या खास लगा जिससे आप सबसे ज्यादा प्रभावित हुए?
दरअसल आठ साल की उम्र में ही मेरा ईसाईयत से मोहभंग होने लगा था। मैरी की जय जैसे गीतों के जरिए जो कु छ हमें पढ़ाया जाता था, वो मेरे गले नहीं उतरता था। जहां एक तरफ ईसाई ईश्वर को अनन्त और अपार बताते थे,वहीं गॉड को मैरी की कोख से पैदा होना बताने में भी उन्हें कोई झिझक नहीं थी। मुझे लगता था इस हिसाब से तो मैरी गॉड से भी बड़ी हुई। दूसरा ईश्वर का तीन रूपों में होने का ईसाई मत भी मुझे समझ नहीं आता था। ईश्वर का तीन रूपों में बंटे होना और फिर भी एक होने को मैं पचा नहीं पाता था। मेरे लिए मुश्किल तब हो गई जब एक इजिप्टियन ने मेरे से ईसाई धर्म संबंधी कई तीखे सवाल कर डाले। ईसाई मत को लेकर कन्फ्यूज्ड होने के बावजूद मैंने उसके सामने एक सिध्दांतवादी ईसाई होने की कोशिश की जैसे कि अधिकतर गौरे मध्यमवर्गीय ईसाई करते हैं। मैं तब चकरा गया जब उसने मुझसे यह मनवा ही लिया कि ईश्वर जब सूली पर चढ़ाने से मर गया है तो फिर ईश्वर का अनन्त और अपार होने का ईसाई मत खोखला साबित हो जाता है। इस पर मुझे महसूस हुआ कि मैं ऐसी बेतुकी अवधारणा पर भरोसा कर रहा हूं जिसके मुताबिक दो और दो पंाच होते हैं। यह दौर मेरी किशोर अवस्था का था। धीरे-धीरे पश्चिम की बंधी बंधाई और मशीनी जिंदगी से मुझे नफरत सी होने लगी। मैंने पाया कि यूरोपियन लोगों की जिंदगी के संघर्ष का मकसद सिर्फ जिंदगी का लुत्फ उठाना और एंजोय करना है। वे अपने जीवन को किसी अच्छे और बड़े मकसद के लिए नहीं जीते।मैंने जब फिलीस्तीन के मुद्दे पर इजिप्ट और फिलीस्तीन के लोगों से बात की तो समझ आया कि कैसे पश्चिमी देश अपने लोगों को इस मुद्दे पर बरगलाते रहते है। यहूदियों ने कई ऐतिहासिक,राजनैतिक और आर्थिक भ्रान्तियां गढ़कर मीडिया के द्वारा जबरदस्त तरीके से प्रचारित की है। आखिर ऐसे कैसे हो सकता है कि २००० साल पहले यह उनका देश था जिसे छोड़कर वे चले गए थे। मैंने यह भी जाना कि अभी के यहूदी वास्तविक रूप में गुलाम थे जो बाद में यहूदी बने और फिलीस्तीनी सरजमीन शुरु से हरी-भरी रही है। यह तो इजराइल ने गढ़ा है कि जादुई तरीके से यह रेगिस्तान से ग्रीनलैण्ड में तब्दील हो गई। मैंने जब लैटिन अमेरिका और सोवियत ब्लॉक में अमरीका क ी भूमिका का अध्ययन किया तो अमेरिका का दोगला चरित्र देखने को मिला।
आपने इजिप्ट और इंग्लैण्ड के लोगों में किस तरह का फर्क महसूस किया?
मैंने पाया कि इजिप्ट के बाशिंदे गरीब और मेहनतकश होने के बावजूद खुशमिजाज हैं। वे अपनी सारी बातें अल्लाह पर छोड़ देते हैं और अपना गम भूल जाते हैं। वे इबादत में अल्लाह के सामने अपनी परेशानियां रखते हैं और अल्लाह उनकी मदद करता है। मैंने उनकी इस्लामिक प्रार्थना में विनम्रता और आत्मीयता महसूस की है।दूसरी तरफ इंग्लैण्ड के लोग भौतिकवादी और उथले हैं। वे खुश होने का दिखावा करते हैं लेकिन खुशी उनसे दूर है। उनकी प्रार्थना में गाने हैं,डांस है,तालियंा पीटना है लेकिन गॉड के प्रति विनम्रता और आत्मीयता उनकी प्रार्थनाओं में नजर नहीं आएंगी। मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि पश्चिमी लोगों की मानसिकता यहूदी नियंत्रित मीडिया की देन है। इन्हीं में एक है फिलीस्तीन को लेकर पश्चिम के लोगों की सोच। मीडिया वहां के लोगों पर एक ही तरह की मानसिकता थोपता है। देखा गया है कि अमेरिका तीसरी दुनिया के देशों को प्रताडि़त करने के लिए मानवाधिकार का बहाना तलाशता रहता है जबकि खुद उन लैटिन अमेरिकी देशों के नेताओं को प्रताडि़त करता रहता है जो उसकी बात नहीं मानते। अमेरिकी मीडिया इन बातों की कभी आलोचना नहीं करता। क्या इंग्लैण्ड में एक मुस्लिम के रूप में जिंदगी गुजारना मुश्किल है। पश्चिमी मानसिकता व्यक्तिवादी है यानी दूसरों के बजाय हर कोई खुद की सोचता है। इस्लामिक जिंदगी के लिए यह परेशानी का कारण बनती है। नेक मुस्लिम इस तरह के माहोल से परेशानी महसूस करते हैं। हद से ज्यादा खुलापन और सैक्स के चलते उन्हें दिक्कतें होती हैं। इंग्लैण्ड की अधिकतर लड़कियां १३ साल की उम्र तक अपना कोमार्य खो चुकी होती है और सामान्यत एक लड़की के तीन-चार ब्वॉय फै्रण्ड होते हैं। पश्चिम के मुसलमानों के साथ दिक्कत यह है कि वे उस पाश्चात्य सोसायटी के साथ कै से घुले-मिले जहंा स्वच्छंदता,सैक्स और नशा आम है। वे खुद को इन सबसे कैसे बचाए रखें? इंग्लैण्ड में इस्लाम के प्रचार के अच्छे नतीजे सामने आए हैं? इंग्लैण्ड में इस्लामिक मूल्यों का धीरे धीरे प्रचार प्रसार हो रहा है। नव मुस्लिम्स में उत्साह है। वे जानते हैं कि आम आदमी का जीवन किस तरह अंधेरे में है।आपके परिवार के बारे में बताएं? मेरे दो बीवियां और छह बच्चे हैं। क्या ब्रिटेन में बहू विवाह पर पाबंदी नहीं है? यंू तो ब्रिटेन में दूसरे विवाह पर पाबंदी है लेकिन ब्रिटेन के कई लोगों ने दो विवाह कर रखे हैं। दूसरी शादी कॉमन लॉ वाइव्ज के तहत उचित है जिसमें दूसरी बीवी और उसके बच्चे विरासत के हकदार होते हैं।

