Wednesday, February 24, 2010

इस्लाम आतंक या आदर्श !?

इस्लाम आतंक?  या आदर्श-   यह पुस्तक का नाम है जो कानपुर के स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य जी ने लिखी है। इस पुस्तक में स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य ने इस्लाम के अपने अध्ययन को बखूबी पेश किया है।

स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य के साथ दिलचस्प वाकिया जुड़ा हुआ है। वे अपनी इस पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं-
मेरे मन में यह गलत धारणा बन गई थी कि इतिहास में हिन्दु राजाओं और मुस्लिम बादशाहों के बीच जंग में हुई मारकाट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम है। मेरा दिमाग भ्रमित हो चुका था। इस भ्रमित दिमाग से हर आतंकवादी घटना मुझ इस्लाम से जुड़ती दिखाई देने लगी।
इस्लाम,इतिहास और आज की घटनाओं को जोड़ते हुए मैंने एक पुस्तक लिख डाली-'इस्लामिक आंतकवाद का इतिहास' जिसका अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ।

पुस्तक में स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य आगे लिखते हैं-

जब दुबारा से मैंने सबसे पहले मुहम्मद साहब की जीवनी पढ़ी। जीवनी पढऩे के बाद इसी नजरिए से जब मन की शुद्धता के साथ कुरआन मजीद शुरू से अंत तक पढ़ी,तो मुझो कुरआन मजीद के आयतों का सही मतलब और मकसद समझाने में आने लगा।
सत्य सामने आने के बाद मुझ अपनी भूल का अहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इस कारण ही मैंने अपनी उक्त किताब-'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा है जिसका मुझो हार्दिक खेद है

लक्ष्मीशंकराचार्य अपनी पुस्तक की भूमिका के अंत में लिखते हैं-

मैं अल्लाह से,पैगम्बर मुहम्मद सल्ललल्लाहु अलेह वसल्लम से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजनिक रूप से माफी मांगता हूं तथा अज्ञानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूं। सभी जनता से मेरी अपील है कि 'इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास' पुस्तक में जो लिखा है उसे शून्य समझों।

एक सौ दस पेजों की इस पुस्तक-इस्लाम आतंक? या आदर्श में शंकराचार्य ने खास तौर पर कुरआन की उन चौबीस आयतों का जिक्र किया है जिनके गलत मायने निकालकर इन्हें आतंकवाद से जोड़ा जाता है। उन्होंने इन चौबीस आयतों का अच्छा खुलासा करके यह साबित किया है कि किस साजिश के तहत इन आयतों को हिंसा के रूप में दुष्प्रचारित किया जा रहा है।

उन्होंने किताब में ना केवल इस्लाम से जुड़ी गलतफहमियों दूर करने की बेहतर कोशिश की है बल्कि इस्लाम को अच्छे अंदाज में पेश किया है।

अब तो स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य देश भर में घूम रहे हैं और लोगों की इस्लाम से जुड़ी गलतफहमियां दूर कर इस्लाम की सही तस्वीर लोगों के सामने पेश कर रहे हैं।

किताब का नाम- इस्लाम आतंक? या आदर्श
लेखक-स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य
ए-१६०१,आवास विकास कॉलोनी,हंसपुरम,नौबस्ता,कानपुर-२०८०२१

Tuesday, February 23, 2010

पाकिस्तान में सिखों की हत्याओं का विरोध करें भारतीय मुसलमान

सलीम अख्तर सिद्दीकी

पाकिस्तान में दो सिखों के सिर कलम करने की घटना निहायत ही निन्दनीय और घटिया है। किसी भी देश के अल्पसंख्यकों की रक्षा करना वहां की सरकार के साथ ही बहुसंख्यकों की भी होती है। लेकिन बेहद अफसोस की बात है कि पाकिस्तान और बंगला देश के अल्पसंख्यकों पर जुल्म कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। दोनों ही देश अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में असफल साबित हुए हैं। इक्कीसवीं सदी में धर्म के नाम पर ऐसे अत्याचार असहनीय हैं। पाकिस्तान के जिस हिस्से पर तालिबान का राज चलता है, उस हिस्से के अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की खबरें ज्यादा है। वहां तो कभी का खत्म हो चुका 'जजिया' भी संरक्षण के नाम पर वसूला जा रहा है। 'जजिया' भी करोड़ों रुपयों में वसूले जाने की खबरें हैं। आज की तारीख में शायद ही किसी सउदी अरब जैसे पूर्ण इस्लामी देश में अल्पसंख्यकों से 'जजिया' लिया जाता हो। इस्लाम धर्म अपने देश के अल्पसंख्यको की पूर्ण रक्षा करने का निर्देश देता है। लेकिन ऐसा लगता है कि इसलाम के नाम पर उत्पात मचाने वालों ने इस पवित्र धर्म की शिक्षाओं को सही ढंग से समझा ही नहीं। इस्लाम साफ कहता है कि पड़ोसी के घर की रक्षा करना प्रत्येक मुसलमान का फर्ज है। पड़ोसी भूखा तो नहीं है, उसका ध्यान रखने की शिक्षा भी इसलाम देता है। पड़ोसी किस नस्ल या धर्म का है, यह बात कोई मायने नहीं रखती है। लेकिन ऐसा लगता है कि तालिबान मार्का इसलाम को मानने वालों के लिए वही सब कुछ ठीक है, जो वह कर रहे हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि पूरी दुनिया में मुसलमान भी अल्पसंख्यक की हैसियत से रहते हैं। जब अमेरिका इराक या अफगानिस्तान में मुसलमानों पर बम बरसाता है तो पूरी दुनिया के मुसलमानों को दर्द होना स्वाभाविक बात है। मुसलमानों का भी यह फर्ज बनता है कि वे किसी मुस्लिम देश में दूसरे धर्म के लोगों पर होने वाले अत्याचार के विरोध में भी सामने आएं। यह नहीं हो सकता कि जब अपने पिटे तो दर्द हो और जब दूसरा पिटे तो आंखें और जबान बंद कर लें। भारत में ही पूरे पाकिस्तान की आबादी के बराबर मुसलमान हैं। ठीक है। यहां भी गुजरात जैसे हादसे होते हैं। लेकिन यह भी याद रखिए कि जब भी भारत में मुस्लिम विरोधी हिंसा होती है तो बहुसंख्यक वर्ग के लोग ही उनके समर्थन में आते हैं। लेकिन पाकिस्तान या बंगला देश में कोई तीस्ता तलवाड़ या हर्षमंदर सामने नहीं आता है। यही वजह है कि इन दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की संख्या तेजी से घट रही है। अत्याचार से बचने के लिए उनके सामने धर्मपरिर्वतन ही एकमात्र रास्ता बचता है। सच बात तो यह है कि तालिबान मार्का इसलाम को मानने वाले लोग केवल दूसरे धर्म के लोगों को ही नहीं इसलाम धर्म को मानने वालों को भी नहीं बख्श रहे हैं। पाकिस्तान से आए हिन्दुओं को भारत कभी का आत्मसात कर चुका है। लेकिन विभाजन के वक्त भारत से गए उर्दू भाषी मुसलमानों को आज भी पाकिस्तान में मुहाजिर (शरणार्थी) कहा जाता है। उनको हर तरीके से प्रताड़ित किया जाता है। हालत यह हो गयी है कि मुहाजिर वहां के एक वर्ग में तब्दील हो गया है। यानि पंजाबी, पठान, सिंधी, ब्लूच के बाद मुहााजिर एक जाति हो गयी है। पाकिस्तान में हर रोज मरने वाले लोग का ग्राफ तेजी से बढ़ता जा रहा है। नब्बे के शुरु का वक्त मैंने पाकिस्तान के शहर कराची में गुजारा है। उस वक्त बेनजीर भुट्टो की सरकार थी। उनके दौर में मुहाजिरों पर जो जुल्म किए गए उसे देखकर रोंगटे खड़े जो जाते थे। मुहाजिर नौजवानों को निर्दयता से मारा जाता था। उस वक्त अखबार शहर के तापमान के साथ ही यह भी लिखता था कि आज कराची में कितनी हत्याएं हुईं। मुहाजिरों की हालत आज भी नब्बे के दशक वाली ही है। सुन्नी-शिया विवाद के चलते हजारों लोग मारे जा चुके हैं। एक-दूसरे की मस्जिदों पर बम फेंककर बेकसूर लोगों को मारना कौनसा जेहाद है, यह आज तक समझ नहीं आया। जबकि इसलाम साफ कहता है कि 'बेकसूर का कत्ल पूरी मानवता का कत्ल है।' हमारी तो समझ में नहीं आता है कि इन लोगों ने कौनसा इसलाम पढ़ लिया है। अब ऐसा इसलाम मानने वालों से यह उम्मीद करना कि वे दूसरे धर्म के मानने वालों के साथ बराबरी का सलूक करेंगे, बेमानी बात ही लगती है। लेकिन यही सोचकर पाकिस्तान को बख्शा भी नहीं जा सकता है। भारत सरकार की यह जिम्मेदारी बनती ही है कि वह पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों पर होने वाले अत्याचार के मामले में पाकिस्तान सरकार के समक्ष अपना विरोध दर्ज करे। पाकिस्तान में सिखों की हत्याओं पर भारतीय मुसलमानों की चुप्पी चुभने वाली है। भारतीय मुसलमानों को सिखों की हत्याओं के लिए पाकिस्तान की पुरजारे निन्दा करने के लिए सामने आना वाहिए।