Wednesday, September 16, 2009

शबे-बारात क्या है? शबे- बारात की हकीकत?? What Is Shabe-Baarat?? Reality Of Shabe-Baaraat??

(अपडेट 17 सितम्बर  2009 02 : 00 PM :- इस लेख में मैनें उर्दु अलफ़ाज़ों का बहुत इस्तेमाल किया था तो दिनेशराय जी ने इसको ना समझ पाने की शिकायत की इसलिये मैं आम हिन्दी अफ़ाज़ों का इस्तेमाल कर रहा हूं)

अभी कुछ दिनों पहले पन्द्रह शअबान को पुरे हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बडे ज़ोर शोर से शबे-बारात मनायी गयी थी। ये त्योहार सारे मुसलमान बहुत धुम-धाम से मनाते है। इस त्योहार को कुछ हिन्दु शिव की बारात से मिलाते हैं पढें सुरेश चिपलूनकर द्वारा लिखा गया ये लेख।


आज मैं आप लोगो को शबे-बारात की हकीकत बताने जा रहा हूं।


"शबे-बारात की हकीकत"
 "पन्द्र्ह शअबान की हकीकत"

 (याद रहे बिदअत गुनाहे कबीरा (सबसे बडा गुनाह) है। बिदअत से शैतान खुश होता है और अल्लाह की नाराज़गी हासिल होती है। बिदअत का रास्ता जहन्नुम की तरफ़ जाता है। लिहाज़ा तमाम मुसलमानों को बिदआत से बचना चाहिये।)

१) पन्द्र्ह शाबान को लोग "शबे-बारात" मान कर जगह-जगह, चौराहों, गली-कूचों में मजलिसें जमातें और झूठी रिवायात ब्यान करके पन्द्र्ह शअबान की बडी अहमियत और फ़ज़ीलत बताते हैं।

२) मस्जिदों, खानकाहों वगैरा में जमा होकर या आमतौर से सलातुल उमरी सौ रकआत (उमरी सौ रकआत), नमाज़ सलाते रगाइब (रगाइब की नमाज़), सलातुल अलफ़िआ (हज़ारी नमाज़) सलते गोसिया (शेख अब्दुल कादिर जिलानी रह०) के नाम की नमाज़ अदा करते हैं।

३) पन्द्रह शअबान की रात को "ईदुल अम्वात" (मुर्दों की ईद) समझ कर मुर्दों की रुहों का ज़मीन पर आने का इन्तिज़ार करते हैं।



४) शबे-बारात के दिन मकानों की सफ़ाई, बर्तनों की धुलाई, नये-नये कपडों को पहनते हैं, औरतें तरह-तरह के पकवान मसलन हलवा, पूडी, मसूर की दाल पकाती और नगमें गा-गा कर रात भर जागती हैं।

५) नियाज़ फ़ातिहा, कुरआन ख्वानी(कुरआन पढना), मज़ारों की धुलाई, कब्रों पर फ़ूल चढाना, गुलगुलों से मस्जिदों की ताकों को भरना, ये सारी बिदअतें व खुराफ़ातें पन्द्र्ह शअबान को आज का मोमिन करता है जिसका दावा था कि....


"तौहिद की अमानत सीनों में  है हमारें
आसां नहीं मिटाना नामो निशां हमारा"

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मस्तिष्क के बारे में कुरआन का नजरिया

सिर का सामने का हिस्सा योजना बनाने और अच्छे व बुरे व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। मस्तिष्क का यही पार्ट सच और झूठ बोलने के लिए जिम्मेदार है। वैज्ञानिकों को पिछले साठ सालों में इस बात का पता चला है जबकि कुरआन तो चौदह सौ साल पहले ही यह बता चुका है।
अल्लाह ने कुरआन में पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहो अलेहेवस्सल्लम को काबा में इबादत करने से रोकने वाले विरोधियों की एक बुराई का जिक्र कुछ इस तरह किया है-
कदापि नहीं,यदि वह बाज नहीं आया तो हम उसके नासिया (सिर के सामने के हिस्से) को पकड़कर घसीटेंगे। झूठे, खताकार नासिया। (कुरआन ९६:१५-१६)
सवाल उठता है कि कुरआन ने मस्तिष्क के सामने के हिस्से को ही झूठा और गुनाहगार क्यों कहा है?कुरआन ने उस व्यक्ति को गुनाहगार और झूठा कहने के बजाय उस हिस्से को दोषी क्यों माना? पेशानी और झूठ व गुनाह में आखिर ऐसा क्या संबंध है कि कुरआन ने व्यक्ति के बजाय पेशानी को झूठ और गुनाह के लिए जिम्मेदार माना?
अगर हम सामने के सिर के ढांचे पर गौर करें तो मस्तिष्क के सामने की ओर एक हिस्सा पाएंगे। शरीर विज्ञान का मस्तिष्क के इस हिस्से के बारे में क्या कहना है? एसेन्शियल्स ऑफ एनाटॉमी एण्ड फिजियोलोजी नामक किताब मस्तिष्क के इस भाग के बारे में बताती है-योजनाएं बनाने और इसकी क्रियान्वयन संबंधी गतिविधियों का केन्द्र मस्तिष्क का यह सामने वाला हिस्सा ही होता है। मस्तिष्क का यह भाग प्रेरित करने में ही शामिल नहीं होता बल्कि आक्रामकता का केन्द्र बिन्दु भी यही होता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सिर का सामने का हिस्सा ही योजना बनाने और अच्छे व बुरे व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। मस्तिष्क का यही पार्ट सच और झूठ बोलने के लिए जिम्मेदार है। यही वजह है कि जब कोई झूठ और गुनाह करता है तो झूठा और गुनाहगार उसके सिर का सामने का हिस्सा होता है,जैसा कि कुरआन ने गुनाह करने पर उस व्यक्ति के बजाय उस हिस्से केलिए कहा है-ए झूठे, खताकार नासिया (सिर के सामने के हिस्से )
प्रोफेसर कीथ एल मूर के मुताबिक पिछले साठ वर्षों में ही वैज्ञानिकों को मस्तिष्क के इस हिस्से की कार्यप्रणाली का पता चला है।

रोज़ाः और मानव जीवन पर उसका प्रभाव

विज्ञान के इस आधुनिक युग में इस्लामी उपवास के विभिन्न आध्यात्मिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक लाभ सिद्ध किए गए हैं। जिन्हें संक्षिप्त में बयान किया जा रहा है।

आध्यात्मिक लाभः

(1) इस्लाम में रोजा का मूल उद्देश्य ईश्वरीय आज्ञापालन और ईश-भय है, इसके द्वारा एक व्यक्ति को इस योग्य बनाया जाता है कि उसका समस्त जीवन अल्लाह की इच्छानुसार व्यतीत हो। एक व्यक्ति सख्त भूक और प्यास की स्थिति में होता है, खाने पीने की प्रत्येक वस्तुयें उसके समक्ष होती हैं, एकांत में कुछ खा पी लेना अत्यंत सम्भव होता है, पर वह नहीं खाता पीता। क्यों ? इस लिए कि उसे अल्लाह की निगरानी पर दृढ़ विश्वास है। वह जानता है कि लोग तो नहीं देख रहे हैं पर अल्लाह तो देख रहा है। इस प्रकार एक महीने में वह यह शिक्षा ग्रहण करता है कि सदैव ईश्वरीय आदेश का पालन करेगा और कदापि उसकी अवज्ञा न करेगा।

(2) रोज़ा ईश्वरीय उपकारों को याद दिलाता औऱ अल्लाह कि कृतज्ञता सिखाता है क्योंकि एक व्यक्ति जब निर्धारित समय तक खान-पान तथा पत्नी के साथ सम्बन्ध से रोक दिया जाता है जो उसकी सब से बड़ी इच्छा होती है फिर वही कुछ समय बाद मिलता है तो उसे पा कर वह अल्लाह ती प्रशंसा बजा लाता है।

(3) रोज़ा से कामवासना में भी कमी आती है। क्योंकि जब पेट भर जाता है तो कामवासना जाग उठता है परन्तु जब पेट खाली रहता है तो कामवासना कमज़ोर पड़ जाता है। इसका स्पष्टिकरण मुहम्मद सल्ल0 के उस प्रबोधन से होता है जिसमें आया है कि "हे नव-युवकों के समूह ! तुम में से जो कोई विवाह करने की शक्ति रखता हो उसे विवाह कर लेना चाहिए क्योंकि इसके द्वारा आँखें नीची रहती हैं और गुप्तांग की सुरक्षा होती है।"

(4) रोज़े से शैतान भी निदित और अपमानित होता है क्योंकि पेट भरने पर ही कामवासना उत्तेजित होता है फिर शैतान को पथभ्रष्ट करने का अवसर मिलता है। इसी लिए मुहम्मद सल्ल0 के एक प्रवचन में आया है "शैतान मनुष्य के शरीर में रक्त की भांति दौड़ता है। भूक (रोज़ा) के द्वारा उसकी दौड़ को तंग कर दो"।
शारीरिक लाभ

(1) मनुष्य के शरीर में मेदा एक ऐसा कोमल अंग है जिसकी सुरक्षा न की जाए तो उस से विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार रोज़ा मेदा के लिए उत्तम औषधि है क्योंकि एक मशीन यदि सदैव चलती रहे और कभी उसे बंद न किया जाए तो स्वभावतः किसी समय वह खराब हो जाएगी। उसी प्रकार मेदे को यदि खान-पान से विश्राम न दिया जाए तो उसका कार्यक्रम बिगड़ जाएगा।

(2) डाक्टरों का मत है कि रोज़ा रखने से आंतें दुरुस्त एंव मेदा साफ और शुद्ध हो जाता है। पेट जब खाली होता है तो उसमें पाए जाने वाले ज़हरीले किटानू स्वंय मर जाते हैं और पेट कीड़े तथा बेकार पदार्थ से शुद्ध हो जाता है।उसी प्रकार रोज़ा वज़न की अधिकता, पेट में चर्बी की ज्यादती, हाज़मे की खराबी(अपच), चीनी का रोग(DIABATES) बलड प्रेशर,गुर्दे का दर्द, जोड़ों का दर्द, बाझपन, हृदय रोग, स्मरण-शक्ति की कमी आदि के लिए अचूक वीण है।