Monday, February 22, 2010

क्या कुरआन को समझ कर पढना ज़रुरी हैं? भाग - 2 Understand The Quran While Reading

आप लोगो ने मेरे इस लेख का पहला भाग पढा होगा। अगर नही पढा है तो यहां पढ सकते है।


हम मुस्लमान अक्सर बहाने बनाते है की हमारे पास कुरआन मजीद का तर्जुमा पढने का टाइम नही है। हम अपने रोज़-मर्रा के कामों मे मसरुफ़ है, अपनी पढाई मे, अपने कारोबार मे, वगैरह वगैरह। हम सब ये जानते है की जो भी वक्त हम स्कुल-कालेज मे लगाते है और कई किताबें हिफ़्ज़ (मुहं ज़बानी याद) कर लेते है, क्या हमारे पास कुरआन मजीद पढने का टाइम नही हैं? अगर आप कुरआन मजीद का तर्जुमा पढेंगे, चन्द दिनॊं मे पढ सकते है। लेकिन मौहम्मद रसुल अल्लाह सल्लाहोअलैह वस्सलम फ़र्माते है :- "कि जो कोई तीन दिन से कम वक्त मे कुरआन मजीद को पुरा पढता है तो वो कुरआन मजीद को समझ कर नही पढता है" (२९४९, तिर्मिधी)। अगर आप सुकुन से पढेंगें तो इन्शाल्लाह आप सात दिन मे कुरआन मजीद के तर्जुमें को पुरा पढ लेंगे, अगर आप रोज़ कुरआन का एक पारा पढेगें तो एक महीने मे आप कुरआन को पुरा पढ लेंगें। जो डिगरी आप हासिल करते है स्कुल और कालेज जाकर वो आप को इस दुनिया मे फ़ायदा पहुचां सकती है और नही भी पहुचां सकती है क्यौंकी हम जानते है की कई डिग्री वाले बेकाम घुम रहे हैं लेकिन अल्लाह सुब्नाह व तआला वादा देते है की अगर आप इस कुरान मजीद को अच्छी तरह समझ कर पढेंगे तो आप को आखिरत मे ही नहीं इस दुनिया मे भी इन्शाल्लाह फ़ायदा होगा।


अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह बकरह सु. २ : आ. १-२ में "ये वो किताब है जिसमे कोई शक नही जो तकवा (अल्लाह से डरनें वाले) रखते है"। मिसाल के तौर पर आपका कोई करीबी दोस्त फ़्रांस से हिन्दुस्तान घुमने के लिये आता है वो हिन्दुस्तान घुमता है और आपके घर पर एक हफ़्ता रुकता है और फिर वापस चला जाता है, अपने घर पहुचने के बाद आपकॊ वो एक खत लिखता है लेकिन उसको हिन्दी या उर्दु नही आती है उसे फ़्रेंच मे महारत हासिल है तो वो आपको खत भी फ़्रेंच मे लिख्ता है। आपको फ़्रेंच आती नही है तो फिर आप क्या करेंगे? उस आदमी को ढुढंगे जिसे फ़्रेंच आती है और जो आपकॊ आपके करीबी दोस्त के खत का तर्जुमा करके बताये की आपके दोस्त ने आपको क्या लिख कर भेजा है। क्या आपका फ़र्ज़ नही होता की आप जानें की आपके रब, आपके खालिक, अल्लाह सुब्नाह व तआला ने अपने आखिरी पैगाम कुरआन मजीद मे आपके लिये क्या लिखा है? हमें कुरआन शरीफ़ का तर्जुमा करने की ज़रुरत नही है अल्हम्दुलिल्लाह कुरआन शरीफ़ का तर्जुमा हर अहम ज़ुबान मे हो चुका है आपको सिर्फ़ उसको मार्कट से जाकर खरीदने की ज़रुरत है। हमें कुरआन शरीफ़ का तर्जुमा पढना चाहिये उस ज़बान मे जिसमें हमें महारत हासिल है।

अकसर मुस्लमान समझते है कि ये कुरआन शरीफ़ सिर्फ़ मुसलमानॊं के लिये है और इसे गैर-मुसलमानॊं को नही देना चाहिये ये हमारी गलतफ़हमी है हमारा वहम क्यौंकी अल्लाह सुब्नाह व तआला फ़र्माते है कुरआन शरीफ़ मे सुरह: इब्राहिम सु. १४ : आ. १ में "ये किताब नाज़िल कि गयी थी मौहम्मद रसुल अल्लाह सल्लाहोअलैह वस्सलम पर ताकि वो सारी इन्सानियत को अंधेरे से रोशनी मे ले आयें"। कुरआन मजीद मे ये कहीं नही लिखा हुआ है की कुरआन मजीद सिर्फ़ मुसलमान या अरबों के लिये है। यहां आपने पढा की अल्लाह तआला फ़रमाते है की कुरआन मजीद मौहम्मद रसुल अल्लाह सल्लाहोअलैह वस्सलम पर इसलिये नाज़िल कि गयी थी कि वो सारी इन्सानियत को अंधेरे से रोशनी मे लेकर आयें। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: इब्राहिम सु. १४ : आ. ५२ में " ये कुरआन मजीद सारी इन्सानियत के लिये पैगाम है और उनके लिये जो समझते है और उनसे कह दो कि अल्लाह एक है और समझने वाले अल्लाह के कलाम को समझेंगे"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: बकरह सु. २ : आ. १८५ में "रमज़ान वो महीना है जिसमें कुरआन शरीफ़ नाज़िल हो चुका था और ये सारी इन्सानियत के लिये हिदायत की किताब है ताकि लोग समझ सकें की गलत क्या और सही क्या है"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: अल ज़ुम्र सु. ३९ : आ. ४१ में "के हमनें ये किताब नाज़िल कि मौहम्मद रसुल अल्लाह सल्लाहोअलैह वस्सलम पर ताकि वो हिदायत दे इंसानों को"। कुरआन मे ये कही नही लिखा है की ये कुरआन सिर्फ़ मुसलमानों या अरबों के लियें नाज़िल कि गयी है और कुरआन मे ये कहीं नहीं लिखा है की मुसलमानॊं को हिदायत दें और हमारे आखिरी पैगम्बर मौहम्मद सल्लाहोअलैह वस्सलम सिर्फ़ अरबों या मुसलमानॊं के लिये नही भेजे गये थें अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: अम्बिया सु. २१ : आ. १०७ में "के हमने तुम्हे भेजा है एक रहमत सारी इन्सानियत, सारे जहां के लिये"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: सबा सु. ३४ : आ. २८ मे "के हमने तुम्हें भेजा एक पैगम्बर सारी इन्सानियत के लिये ताकि आप लोगो को अच्छाई की तरफ़ बुलायें और बुराई से रोकें"। लेकिन अकसर लोग ये नही जानते है। कुरआन की इन आयतॊं से समझ मे आता है की कुरआन मजीद और मौहम्मद सल्लाहोअलैह वस्सलम सारी इन्सानियत के लिये भेजे गये थे मुसलमानॊ के लिये भी और गैर-मुसलमानों के लिये भी।