डा0 एयह सेन का कहना हैः "फाक़ा का उत्तम रूप रोज़ा है जो इस्लामी ढ़ंग से मुसलमानों में रखा जाता है।मैं सुझाव दूंगा कि जब खाना छोड़ना हो तो लोग रोज़ा रख लिया करें।"इसी प्रकार एक इसाई चिकित्सक रिचार्ड कहता हैः "जिस व्यक्ति को फाक़ा करने की आवश्यकता हो वह अधिक से अधिक रोज़ा रखे। मैं अपने इसाई भाइयों से कहूंगा कि इस सम्बन्ध में वह मुसलमानों का अनुसरण करें। उनके रोज़ा रखने का नियम अति उत्तम है।" (इस्लाम और मेडिकल साइंस 7) तात्पर्य यह कि उपवास एक महत्वपूर्ण इबादत होने के साथ साथ शारीरिक व्यायाम भी है। सत्य कहा अन्तिम ईश्दूत मुहम्मद सल्ल0 नेः "रोजा रखो निरोग रहोगे"
नैतिक लाभः

रोजा एक व्यक्ति में उत्तम आचरण, अच्छा व्यवहार, तथा स्वच्छ गुण पैदा करता है, कंजूसी,घमंड,क्रोध जैसी बुरी आदतों से मुक्ति दिलाता है। इनसान में धैर्य, सहनशीलता और निःस्वार्थ भाव को जन्म देता है। जब वह भूक की पीड़न का अनुभव करता है तो उसके हृदय में उन लोगों के प्रति दया-भाव उभरने लगता है जो प्रतिदिन अथवा सप्ताह या महीने में इस प्रकार की पीड़नाओं में ग्रस्त होते हैं। इस प्रकार उसमें बिना किसी स्वार्थ और भौतिक लाभ के निर्थनों तथा ज़रूरतमंदों के प्रति सहानुभूति की भावना जन्म लेती है, और उसे पूर्ण रूप में निर्धनों की आवश्यकताओं का अनुभव हो जाता है।

सामाजिक लाभः

रोजा का सामाजिक जीवन पर भी बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।

(1) वर्ष के विशेष महीने में प्रत्येक मुसलमानों का निर्धारित समय तक रोज़ा रखना, फिर निर्धारित समय तक खाते पीते रहना, चाहे धनवान हों या निर्धन समाज को समानता एवं बंधुत्व के सुत्र में बाँधता है।

(2) धनवान जब भूख एवं प्यास का अनुभव करके निर्धनों की सहायता करते हैं तो उन दोंनों में परस्पर प्रेम एवं मुहब्बत की भावनायें जन्म लेती हैं और समाज शत्रुता, घृणा और स्वार्थ आदि रोगों से पवित्र हो जाता है, क्योंकि सामान्यतः निर्धनों की सहायता न होने के कारण ही चोरी एवं डकैती जैसी घटनाएं होती हैं। सारांश यह कि रोज़ा से समानता, भाईचारा तथा प्रेम का वातावरण बनता है। समुदाय में अनुशासन और एकता पैदा होता है। लोगों में दानशीलता, सहानुभूति और एक दूसरों पर उपकार करने की भावनायें उत्पन्न होती हैं।

मानसिक लाभः

रोजा में एक व्यक्ति को शुद्ध एवं शान्ति-पूर्ण जीवन मिलता है। उसका मस्तिष्क सुस्पष्ट हो जाता है। उसके हृदय में विशालता आ जाती है। फिर शरीर के हल्का होने से बुद्धि विवेक जागृत होती है। स्मरण-शक्ति तेज़ होती है। फलस्वरूप एक व्यक्ति के लिए कठिन से कठिन कामों को भलि-भांति कर लेना अत्यंत सरल होता है।

इस्लाम का अध्ययन क्यूँ करें? Why ISLAM???

इस्लाम सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ईश्वर का परम उपहार हैं परन्तु न जानने का कारण लोग तुरन्त इस्लाम को दोषित ठहराने लगते हैं।
"हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वह क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता"
वास्तविकता यह है कि हम सदैव नकारात्मक सोचते हैं जिसका परिणाम है कि हमारे देश में नफरत फैल रही है हमारा ज्ञान एक दूसरे के प्रति सुनी-सुनाई बातों दोषपूर्ण-विचार तथा काल्पनिक वृत्तातों पर आधारित है
भई! इस्लाम तो सारे मानव का धर्म है; यह सनातन धर्म है इसी के अन्तिम दूत कल्कि अवतार हैं जब तक इस्लाम का सकारात्मक अध्ययन न होगा हमारे हृदय से घृणा भाव समाप्त नहीं हो सकती। इसी उद्देश्य के अंतर्गत हमने इस्लाम के सकारात्मक परिचय की प्रयास की है। हमारी आशा है कि हमारे देशवासी विशाल हृदय से इस्लाम का अध्ययन करें

मैं कहता हूं कि जब इस्लाम का अर्थ ही होता है शान्ति, उसके अन्तिम दूत (कल्कि अवतार) मुहम्मद सल्ल0 सम्पूर्ण संसार के लिए दयालुता है तथा उन्होंने अपनी 63 वर्ष की जीवनी में सिद्ध कर दिया कि इस्लाम वास्तव में संसार के लिए शान्ति संदेश है।आपके प्रवचनों में आता है कि ( यदि किसी ने किसी गैरमुस्लिम की अकारण हत्या कर दी तो वह प्रलय के दिन स्वर्ग की सुगन्ध भी न पा सकेगा) उसी प्रकार क़ुरआन के हर अध्याय का आरम्भ ही इस श्लोक से होता है (आरम्भ करता हूं ईश्वर के नाम से जो बड़ा कृपाशील तथा दयावान है) तो फिर आप इस्लाम पर यह आरोप कैसे लगा सकते हैं कि यह धर्म आतंक फैलाता है।
इस्लाम ही तो सम्पूर्ण संसार का धर्म हैइसी में सारे मानव की मुक्ति है और कोई धर्म मुक्ति का साधन है ही नहीं । बस आवश्यकता है कि आप इस्लाम के सम्बन्ध में पढ़ कर देखें
-सलीम खान

Tuesday, September 15, 2009

क्या कोरी बकवास है इसलाम का परलोकवाद !

कुछ लोग इस बात पर आश्चर्य करते हैं कि एक ऐसा व्यक्ति जिसकी सोच वैज्ञानिक और तार्किक हो वह परलोकवाद को किस तरह स्वीकार कर सकता है। लोग समझते हैं कि परलोकवाद में विश्वास करने वाले अंधविश्वास से ग्रस्त होते हैं। वास्तविकता यह है कि परलोक धारणा एक तर्कसंगत धारणा है।

परलोक की धारणा के तार्किक आधार
पवित्र कुरआन में एक हजार से अधिक ऐसी आयतें हैं जिनमें वैज्ञानिक तथ्यों को बयान किया गया है। (देखिये पुस्तक Quran and Modern Science Compatible Or Incompatible) इन तथ्यों में वे तथ्य भी शामिल हैं जिनका पता पिछली कुछ शताब्दियों में चला है बल्कि वास्तविकता यह है कि विज्ञान अब तक इस स्तर तक नहीं पहुँच सका है कि वह कुरआन की हर बात को सिद्ध कर सके। मान लीजिए कि पवित्र कुरआन में उल्लेखित तथ्यों का 80 प्रतिशत भाग विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है तो बाकी 20 प्रतिशत के बारे में भी सही कहने की बात यह होगी कि विज्ञान उनके संबंध में कोई निर्णायक बात कहने में असमर्थ है। क्योंकि वह अभी अपनी उन्नति के उस स्तर तक नहीं पहुँचा है कि वह पवित्र कुरआन के बयानों की पुष्टि या उनका इंकार कर सके। हम अपनी सीमित जानकारियों के आधार पर विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि कुरआन के बयानों का एक प्रतिशत अंश भी गलत और गलती पर आधारित है। देखने की बात यह है कि कुरआन के सम्पूर्ण बयानों का अगर 80 प्रतिशत वास्तविक रूप से सही सिद्ध होता है तो तार्किक तौर पर शेष 20 प्रतिशत के बारे में भी यही निर्णय किया जाएगा। इस्लाम में परलोक या मृत्यु के पश्चात जीवन की कल्पना इसी 20 प्रतिशत हिस्से से संबंधित हैजिसके बारे में बुद्धि और तर्क की माँग है कि उसे सही और त्रुटिहीन स्वीकार किया जाए।
परलोक की धारणा के बिना शान्ति तथा मानवीय मूल्यों की कल्पना व्यर्थ है
डकैती या लूटमार अच्छी चीज़ है या बुरी एक आम सरल स्वभाव व्यक्ति उसे एक बुरी चीज़ समझेगा। एक ऐसा व्यक्ति जो परलोक पर विश्वास नहीं रखता किसी बड़े अपराधी को किस तरह संतुष्ट कर सकता है कि डकैती या लूटमार का काम एक बुरी चीज़ है। मान लीजिए कि मैं दुनिया का एक बहुत बड़ा अपराधी हूँ और साथ ही मैं एक अत्यंत बुद्धिमान और तर्क के आधार पर कोई बात मानने वाला व्यक्ति भी हूँ। मैं कहता हूँ कि लूटमार करना सही है क्योंकि इससे मुझे ऐश व आराम से भरपूर जि़न्दगी गुजारने में मदद मिलती है, इसलिए लूटमार मेरे लिए सही है। अब अगर कोई व्यक्ति उसके बुरे होने का कोई एक तर्क भी पेश कर सके तो में उससे तुरंत रुक जाऊँगा। लोग आमतौर से निम्रलिखित तर्क पेश कर सकते है: ((क) जिस व्यक्ति को लूटा जाता है वह कठिनाई में पड़ जाता है कोई कह सकता है कि जिस आदमी को लूटा जाता है वह बड़ी मुसीबतों का शिकार हो जाता है। मैं भी इस बात से सहमत हूँ कि जिसे लूटा जाता है उसके लिए यह बुरा है। लेकिन मेरे लिए यह अच्छा है। अगर मैं एक लाख रुपए लूटमार करके हासिल कर लूँ तो मैं किसी भी पाँच सितारा होटल में स्वादिष्ट खानों से आनन्दित हो सकता हूँ। (ख) कुछ लोग आपको भी लूट सकते हैं कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि आपके साथ भी ऐसा हो सकता है कि आप लूट लिए जाएँ। लेकिन इसके जवाब में मैं कह सकता हूँ कि मेरे साथ ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि मैं एक अत्यनत शक्तिशाली अपराधी हूँ और अपने साथ सैकड़ों बॉडीगार्ड रखता हूँ। इसलिए मैं तो किसी को भी लूट सकता हूँ लेकिन कोई दूसरा मुझे नहीं लूट सकता लूटमार करना एक आम आदमी के लिए तो खतरनाक हो सकता है लेकिन एक प्रभावशाली व्यक्ति के लिए नहीं। (ग) पुलिस आपको गिरफ्तार कर सकती है कुछ लोग कह सकते हैं कि अगर आप लूटमार करते हैं तो पुलिस आपको गिर$फ्तार कर सकती है। इसका जवाब मैं यह दे सकता हूँ कि पुलिस मुझे इसलिए गिरफ्तार नहीं कर सकती