हम मुसलमान लोग कुरआन मजीद को समझ के तो पढते नहीं लेकिन उसकी इतनी हिफ़ाज़त करते है की दूसरों को भी नही पढनें देते। कह्ते है कुरआन मजीद को जो लोग नजीज़ (नापाक/अपवित्र) है वो हाथ नही लगा सकते हैं और कुरआन मजीद की एक आयत का हवाला देते है सुरह: वाकिया सु. ५६ : आ. ७७-८२ "कि ये वो कुरआन अल्लाह तआला ने नाज़िल किया और इसको कोई भी हाथ नही लगायेंगा सिर्फ़ वो जो मुताहिरीन हैं"। अगर इस आयत के ये मायने होते की इस कुरआन शरीफ़ को जो मुसफ़ (कापी) है को कोई भी हाथ नही लगा सकता है सिर्फ़ उसके जो जो पाक है, वुज़ु मे हैं, तो कोई भी शख्स, कोई भी गैर-मुस्लिम बाज़ार से सौ या दो सौ रुपये में कुरआन खरीद कर उसे हाथ लगा सकता है और कुरआन मजीद गलत साबित हो जायेगा। कुरआन इस आयत के मायने इस कुरआन मजीद, इस किताब जो मुसह्फ़ है, के नही है बल्कि उस कुरआन मजीद जो लौहे-महफ़ुज़ (सातवें आसमान) में है जिसका ज़िक्र सुरह: बुरुज सु. ८५ : आ. २२ में है अगर आप देखेगें कि इस आयत के मुताबिक कि कुरआन क्यों नाज़िल हुआ कि कुछ लोग गैर-मुस्लिम वगैरह ये कहते थे कि मौहम्मद सल्लाहोअलैह वस्सलम पर ये "वही" (पैगाम) शैतान के पास से आती थी तो अल्लाह तआला फ़र्माते है की "ये "लौह-महफ़ुज़" के नज़दीक कोई भी नही आ सकता है सिवाय उसके जो मुताहिरीन हैं।" मुताहिरीन के मायने है वो जिसने कोई भी गुनाह नही किया, वो बिल्कुल पाक है सिर्फ़ जिस्म से ही नही सारे तरीके से। अगर आप तबरिगी तफ़्सील के अन्दर वो कह्ते है की जिस कुरआन का ज़िक्र हो रहा है उस कुरआन का जो सातवें आसमान मे लौहे-महफ़ुज़ के अन्दर जिसको कोई हाथ नही लगा सकता सिवाय फ़रिश्तों के"। तो शैतान के करीब आने का तो सवाल ही नही उठता इसके माईने ये नही कोई इन्सान जो पाक नही है वो हाथ नही लगा सकता है। पाक होना, वुज़ु मे होना अच्छी बात है लेकिन इसका मतलब ये नही है की ये फ़र्ज़ है।

कुछ लोग ये भी कह्ते है की हम गैर-मुस्लिम को कुरआन का सिर्फ़ तर्जुमा देंगे अरबी मतन नही देंगे, कुरआन शरीफ़ का तर्जुमा और अरबी मे साथ-साथ नही देंगे। लेकिन मै अगर किसी गैर-मुस्लिम को कुरआन देता हू तो मैं तर्जुमें के साथ अरबी का कुरआन भी देता हु क्यौंकी अगर तर्जुमें मे गलती हो तो वो इन्सान की तरफ़ है अल्लाह की तरफ़ से नही है, और तर्जुमें तो इन्सान करते है और गलती तो कहीं न कहीं करेंगे। मिसाल के तौर पे आप पढेंगे सुरह: लुकमान सु. ३१ : आ. ३४ उसमें अल्लाह तआला फ़र्माते है की "अल्लाह के अलावा कोई भी नही जानता के मां के पेट मे जो बच्चा है वो कैसा होगा"। लेकिन आप उर्दु का तर्जुमा पढेंगे तो उसमें अकसर ये लिखा मिलेगा कि "कोई भी नही जानता कि मां के पेट मे जो बच्चा है उसका जिन्स (लिंग) कैसा होगा"। और जो शख्स थोडा बहुत साइंस के बारे मे जानता होगा वो बता सकता की आज के दौर में ये जानना बहुत आसान काम है की मां के पेट मे बच्चा लडंका है या लडकी। जबकी अरबी मे जिन्स लफ़्ज़ है ही नही। कुरआन मजीद मे लिखा है कि "कोई भी नही जानता सिर्फ़ अल्लाह के सिवा की मां के पेट के अन्दर बच्चा कैसा होगां। कैसा होगा के माईने की पैदा होने के बाद वो अच्छा होगा या बुरा, दुनिया के फ़ायदेमन्द होगा या नुक्सानदायक, वो जन्नत जायेगा या जह्न्नम कोई भी नही जानता सिवाय अल्लाह के।"

बाकी अगली कडीं मे....

अल्लाह आप सब कुरआन पढ कर और सुनकर, उसको समझने की और उस पर अमल करने की तौफ़िक अता फ़रमाये।

आमीन, सुम्मा आमीन


साभार :- इस्लाम और कुरआन

Sunday, February 21, 2010

इंग्लैण्ड का ईसाई पादरी बन गया मुसलमान

ब्रिटेन का एक पूर्व कैथोलिक ईसाई पादरी कुरआन से इतना प्रभावित हुआ कि इस्लाम कबूल कर लिया।


   ईमानवालों के साथ दुश्मनी करने में यहूदियों और बहुदेववादियों को तुम सब लोगों से बढ़कर सख्त पाओग। और ईमानवालों के साथ दोस्ती के मामले में सब लोगों में उनको नजदीक पाओगे जो कहते हैं कि हम नसारा (ईसाई) हैं। यह इस वजह से है कि उनमें बहुत से धर्मज्ञाता और संसार त्यागी संत पाए जाते हैं और इस वजह से कि वे घमण्ड नहीं करते।

    जब वे उसे सुनते हैं जो रसूल पर अवतरित हुआ है तो तुम देखते हो कि उनकी आंखें आंसुओं से छलकने लगती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने सच्चाई को पहचान लिया है। वे कहते हैं-हमारे रब हम ईमान ले आए। अत तू हमारा नाम गवाही देने वालों में लिख ले।

                                                                                          (सूरा:अल माइदा ८२-८३)

कुरआन की ये वे आयतें हंै जिन्हें इंग्लैण्ड में अपने स्टूडेण्ट्स को पढ़ाते वक्त इदरीस तौफीक बहुत प्रभावित हुए और उन्हें इस्लाम की तरफ लाने में ये आयतें अहम साबित हुईं।

    काहिरा के ब्रिटिश परिषद में दिए अपने एक लेक्चर में तौफीक ने साफ कहा कि उसे अपनी पिछली जिंदगी और वेटिकन में पादरी के रूप में गुजारे पांच साल को लेकर किसी तरह का अफसोस नहीं है। मै एक पादरी के रूप में लोगों की मदद कर खुशी महसूस करता था लेकिन फिर भी दिल में सुकून नहीं था। मुझो अहसास होता था कि मेरे साथ सब कुछ ठीकठाक नहीं है। अल्लाह की मर्जी से मेरे साथ कुछ ऐसे संयोग हुए जिन्होंने मुझो इस्लाम की तरफ बढ़ाया। ब्रिटिश परिषद के खचाखच भरे हॉल में तौफीक ने यह बात कही।