कि पुलिस मेरे प्रभाव में है। इसी तरह कई मंत्री भी मेरे प्रभाव में हैं। मैं यह बात मानता हूँ कि अगर एक आम आदमी डकैती या लूटमार करता है तो वह गिर$फ्तार हो सकता है और यह बात उसके लिए बुरी हो सकती है लेकिन किसी असाधारण शक्ति और पहुँच रखने वाले अपराधी का पुलिस कुछ नहीं बिगाड़ सकती। (घ) लूटमार की कमाई बेमेहनत की कमाई है कुछ लोग कह सकते हैं कि यह आसानी के साथ प्राप्त की हुई कमाई है। मेहनत की कमाई नहीं है। मैं इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ कि यह आसानी की कमाई है। यही कारण है कि मैं लूटमार करता हूँ। अगर एक बुद्धिमान व्यक्ति के सामने दो विकल्प हों यानी वह आसानी के साथ भी दौलत कमा सकता है और परिश्रम के साथ भी तो नि:संदेह वह आसानी को पसन्द करेगा। (ङ) लूटमार करना मानवता के विरूद्ध है कुछ लोग कह सकते हैं कि लूटमार करना मानवता के विरूद्ध है और एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के हितों क ख़्ायाल रखना चाहिए। मैं इस तर्क का यह कहकर जवाब दे सकता हूँ कि आिखर मानवता नाम का यह नियम किसने बनाया है और मैं क्यों इसका पालन करूँ? यह नियम भावुक लोगों के लिए तो अच्छा हो सकता है लेकिन चूँकि मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जो तर्क में विश्वास करता हूं, मुझे दूसरों के हितों का खयाल रखने में कोई लाभ नजर नहीं आता। (च) लूटमार करना एक स्वार्थपूर्ण कार्य है कुछ लोग कह सकते हैं कि यह एक स्वार्थपूर्ण कार्य है। यह बात सत्य है कि लूटमार करना एक स्वार्थपूर्ण कार्य है, लेकिन मैं स्वार्थी क्यों न बनूँ?इससे मुझे आनन्दपूर्ण जीवन गुज़ारने में मदद मिलती है।
(१) लूटमार के बुरा होने का कोई तार्किक कारण नहीं है वे सभी तर्क जो इस बात को साबित करने के लिए दिए जा सकते हैं कि लूटमार एक बुरा काम है, इस प्रकार उपरोक्त स्पष्टीकरण की रोशनी में व्यर्थ सिद्ध होते हैं। यह प्रमाण और तर्क आम लोगों को तो संतुष्ट कर सकते हैं लेकिन किसी शाक्तिशाली और प्रभावशाली अपराधी को नहीं। इनमें से किसी भी प्रमाण को तार्किक आधारों पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसमें आश्चर्य की भी कोई बात नहीं है कि इस दुनिया में अपराधी लोग भरे पड़े हैं। इसी प्रकार धोखा-धड़ी और बलात्कार आदि अन्य बुराइयों का मामला है। किसी भी प्रभावशाली और शक्तिशाली अपराधी को किसी भी तार्किक प्रमाण के साथ इन चीज़ों के बुरा होने के बारे में संतुष्ट नहीं किया जा सकता।
(२) एक मुस्लिम किसी प्रभावशाली और शक्तिशाली अपराधी को संतुष्ट कर सकता है अब हम समस्या पर एक-दूसरे रुख से वार्ता करते हैं। मान लीजिए कि आप दुनिया के एक अत्यन्त प्रभावशाली और शक्तिशाली अपराधी हैं। आपके प्रभाव में पुलिस व मंत्री हैं तथा आपके पास आपकी सुरक्षा के लिए फौज ही फौज है। आपको एक मुस्लिम कायल कर सकता है कि लूटमार करना, धोखा-धड़ी करना, बलात्कार और कुकर्म करना ये सारी चीज़ें गलत और बुरे कर्म हैं। (३) प्रत्येक व्यक्ति न्याय चाहता है प्रत्येक व्यक्ति न्याय चाहता है। अगर वह दूसरों के लिए न्याय का इच्छुक न भी हो फिर भी वह अपने लिए तो अवश्य ही न्याय की अभिलाषा करता है। कुछ लोग ताकत और प्रभाव के नशे में चूर होते हैं और दूसरों को दुख और तकलीफ पहुंचाते हैं। अगर इन लोगों के साथ कोई अन्याय होता है तो उन्हें इस पर शिकायत होती है। ऐसे लोग जो दूसरों के दुख-दर्द को महसूस नहीं करते वास्तव में ताकत और प्रभाव के पुजारी होते हंै। यह ताकत और प्रभाव न केवल उन्हें दूसरों पर अत्याचार करने पर उभारता है बल्कि दूसरों को उन पर अत्याचार करने से रोकने में भी सहायक होता है।
खुदा सबसे ज्य़ादा शक्तिशाली और न्यायी है
एक मुस्लिम की हैसियत से एक व्यक्ति किसी अपराधी को $खुदा के अस्तित्व के बारे में कायल कर सकता है। यह खुदा किसी भी अपराधी से ज्य़ादा शक्तिशाली है और हरेक के साथ न्याय करने वाला भी। पवित्र कुरआन में है- ''खुदा कभी कण-भर भी अन्याय नहीं करता।ÓÓ (कुरआन, 4:40)