तौफीक के लिए दूसरा अच्छा संयोग यह हुआ कि उन्होंने वेटिकन को छोड़कर इजिप्ट का सफर करने का मन बनाया।

मैं इजिप्ट को लेकर अकसर सोचता था-एक ऐसा देश जिसकी पहचान पिरामिड,ऊंट,रेगिस्तान और खजूर के पेड़ों के रूप में है। मैं चार्टर उड़ान से हरगाडा पहुंचा। मैं यह देखकर हैरान रह गया कि यह तो यूरोपियन देशों के दिलचस्प समुद्री तटों की तरह ही खूबसूरत था। मैं पहली बस से ही काहिरा पहुंचा जहां मैंने एक सप्ताह गुजारा। यह सप्ताहभर का समय मेरी जिंदगी का अहम और दिलचस्प समय रहा। यहीं पर पहली बार मेरा इस्लाम और मुसलमानों से परिचय हुआ। मैंने देखा कि इजिप्टियन कितने अच्छे और व्यवहारकुशल होते हैं,साथ ही साहसी भी।

ब्रिटेन के अन्य लोगों की तरह पहले मुसलमानों को लेकर मेरा भी यही नजरिया था कि मुसलमान आत्मघाती हमलावर,आतंकवादी और लड़ाकू होते हैं। दरअसल ब्रिटिश मीडिया मुसलमानों की ऐसी ही इमेज पेश करता है। इस वजह से मेरी सोच बनी हुई थी कि इस्लाम तो उपद्रवी मजहब है।
      
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Tuesday, February 16, 2010

गीत "सारे जहां से अच्छा" - स्वतंत्रता संग्राम की एक अनोखी दास्तान



स्वाधीनता संग्राम संबंधित किस्सों से यूं तो इतिहास भरा पड़ा है लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी भी हैं जो महत्वपूर्ण होने के बावजूद इतिहास के पन्नों में उचित स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं। अल्लामा इकबाल द्वारा लिखे गये देश भक्ति गीत सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा' हम हर स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर गाते हैं लेकिन ये गीत किस स्थिति में लिखा गया ये बहुत कम लोगों को मालूम होगा।गीत की रचना हुए एक सदी से ज्यादा बीत गई है लेकिन आज भी तराना हिन्द के बगैर स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस को कोई भी राष्ट्रीय पर्व का समारोह पूरा नहीं हो सकता। इक़बाल ने ये गीत १०३ वर्ष पूर्व १०अगस्त १९०४ को लाहौर में लिखा था देश में उस समय स्वतंत्राता आन्दोलन ज्वार पर था। ऐसे में इक़बाल ने तराना-ए-हिन्द लिखकर लोगों में जोश की वो आग भड़काई जो स्वतंत्राता प्राप्त किये बिना बुझने को किसी भी स्थिति में तैयार नहीं था।इस तराना को पहली बार गाये जाने की कहानी भी काफी रोचक है।

बात उन दिनों की है जब लाहौर में युवाओं के मनोरंजन के लिए एक ही क्लब हुआ करता था। क्लब का नाम था यंग मैन क्रिश्चयन एसोसियेशन।एक बार लाला हरदयाल की क्लब के सचिव से किसी बात को लेकर तीखी बहस हो गई। लाला जी ने आव देखा न ताउ तुरंत ही यंग मैन इंडिया एसोसियेशन की स्थापना कर दी। उस समय लाला हरदयाल लाहौर में एम ए कर रहे थे। लाला जी के कालेज में इक़बाल दर्शन शास्त्र पढ़ाते थे दोनों के बीच दोस्ताना संबंध था जब लाला जी उनसे एसो सियेशन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गये ऐसा शायद पहली बार हुआ होगा कि किसी समारोह के अध्यक्ष ने अपने अध्यक्षीय भाषण के स्थान पर कोई तराना गाया हो।इस छोटी लेकिन जोश भरी रचना का श्रोताओं पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि इक़बाल को समारोह के आरंभ और समापण दोनों पर ये गीत सुनाना पड़ा।


ये गीत पहली बार मौलाना शरर की उर्दू पत्रिका इत्तेहाद में १६अगस्त् १९०४ को प्रकाशित हुआ । इस तराने के शीर्षक भी कई बार बदले गये। पहले यह ÷हमारा देश' के शीर्षक से प्रकाशित हुआ फिर हिन्दुस्तां हमारा' के नाम से प्रकाशित हुआ।इस गीत ने लोगों पर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि यह सब की जुबान पर चढ़ गया बाद में इक़बाल ने अपने पहले कविता संग्रह ÷बांगे दरा' में इसे तराना-ए-हिन्द के नाम से शामिल कर लिया। स्वतंत्रात आंदोलन में इस गीत का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि १४-१५ अगस्त की रात में ठीक १२ बजे संसद में हुए समारोह में जन गण मन के साथ इक़बाल की इस रचना ÷सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा' को भी समूहगान के रूप में गाया गया।स्वतंत्रता की २५वीं वर्षगांठ पर १५अगस्त १९७२ को सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इस गीत की धुन तय कराई आज कल यही धुन प्रचलित है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस गीत को सुनकर कहा था कि यह हिन्दुतान की क़ौमी जु+बान का नमूना है। ये अलग बात है कि उर्दू हिन्दुस्तान की कौमी जुबान नहीं बन सकी। हिन्दी ने उर्दू पर बाज़ी मार ली

आज जब हम आजादी के ६० वर्ष पूरे कर चुके हैं तब इक़बाल द्वारा लिखे इस तराने का महत्व और भी बढ़ गया है। भारत की एकता आज पहले से अधिक जरूरी हो गई है और ये गीत सर्वधर्म एकता का ही प्रतीक है।इस गीत से संबंधित ये पहलू बहुत दुखदायक है कि कुछ लोग इस गीत को केवल इसलिए नज़र अंदाज करते हैं कि इसे इक़बाल ने लिखा था जिन्हें पाकिस्तान के गठन का समर्थक कहा जाता है। हाल ही में एक और देश भक्ति गीत वंदेमातरम १०० वर्ष पूरे होने पर जिस तरह कुछ लोगों ने हंगामा मचाया वह वास्तव में सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा का विरोध था। हालांकि सरकार की ओर से इस गीत को गाने के लिए बाध्य नहीं किया गया था फिर भी कुछ राज्यों में मुस्लिम संस्थानों को जान बुझ कर इस गीत को गाने पर बाध्य किया गया।

बहरहाल सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा का महत्व आज भी बरकरार है और आगे भी रहेगा क्योंकि स्वतंत्रता से संबंधित ये ऐसा गीत है जो सबकी समझ में बहुत आसानी से आ जाता है


thanks

Saturday, February 13, 2010

मनुष्य और मांसाहार की अनुमति Is Non-veg allowed?


अक्सर कुछ लोगों के मन में यह आता ही होगा कि जानवरों की हत्या एक क्रूर और निर्दयतापूर्ण कार्य है तो क्यूँ लोग मांस खाते हैं? जहाँ तक मेरा सवाल है मैं एक मांसाहारी हूँ. मुझसे मेरे परिवार के लोग और जानने वाले (जो शाकाहारी हैं) अक्सर कहते हैं कि आप माँस खाते हो और बेज़ुबान जानवरों पर अत्याचार करके जानवरों के अधिकारों का हनन करते हो.

शाकाहार ने अब संसार भर में एक आन्दोलन का रूप ले लिया है, बहुत से लोग तो इसको जानवरों के अधिकार से जोड़ते हैं. निसंदेह दुनिया में माँसाहारों की एक बड़ी संख्या है और अन्य लोग मांसाहार को जानवरों के अधिकार (जानवराधिकार) का हनन मानते हैं.
मेरा मानना है कि इंसानियत का यह तकाज़ा है कि इन्सान सभी जीव और प्राणी से दया का भावः रखे| साथ ही मेरा मानना यह भी है कि ईश्वर ने पृथ्वी, पेड़-पौधे और छोटे बड़े हर प्रकार के जीव-जंतुओं को हमारे लाभ के लिए पैदा किया गया है. अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम ईश्वर की दी हुई अमानत और नेमत के रूप में मौजूद प्रत्येक स्रोत को किस प्रकार उचित रूप से इस्तेमाल करते है.
आइये इस पहलू पर और इसके तथ्यों पर और जानकारी हासिल की जाये...


1- माँस पौष्टिक आहार है और प्रोटीन से भरपूर है
माँस उत्तम प्रोटीन का अच्छा स्रोत है. इसमें आठों अमीनों असिड पाए जाते हैं जो शरीर के भीतर नहीं बनते और जिसकी पूर्ति खाने से पूरी हो सकती है. गोश्त यानि माँस में लोहा, विटामिन बी वन और नियासिन भी पाए जाते हैं (पढ़े- कक्षा दस और बारह की पुस्तकें)

2- इन्सान के दांतों में दो प्रकार की क्षमता है
अगर आप घांस-फूस खाने वाले जानवर जैसे बकरी, भेड़ और गाय वगैरह के तो आप उन सभी में समानता पाएंगे. इन सभी जानवरों के चपटे दंत होते हैं यानि जो केवल घांस-फूस खाने के लिए उपयुक्त होते हैं. यदि आप मांसाहारी जानवरों जैसे शेर, चीता और बाघ आदि के दंत देखें तो उनमें नुकीले दंत भी पाएंगे जो कि माँस खाने में मदद करते हैं. यदि आप अपने अर्थात इन्सान के दांतों का अध्ययन करें तो आप पाएंगे हमारे दांत नुकीले और चपटे दोनों प्रकार के हैं. इस प्रकार वे शाक और माँस दोनों खाने में सक्षम हैं.
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर मनुष्य को केवल सब्जियां ही खिलाना चाहता तो उसे नुकीले दांत क्यूँ देता. यह इस बात का सबूत है कि उसने हमें माँस और सब्जी दोनों खाने की इजाज़त दी है.


3- इन्सान माँस और सब्जियां दोनों पचा सकता हैशाकाहारी जानवरों के पाचनतंत्र केवल केवल सब्जियां ही पचा सकते है और मांसाहारी जानवरों के पाचनतंत्र केवल माँस पचाने में सक्षम है लेकिन इन्सान का पाचन तंत्र दोनों को पचा सकता है.
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर हमको केवल सब्जियां ही खिलाना चाहता तो उसे हमें ऐसा पाचनतंत्र क्यूँ देता जो माँस और सब्जी दोनों पचा सकता है.


4- एक मुसलमान पूर्ण शाकाहारी हो सकता हैएक मुसलमान पूर्ण शाकाहारी होने के बावजूद एक अच्छा मुसलमान हो सकता है. मांसाहारी होना एक मुसलमान के लिए ज़रूरी नहीं.


5- पवित्र कुरआन मुसलमानों को मांसाहार की अनुमति देता हैपवित्र कुरआन मुसलमानों को मांसाहार की इजाज़त देता है. कुरआन की आयतें इस बात की सबूत है-
"ऐ ईमान वालों, प्रत्येक कर्तव्य का निर्वाह करो| तुम्हारे लिए चौपाये जानवर जायज़ है, केवल उनको छोड़कर जिनका उल्लेख किया गया है" (कुरआन 5:1)
"रहे पशु, उन्हें भी उसी ने पैदा किया जिसमें तुम्हारे लिए गर्मी का सामान (वस्त्र) भी और अन्य कितने लाभ. उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो" (कुरआन 16:5)
"और मवेशियों में भी तुम्हारे लिए ज्ञानवर्धक उदहारण हैं. उनके शरीर के अन्दर हम तुम्हारे पीने के लिए दूध पैदा करते हैं और इसके अलावा उनमें तुम्हारे लिए अनेक लाभ हैं, और जिनका माँस तुम प्रयोग करते हो" (कुरआन 23:21)


6- हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ मांसाहार की अनुमति देतें है !
बहुत से हिन्दू शुद्ध शाकाहारी हैं. उनका विचार है कि माँस सेवन धर्म विरुद्ध है. लेकिन सच ये है कि हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ मांसाहार की इजाज़त देतें है. ग्रन्थों में उनका ज़िक्र है जो माँस खाते थे.

A) हिन्दू क़ानून पुस्तक मनु स्मृति के अध्याय 5 सूत्र 30 में वर्णन है कि-
"वे जो उनका माँस खाते है जो खाने योग्य हैं, अगरचे वो कोई अपराध नहीं करते. अगरचे वे ऐसा रोज़ करते हो क्यूंकि स्वयं ईश्वर ने कुछ को खाने और कुछ को खाए जाने के लिए पैदा किया है"


(B) मनुस्मृति में आगे अध्याय 5 सूत्र 31 में आता है-
"माँस खाना बलिदान के लिए उचित है, इसे दैवी प्रथा के अनुसार देवताओं का नियम कहा जाता है"


(C) आगे अध्याय 5 सूत्र 39 और 40 में कहा गया है कि -
"स्वयं ईश्वर ने बलि के जानवरों को बलि के लिए पैदा किया, अतः बलि के उद्देश्य से की गई हत्या, हत्या नहीं"
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 88 में धर्मराज युधिष्ठर और पितामह के मध्य वार्तालाप का उल्लेख किया गया है कि कौन से भोजन पूर्वजों को शांति पहुँचाने हेतु उनके श्राद्ध के समय दान करने चाहिए? प्रसंग इस प्रकार है -
"युधिष्ठिर ने कहा, "हे महाबली!मुझे बताईये कि कौन सी वस्तु जिसको यदि मृत पूर्वजों को भेट की जाये तो उनको शांति मिले? कौन सा हव्य सदैव रहेगा ? और वह क्या जिसको यदि सदैव पेश किया जाये तो अनंत हो जाये?"
भीष्म ने कहा, "बात सुनो, हे युधिष्ठिर कि वे कौन सी हवी है जो श्राद्ध रीति के मध्य भेंट करना उचित है और कौन से फल है जो प्रत्येक से जुडें हैं| और श्राद्ध के समय शीशम, बीज, चावल, बाजरा, माश, पानी, जड़ और फल भेंट किया जाये तो पूर्वजो को एक माह तक शांति मिलती है. यदि मछली भेंट की जाये तो यह उन्हें दो माह तक राहत देती है. भेंड का माँस तीन माह तक उन्हें शांति देता है| खरगोश का माँस चार माह तक, बकरी का माँस पांच माह और सूअर का माँस छह माह तक, पक्षियों का माँस सात माह तक, पृष्ठा नामक हिरन से वे आठ माह तक, रुरु नामक हिरन के माँस से वे नौ माह तक शांति में रहते हैं. "GAWAYA" के माँस से दस माह तक, भैस के माँस से ग्यारह माह तक और गौ माँस से पूरे एक वर्ष तक. प्यास यदि उन्हें घी में मिला कर दान किया जाये यह पूर्वजों के लिए गौ माँस की तरह होता है| बधरिनासा (एक बड़ा बैल) के माँस से बारह वर्ष तक और गैंडे का माँस यदि चंद्रमा के अनुसार उनको मृत्यु वर्ष पर भेंट किया जाये तो यह उन्हें सदैव सुख शांति में रखता है. क्लासका नाम की जड़ी-बूटी, कंचना पुष्प की पत्तियां और लाल बकरी का माँस भेंट किया जाये तो वह भी अनंत सुखदायी होता है. अतः यह स्वाभाविक है कि यदि तुम अपने पूर्वजों को अनंत काल तक सुख-शांति देना चाहते हो तो तुम्हें लाल बकरी का माँस भेंट करना चाहिए"


7- हिन्दू मत अन्य धर्मों से प्रभावित
हालाँकि हिन्दू धर्म ग्रन्थ अपने मानने वालों को मांसाहार की अनुमति देते हैं, फिर भी बहुत से हिन्दुओं ने शाकाहारी व्यवस्था अपना ली, क्यूंकि वे जैन जैसे धर्मों से प्रभावित हो गए थे.