खुदा सज़ा क्यों नहीं देता? एक ऐसा अपराधी व्यक्ति जो बुद्धि और विज्ञान में विश्वास रखता है वह कुरआन के वैज्ञानिक तथ्यों को देखने के बाद इस बात से सहमत है कि खुदा मौजूद है। वह यह तर्क दे सकता है कि खुदा शक्तिशाली और न्यायी होने के बावजूद उसे अपराधों पर सज़ा क्यों नहीं देता।
जो लोग किसी के साथ अन्याय करते है उन्हें सज़ा दी जाएगी
हर वह व्यक्ति जिसके साथ अन्याय हुआ हो यह देखे बगैर कि उसकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति क्या है, चाहता है कि अत्याचारी को सजा दी जाए। एक आम और सामान्य व्यक्ति चाहता है कि डकैत या बलात्कारी को शिक्षाप्रद सज़ा दी जाए। हालाँकि बहुत-से अपराधियों को सजा हो जाती है फिर भी बहुत-से अपराधी कानून की पकड़ से बच निकलने में सफल हो जाते हैं। वे भोग-विलास से पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं और आराम और चैन से रहते हैं। अगर ऐसे लोगों के साथ कोई ऐसा व्यक्ति अत्याचार करता है जो उनसे ज्य़ादा शक्तिशाली और प्रभावशाली होता हैं तो ये लोग इस बात के अभिलाषी होते हैं कि इस अत्याचारी को सज़ा दी जाए।
यह जीवन परलोक के लिए आज़माइश है
यह दुनिया परलोक के लिए परीक्षा स्थल है। पवित्र कुरआन में है- ''जिसने मौत और जिन्दगी को पैदा किया ताकि तुम लोगों को आजमाकर देखे कि तुममेे से कौन अच्छे से अच्छा कर्म करने वाला है और वह प्रभुत्वशाली भी है और क्षमा करने वाला भी।ÓÓ (कुरआन, 67:2)
फैसले के दिन पूर्ण न्याय किया जाएगा
पवित्र कुरआन में है- ''हर जान को मौत का मज़ा चखना है और तुम सब अपनी पूरी-पूरी मज़दूरी प्रलय के दिन पाने वाले हो, सफल वास्तव में वह है जो वहाँ नरक की आग से बच जाए और स्वर्ग में दािखल कर दिया जाए। रहा यह संसार तो यह केवल एक जाहिरी धोखे की चीज़ है।ÓÓ (कुरआन, 3:185) इंसान के साथ आिखरी और पूर्ण न्याय का मामला बदले के दिन होगा। सारे इंसानों को परलोक में हिसाब के दिन उठाया और जि़न्दा किया जाएगा। यह संभव है कि किसी व्यक्ति की उसके किए कि सज़ा का एक भाग इस दुनिया में ही मिल जाए, लेकिन फाइनल सज़ा या इनाम उसे आिखरत में दिया जाएगा। महान खुदा एक डकैत या बलात्कारी को चाहे इस दुनिया में सज़ा न दे लेकिन परलोक में फैसले के दिन वह ज़रूर अपराधी को सज़ा देगा।
इंसानी कानून हिटलर को भला क्या सज़ा दे सकता है?
हिटलर ने लगभग 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतारा। पुलिस अगर उसे गिरफ्तार कर लेती तो इंसानी कानून उसे क्या सज़ा दे पाता? ज्य़ादा से ज्यादा जो सज़ा ऐसे व्यक्ति को मिल सकती है वह यह है कि उसे भी गैस चेम्बर में भेज दिया जाए। लेकिन देखा जाए तो यह सिर्फ एक यहूदी को किसी प्रकार गैस चैम्बर में जला देने की सज़ा होगी, लेकिन बाकी 59 लाख 99 हजार 99९ जलाकर मारे गए लोगों के बारे में आप क्या कहेंगे?
खुदा हिटलर को 60 लाख से ज्य़ादा बार नरक में जला सकता है
पवित्र कुरआन में है- ''जिन लोगों ने हमारी आयतों का इंकार किया उन्हें हम जल्द ही आग में झोकेंगे। जब भी उनकी खालें पक जाएँगी तो हम उन्हें दूसरी खालों से बदल दिया करेंगे। ताकि वे यातना का मज़ा चखते ही रहें। निस्संदेह खुदा प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी है।ÓÓ (कुरआन, 4:56) अगर खुदा चाहे तो वह हिटलर को 60 लाख से ज्य़ादा बार नरक में जला सकता है।
परलोक की धारणा के बिना मानवीय मूल्यों और भलाई-बुराई की कोई कल्पना नहीं
यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि परलोक की धारणा के बगैर आप किसी अत्याचारी के सामने भलाई-बुराई और मानवीय मूल्यों की वास्तविकता को सिद्ध नहीं कर सकते। विशेष रूप से ऐसे व्यक्ति के सामने जो अत्याचारी, दमनकारी और शक्तिशाली हो।