8- पेड़ पौधों में भी जीवन
कुछ धर्मों ने शुद्ध शाकाहार अपना लिया क्यूंकि वे पूर्णरूप से जीव-हत्या से विरुद्ध है. अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता. आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है. अतः जीव हत्या के सम्बन्ध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता.

9- पौधों को भी पीड़ा होती है
वे आगे तर्क देते हैं कि पौधों को पीड़ा महसूस नहीं होती, अतः पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है. आज विज्ञानं कहता है कि पौधे भी पीड़ा महसूस करते हैं लेकिन उनकी चीख इंसानों के द्वारा नहीं सुनी जा सकती. इसका कारण यह है कि मनुष्य में आवाज़ सुनने की अक्षमता जो श्रुत सीमा में नहीं आते अर्थात 20 हर्ट्ज़ से 20,000 हर्ट्ज़ तक इस सीमा के नीचे या ऊपर पड़ने वाली किसी भी वस्तु की आवाज़ मनुष्य नहीं सुन सकता है| एक कुत्ते में 40,000 हर्ट्ज़ तक सुनने की क्षमता है. इसी प्रकार खामोश कुत्ते की ध्वनि की लहर संख्या 20,000 से अधिक और 40,000 हर्ट्ज़ से कम होती है. इन ध्वनियों को केवल कुत्ते ही सुन सकते हैं, मनुष्य नहीं. एक कुत्ता अपने मालिक की सीटी पहचानता है और उसके पास पहुँच जाता है| अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का अविष्कार किया जो पौधे की चीख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है. जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को तुंरत ज्ञान हो जाता था. वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते है कि पौधे भी पीड़ा, दुःख-सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं.


10- दो इन्द्रियों से वंचित प्राणी की हत्या कम अपराध नहीं !!!
एक बार एक शाकाहारी ने तर्क दिया कि पौधों में दो अथवा तीन इन्द्रियाँ होती है जबकि जानवरों में पॉँच होती हैं| अतः पौधों की हत्या जानवरों की हत्या के मुक़ाबले छोटा अपराध है.


"कल्पना करें कि अगर आप का भाई पैदाईशी गूंगा और बहरा है, दुसरे मनुष्य के मुक़ाबले उनमें दो इन्द्रियाँ कम हैं. वह जवान होता है और कोई उसकी हत्या कर देता है तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह हत्या करने वाले (दोषी) को कम दंड दें क्यूंकि आपके भाई की दो इन्द्रियाँ कम हैं. वास्तव में आप ऐसा नहीं कहेंगे. वास्तव में आपको यह कहना चाहिए उस अपराधी ने एक निर्दोष की हत्या की है और न्यायधीश को उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देनी चाहिए."


पवित्र कुरआन में कहा गया है -


"ऐ लोगों, खाओ जो पृथ्वी पर है लेकिन पवित्र और जायज़ (कुरआन 2:168)
-सलीम खान
सौजन्य: IRF

Thursday, February 11, 2010

बहुत कुछ सिखाती है गंगा


चीज़ें बोलती हैं लेकिन इन्हें सुनता वही है जो इनके संकेतों पर ध्यान देता है। प्रज्ञा, ध्यान और चिंतन से ही मनुष्य अपने जन्म का उद्देश्य जान सकता है। ये गुण न हों तो मनुष्य पशु से भी ज़्यादा गया बीता बन जाता है।



भारत की विशालता, हिमालय की महानता और गंगा की पवित्रता बताती है कि स्वर्ग जैसी इस भूमि पर जन्म लेने वाले मनुष्य को विशाल हृदय, महान और पवित्र होना चाहिए। ऋषियों की वाणी भी यही कहती है। ज्ञान ध्यान की जिस ऊँचाई तक वे पहुँचे, उसने सिद्ध कर दिया कि निःसंदेह मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है।

परन्तु अपने पूर्वजों की दिव्य ज्ञान परम्परा को हम कितना सुरक्षित रख पाये? नैतिकता और चरित्र की रक्षा के लिए सबकुछ न्यौछावर करने वालों के आदर्श को हमने कितना अपनाया? ईश्वर को कितना जाना? उसके ‘दूत’ को कितना पहचाना? और उसकी ओर कितने कदम बढ़ाए?

गंगा केवल एक नदी मात्र ही नहीं है बल्कि गंगा भारत की आत्मा और उसका दर्पण भी है जिसमें हर भारतवासी अपना असली चेहरा देख सकता है और अगर सुधरना चाहे तो सुधर भी सकता है। गंगा हमें सत्य का बोध कराती है लेकिन हम उसके संकेतों पर ध्यान नहीं देते।


गंगा की रक्षा हम नहीं कर पाये। अपना कचरा, फैक्ट्रियों का ज़हरीला अवशिष्ट, मूर्तियाँ और लाशें सभी कुछ हम गंगा में बहाते रहे। नतीजा गंगा का जल न तो जलचरों के बसने लायक़ बचा और न ही हमारे पीने योग्य बचा। अमृत समान जल को विष में बदलने का काम किसने किया?

निःसंदेह गंगा की गोद में बसने वाले हम मनुष्यों ने ही यह घोर अपराध किया है।


भारत की दिव्य ज्ञान गंगा भी आज इसी प्रकार दूषित हो चुकी है। उसमें ऐसे बहुत से विरोधी और विषैले विचार बाद में मिला दिये गए जो वास्तव में ‘ज्ञान’ के विपरीत हैं। हम भारतीय न ज्ञान गंगा को सुरक्षित रख पाये और न ही जल गंगा को।

गंगा अपने उद्धार के लिए हमें पुकार रही है। कौन सुनेगा उसका चीत्कार? कौन महसूस करेगा अपना दोष? किसे होगा अपने कर्तव्य का बोध? कौन कितनी और क्या पहल करता है? गंगा यही निहार रही है।

महाकुम्भ का यह स्नान तभी सफल सिद्ध होगा जबकि नहाने वाले अपने शरीर के मैल की तरह अपने दोष भी त्याग दें। अपनी आस्था, विचार और कर्म को उन प्राचीन ऋषियों जैसा बनायें जिनसे आदि में धर्मज्ञान निःसृत हुआ था। इसी में आपकी मुक्ति है।

गंगा को शुद्ध करें, स्वयं को शुद्ध करें, और शुद्ध, सुरक्षित और प्रामाणिक ईश्वर की वाणी से ज्ञान प्राप्त करें। हरेक बाधा को पार करके रास्ता बनाते हुए अपनी मंज़िल तक पहुँचें जैसे कि गंगा सागर तक पहुँचती है।

गंगा यही सिखाती है लेकिन सीखता वही है जिसे वास्तव में कुछ सीखने और सत्य को पाने की ललक है।
काश! हमारे अन्दर यह ललक जाग जाये।

वेदमार्ग

नूनव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः।
प्रत्नवद् रोचया रूचः ।। ऋग्वेद 1:1:8।।
अनुवाद- नये और नूतनतर सूक्तों के लिए पथ हमवार
करता जा, जैसे पिछले लोगों ने ऋचाओं पर अमल किया था।
यज्ञं प्रच्छामि यवमं।
सः तद्दूतो विवोचति किदं ऋतम् पूर्व्यम् गतम।
कस्तदबिभर्ति नूतनौ।
वित्तम मे अस्य रोधसी।। ऋग्वेद 1:105:4।।

अनुवाद- मैं तुझसे सबसे बाद में आने वाले यज्ञ का सवाल पूछता हूँ। उसकी विवेचना वह पैग़म्बर आकर बताएगा। वह पुराना शरीअत का निज़ाम कहाँ चला गया जो पहले से चला आ रहा था ? उसकी नयी व्याख्या कौन करेगा? हे आकाश पृथ्वी! मेरे दुख पर ध्यान दो


ग़ज़ल
पानी

क्यों प्यासे गली-कूचों से बचता रहा पानी
क्या ख़ौफ था कि शहर में ठहरा रहा पानी
आखि़र को हवा घोल गयी ज़हर नदी में
मर जाऊंगा, मर जाऊंगा कहता रहा पानी
मैं प्यासा चला आया कि बेरहम था दरिया
सुनता हूँ मिरी याद में रोता रहा पानी
मिट्टी की कभी गोद में, चिड़ियों के कभी साथ
बच्चे की तरह खेलता-हंसता रहा पानी
इस शहर में दोनों की ज़फ़र एक-सी गुज़री
मैं प्यासा था, मेरी तरह प्यासा रहा पानी

ज़फ़र गोरखपुरी (मुंबई)
लिप्‍यांतरण : अबू शाहिद जमील


इतना जहर घोला गंगाजल में
कानपुर-कानपुर शहर का मैला ढोते-ढोते रूठ गई गंगा ने अपने घाटों को छोड़ दिया है। गंगा बैराज बनाकर भले गंगा का पानी घाटों तक लाने की कवायद हुई मगर वो रौनक शहर के घाटों पर नहीं लौटी। कानपुर शहर गंगा का बड़ा गुनाहगार है। 50 लाख की आबादी का रोज का मैला 36 छोटे-बडे़ नालों के जरिए सीधे गंगा में उड़ेला जाता है। 50 करोड़ लीटर रोजाना सीवरेज गंगा में डालने वाले इस शहर में गंगा एक्शन प्लान, इंडोडच परियोजना के तहत करोड़ों रूपए खर्च किए गए। जाजमऊ में सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई और क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दफ्तर इस शहर में स्थापित हैं। गंगा की गोद में सैकड़ों लाशे यूँ ही फेंकी जाती रहीं है और यह हरकत अब तक जारी है। गंगा की गोद के किनारे बसे जाजमऊ की टेनरियों से निकला जहरीला क्रोमियम गंगा के लिए काल बन गया। टेनरियों से निकलने वाले स्लज में क्रोमियम की मात्रा खतरानक स्थितियों तक पहुँच गई, तब भी यह शहर और सरकार के अफसर नहीं जागे। जाजमऊ के दो दर्जन पड़ोसी गाँव शेखपुर, जाना, प्योंदी, मवैया, वाजिदपुर, तिवारीपुर, सलेमपुर समेत अन्य में ग्राउंड वाटर 120 फिट नीचे तक जहरीला हो गया तो प्रशासन के होश उड़ गए। खेत जल गए और अब पशुओं का गर्भपात होने लगा है। काला-भूरा हो गया गंगा का पानी आचमन के लायक तक नहीं बचा।


पुनश्‍चः


गंगा को शुद्ध करें, स्वयं को शुद्ध करें, और शुद्ध, सुरक्षित और प्रामाणिक ईश्वर की वाणी से ज्ञान प्राप्त करें। हरेक बाधा को पार करके रास्ता बनाते हुए अपनी मंज़िल तक पहुँचें जैसे कि गंगा सागर तक पहुँचती है।

गंगा यही सिखाती है लेकिन सीखता वही है जिसे वास्तव में कुछ सीखने और सत्य को पाने की ललक है।

काश! हमारे अन्दर यह ललक जाग जाये।

Wednesday, February 3, 2010

''पवित्र कुरआन में गणितीय चमत्कार'' quran-math-II

पिछली पोस्‍ट ''पवित्र कुरआन में गणितीय चमत्कार'' की सफलता को देखते हुये, पुस्‍तक ''दयानन्‍द जी ने क्‍या खोजा, क्‍या पाया'' के लेखक श्री डाक्‍टर अनवर जमाल साहब से मैं ने फरमाईश की थी कि इस सिलसिले को आगे बढाया जाये, ज‍बकि जमाल साहब चाहते थे ''वन्‍दे ईश्‍वरम" मासिक पत्रिका में, अगली कडी छप जाये तब इधर ब्लागस में दी जाये, परन्‍तु इधर ''हमारी अन्‍जुमन'' में पोस्ट की अपार सफलता को देखते हुये आपने निर्णय बदला और इस विषय पर ''हमारी अन्‍जुमन'' के लिये यह पोस्‍ट तैयार कर दी , धन्‍यवाद
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‘बिस्मिल्लाह’ के अक्षरों में छिपा रहस्य
पवित्र कुरआन का आरम्भ जिस आयत से होता है वह खुद इतना बड़ा गणितीय चमत्कार अपने अन्दर समाये हुए है जिसे देखकर हरेक आदमी जान सकता है कि ऐसी वाणी बना लेना किसी मुनष्य के बस का काम नहीं है। एकल संख्याओं में 1 सबसे छोटा अंक है तो 9 सबसे बड़ा अंक है और इन दोनों से मिलकर बना 19 का अंक जो किसी भी संख्या से विभाजित नहीं होता।
पवित्र कुरआन का आरम्भ ‘बिस्मिल्लाहिर-रहमानिर रहीम’ से होता है। इसमें कुल 19 अक्षर हैं। इसमें चार शब्द ‘इस्म’(नाम), अल्लाह,अलरहमान व अलरहीम मौजूद हैं। परमेश्वर के इन पवित्र नामों को पूरे कुरआन में गिना जाये तो इनकी संख्या इस प्रकार है-
इस्म-19,
अल्लाह- 2698,
अलरहमान -57,
अलरहीम -114

अब अगर इन नामों की हरेक संख्या को ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ के अक्षरों की संख्या 19 से भाग दिया जाये तो हरेक संख्या 19, 2698, 57 व 114 पूरी विभाजित होती है कुछ शेष नहीं बचता।
है न पवित्र कुरआन का अद्भुत गणितीय चमत्कार-

# 19 ÷ 19 =1 शेष = 0
# 2698 ÷ 19 = 142 शेष = 0
# 57 ÷ 19 = 3 शेष = 0
# 114 ÷ 19 = 6 शेष = 0

पवित्र कुरआन में कुल 114 सूरतें हैं यह संख्या भी 19 से पूर्ण विभाजित है।
पवित्र कुरआन की 113 सूरतों के शुरू में ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्ररहीम’ मौजूद है, लेकिन सूरा-ए-तौबा के शुरू में नहीं है। जबकि सूरा-ए-नम्ल में एक जगह सूरः के अन्दर, 30वीं आयत में बिस्मिल्लाहिर्रमानिर्रहीम आती है। इस तरह खुद ‘बिस्मिल्ला- हर्रहमानिर्रहीम’ की संख्या भी पूरे कुरआन में 114 ही बनी रहती है जो कि 19 से पूर्ण विभाजित है। अगर हरेक सूरत की तरह सूरा-ए-तौबा भी ‘बिस्मिल्लाह’ से शुरू होती तो ‘बिस्मिल्लाह’ की संख्या पूरे कुरआन में 115 बार हो जाती और तब 19 से भाग देने पर शेष 1 बचता।
क्या यह सब एक मनुष्य के लिए सम्भव है कि वह विषय को भी सार्थकता से बयान करे और अलग-अलग सैंकड़ों जगह आ रहे शब्दों की गिनती और सन्तुलन को भी बनाये रखे, जबकि यह गिनती हजारों से भी ऊपर पहुँच रही हो?