Monday, September 14, 2009

कुरआन में मिला,मेरे हर सवाल का जवाब

मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि इस्लाम कबूल करने से पहले मैं किसी भी मुसलमान से नहीं मिला था। मैंने पहले कुरआन पढ़ा और जाना कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है जबकि इस्लाम हर मामले में पूर्णता लिए हुए है।
केट स्टीवन्स अब-यूसुफ इस्लाम इंग्लैण्ड के माने हुए पॉप स्टार
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Sunday, September 13, 2009

दारूल उलूम देवबन्द - महान इस्लामी विश्व विद्यालय

इस्लामी दुनिया में दारूल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया क मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारूल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचाराधारा है, जो अंधविश्वास, कूरीतियों व आडम्बरों के विरूध इस्लाम को अपने मूल और शुदध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विखराधारा से प्रभावित मुसलमानों को ‘‘देवबन्दी‘‘ कहा जाता है।
देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो आबादी के लिहाज़ से तो एक लाख से कुछ ज्यादा आबादी का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारूल उलूम ने इस नगर को बडे-बडे नगरों से भरी व सम्मानजनक बना दिया है, जो ना केवल अपने गर्भ में एतिहासिक पृष्ठ भूमि रखता है, अपितु आज भी साम्प्रदायिक सौहार्दद धर्मनिरपेक्षता एवं देश प्रेम का एक अजीब नमूना प्रस्तुत करता है। 40 photo deoband madarsa
देवबन्द इस्लामी शिक्षा व दर्शन के प्रचार के व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। भारतीय संस्कृति व इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो समन्वय आज हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारूल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केंद्र बिन्दु है। दारूल उलूम ने न केवल इस्लामिक शोध व साहित्य के संबंध में विशेष भूमिका निभायी है, बल्कि भारतीय पर्यावरण में इस्लामिक सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया है।
दारूल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना कासिम नानोतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारतक के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेजों के विरूद्ध लडे गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी ना पाये थे और अंग्रजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रजों ने अपने संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबन्द जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के पृहार होने लगे थे। चारों ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जासे, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्ष जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्ष की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज एस समय तक विशाल एवं जालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुकाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवशयकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवशयकता थी जो धर्म व जाति से उपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
इन्हीं उददेश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढाया उनमें दारूल उलूम देवब्नद के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीय मौलाना महमूद हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारूल उलूम देवबन्द) उन सैनानियों में से एक थे जिनके कलम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बडा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शेखुल हिन्द (भारतीय विद्वान) की उपाधि से विभेषित किया गया था, उन्हों ने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की, सउदी अरब व मिश्र) में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भ्रत्‍सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेजी शासक वर्ग की मुखालफत की। बल्कि शेखुल हिन्द ने अफगानिस्तान व ईरान की हकूमतों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में सहयोग देने के लिए तैयार करने में एक विशेष भूमिका निभाई। उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफगानिस्तान व ईरान को इस बात पर राजी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राजय के विरूद्ध लडने पर तैयार हो तो जमीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे।
शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के माध्यम से अंग्रेज के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्टीय आंदोलन में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाओं पर चलते रहे, और अपने देशप्रमी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों व आंदोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं।
Darul_Uloom_Deoband
सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने अफगानिस्तात जाकर अंग्रजों के विरूद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की सर्वप्रथम स्वतंत्रत सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना दिया। यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांगेस की एक शाखा कायम की जो बाद में (1922 ई.) में मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द 1915 ई. में हिजाज (सउदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होंने वहां रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से संपर्क बना कर सैनिक सहायता की मांग की।
सन 1916 ई. में इसी संबंध में शेखुल हिन्द इस्तम्बूल जाना चाहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब तैनात था शेखुल हिन्द को इस्तम्बूल के बजाये तुर्की जाने के लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्ध मंत्री अनवर पाशा हिजाज पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाकात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भारतीयों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिसतान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार रहा। यह गुप्त सिलसिला ‘‘तहरीक ए रेशमी रूमाल‘‘ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि ‘‘ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्‍का थी‘‘।
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सन 1916 ई. में अंगेजों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथियों मौलान हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उजैर गुल हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गी। सन 1920 में इन महान सैनानियां की रिहाई हुई।
शेखुल हिन्द की अंगेजों के विरूद्ध तहरीके रेशमी रूमाल, मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजैरगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का मालटा जेल की पीडा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारूल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाई है। इस संस्था ने ऐसे अनमोल रत्न पैदा किये जिन्होंने अपनी मातृ भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। ए. डब्लयू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सी. आई. डी. राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट न. 122 में लिखा था जो आज भी इंडियन आफिस लंदन में सुरक्षित है कि ‘‘मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज चले गये थे, रेशमी खतूत की साजिश में जो मोलवी सम्मिलित हैं, यह लगभग सभी देवब्नद स्कूल से संबंधित हैं।‘‘
गुलाम रसूल मेहर ने अपने पुस्तक ‘‘सरगुजस्त ए मुजाहिदीन‘‘ (उर्दू) के पृष्‍ठ न. 552 पर लिखा है कि ‘‘मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हजरत शेखुल हिन्द अपनी जिन्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का खाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाम मात्र थी‘‘।
उडीसा के गवर्नर श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारूल उलूम देवबन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें दिल्ली, दीनापुर, अमरोहा, कारची, खेडा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पश्चिमी सीमा पर छोटी सी सवतंत्र रियासत ‘‘यागिस्तान‘‘ भारत के स्वतंत्रता का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का ना था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसममें शामिल किया था।
इसी पकार असंख्यक तथ्य ऐसे हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि दारूल उलूम देवबन्द स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भी देश प्रेम का पाढ पढता रहा है जैसे सन 1947 ईं. में भारत को आजादी तो मिली, परन्तु साथ साथ नफरतें आबादियों का स्थानंतरण व बंटवारा जैसे कटु अनुभव का समय भी आया, परन्तु दारूल उलूम की विचारधारा टस से मस ना हुई। इसने डट कर सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रस के संविधन में ही अपना विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया तथा अपने देशप्रेम व धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण दिया। आज भी दारूल उलूम अपने देशप्रेम की विचार धारा के लिए संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
दारूल उलूम देवबन्द में पढने वाले विद्यार्थियों को मुफत शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारूल उलूम देवब्नद ने अपनी स्थापतना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान विद्वान, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारूल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने का कला), दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंगेजी, हिन्दी में कम्पयूटर तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारूल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुजरना पडता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफत दी जाती है। दारूल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महाद्वीप पर गहरा है।
साभार http://www.darululoom-deoband.com/
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