पहली प्रकाशना में 19 का चमत्कार

पवित्र कुरआन का एक और चमत्कार देखिये-
अन्तिम सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद (स.) के अन्तःकरण पर परमेश्वर की ओर से सबसे पहली प्रकाशना (वह्या) में ‘सूरा-ए-अलक़’ की पहली पांच आयतें अवतरित हुईं। इसमें भी 19 शब्द और 76 अक्षर हैं।
76÷19=4 यह संख्या भी पूरी तरह विभाजित है। इस सूरत की आयतों की संख्या भी 19 है।
कुरआन शरीफ़ की कुल 114 सूरतों में यह 96 वें नम्बर पर स्थित है। यदि पीछे से गिना जाये तो यह ठीक 19वें नम्बर पर मिलेगी क्या यह एक कुशल गणितज्ञ की योजना का प्रमाण नहीं है?

कुल संख्याओं का योग और विभाजन

पवित्र कुरआन की आयातों में कुछ संख्याएं आयी हैं। उदाहरणार्थ-
कह दीजिए,“ वह अल्लाह एक है” (कुरआन 112:1)

और वे अपनी गुफा में तीन सौ साल और नौ साल ज़्यादा रहे। (कुरआन 18:25)

इन सारी संख्याओं को इकटठा किया जाए तो वे इस प्रकार होंगी-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 19,20, 30, 40, 50, 60, 70, 80, 99, 100, 200, 300, 1,000, 2,000, 3,000, 5,000, 50,000, 100,000

इन सारी संख्याओं का कुल योग है 16,21,46
यह योग भी 19 से पूरी तरह विभाजित है 162146÷19=8534

क्या अब भी कोई आदमी कह सकता है कि यह कुरआन तो मुहम्मद साहब की रचना है? ध्यान रहे कि उन्हें ईश्वर ने ‘अनपढ़’ (उम्मी) रखा था।

क्या आज का कोई भी पढ़ा लिखा आदमी पवित्र कुरआन जैसा ग्रन्थ बना सकता है।?
क्या अब भी शक-शुबहे और इनकार की कोई गंन्‍जाइश बाक़ी बचती है?
नर्क पर भी नियुक्त हैं 19 रखवाले
पवित्र कुरआन के इस गणितीय चमत्कार को देखकर आस्तिकों का ईमान बढ़ता है और आचरण सुधरता है जबकि अपने निहित स्वार्थ और अहंकार के वशीभूत होकर जो लोग पवित्र कुरआन को ईश्वरकृत नहीं मानते और उसके बताये मार्ग को ग्रहण नहीं करते। वे मार्ग से भटककर दुनिया में भी कष्ट भोगते हैं और मरने के बाद भी आग के गडढ़े में जा गिरेंगे। उस आग पर नियुक्त देवदूतों की संख्या भी 19 ही होगी।
19 की संख्या विश्वास बढ़ाने का ज़रिया
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है-
फिर उसने (कुरआन को) देखा। फिर (घृणा से) मुँह मोड़ा और फिर अहंकार किया। फिर बोला,“ यह एक जादू है जो पहले से चला आ रहा है, यह मनुष्य का वचन (वाणी है)”
‘मैं, शीघ्र ही उसे ‘सक़र’ (नर्क) में झोंक दूँगा, और तुम्हें क्या मालूम कि सक़र क्या है?
वह न बाक़ी रखेगी, और न छोड़ेगी। वह शरीर को बिगाड़ देने वाली है। उस पर 19 (देवदूत) नियुक्त हैं। और ‘हमने’ उस अग्नि के रखवाले केवल देवदूत (फरिश्ते) बनाए हैं, और ‘हमने’ उनकी संख्या को इनकार करने वालों के लिए मुसीबत और आज़माइश बनाकर रखा है। ताकि पूर्व ग्रन्थ वालों को (कुरआन की सत्यता का) विश्वास हो जाए और आस्तिक किसी शक में न पडें। (पवित्र कुरआन 29:21:31)

मनुष्य का मार्ग और धर्म
पालनहार प्रभु ने मनुष्य की रचना दुख भोगने के लिए नहीं की है। दुख तो मनुष्य तब भोगता है जब वह ‘मार्ग’ से विचलित हो जाता है। मार्ग पर चलना ही मनुष्य का कत्र्तव्य और धर्म है। मार्ग से हटना अज्ञान और अधर्म है जो सारे दूखों का मूल है।
पालनहार प्रभु ने अपनी दया से मनुष्य की रचना की उसे ‘मार्ग’ दिखाया ताकि वह निरन्तर ज्ञान के द्वारा विकास और आनन्द के सोपान तय करता हुआ उस पद को प्राप्त कर ले जहाँ रोग,शोक, भय और मृत्यु की परछाइयाँ तक उसे न छू सकें। मार्ग सरल है, धर्म स्वाभाविक है। इसके लिए अप्राकृतिक और कष्टदायक साधनाओं को करने की नहीं बल्कि उन्हें छोड़ने की ज़रूरत है।
ईश्वर प्राप्ति सरल है

ईश्वर सबको सर्वत्र उपलब्ध है। केवल उसके बोध और स्मृति की ज़रूरत है पवित्र कुरआन इनसान की हर ज़रूरत को पूरा करता है। इसकी शिक्षाएं स्पष्ट,सरल हैं और वर्तमान काल में आसानी से उनका पालन हो सकता है। पवित्र कुरआन की रचना किसी मनुष्य के द्वारा किया जाना संभव नहीं है। इसके विषयों की व्यापकता और प्रामाणिकता देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से यह जान सकता है कि इसका एक-एक शब्द सत्य है।
आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के बाद भी पवित्र कुरआन में वर्णित कोई भी तथ्य गलत नहीं पाया गया बल्कि उनकी सत्यता ही प्रमाणित हुई है। कुरआन की शब्द योजना में छिपी गणितीय योजना भी उसकी सत्यता का एक ऐसा अकाट्य प्रमाण है जिसे कोई भी व्यक्ति जाँच परख सकता है।

प्राचीन धर्म का सीधा मार्ग
ईश्वर का नाम लेने मात्र से ही कोई व्यक्ति दुखों से मुक्ति नहीं पा सकता जब तक कि वह ईश्वर के निश्चित किये हुए मार्ग पर न चले। पवित्र कुरआन किसी नये ईश्वर,नये धर्म और नये मार्ग की शिक्षा नहीं देता। बल्कि प्राचीन ऋषियों के लुप्त हो गए मार्ग की ही शिक्षा देता है और उसी मार्ग पर चलने हेतु प्रार्थना करना सिखाता है।
‘हमें सीधे मार्ग पर चला, उन लोगों का मार्ग जिन पर तूने कृपा की।’ (पवित्र कुरआन 1:5-6)

ईश्वर की उपासना की सही रीति
मनुष्य दुखों से मुक्ति पा सकता है। लेकिन यह इस पर निर्भर है कि वह ईश्वर को अपना मार्गदर्शक स्वीकार करना कब सीखेगा? वह पवित्र कुरआन की सत्यता को कब मानेगा? और सामाजिक कुरीतियों और धर्मिक पाखण्डों का व्यवहारतः उन्मूलन करने वाले अन्तिम सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद (स.) को अपना आदर्श मानकर जीवन गुज़ारना कब सीखेगा?

सर्मपण से होता है दुखों का अन्त

ईश्वर सर्वशक्तिमान है वह आपके दुखों का अन्त करने की शक्ति रखता है। अपने जीवन की बागडोर उसे सौंपकर तो देखिये। पूर्वाग्रह,द्वेष और संकीर्णता के कारण सत्य का इनकार करके कष्ट भोगना उचित नहीं है। उठिये,जागिये और ईश्वर का वरदान पाने के लिए उसकी सुरक्षित वाणी पवित्र कुरआन का स्वागत कीजिए।

भारत को शान्त समृद्ध और विश्व गुरू बनाने का उपाय भी यही है।

क्या कोई भी आदमी दुःख, पाप और निराशा से मुक्ति के लिये इससे ज़्यादा बेहतर, सरल और ईश्वर की ओर से अवतरित किसी मार्ग या ग्रन्थ के बारे में मानवता को बता सकता है? (...जारी)