Saturday, November 28, 2009
ईदुल अज़हा, बकरीद और कुरबानी के अहकाम व मसलें.. Matters & Compulsory Works Of Bakrid, Eid-Ul-Azha
तकबीरात :- तकबीर, तहलील और तहमीद, यानि अल्लाह तआला की बडाई व बुजुर्गी ब्यान करना, उसको
एक मानना और उसकी तारीफ़ ब्यान करने को कहते हैं।
अश्रह ज़िलहिज़्जा में "अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर लाइलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहुअकबर अल्लाहुअकबर वलिल्लाहिल हम्द" (दार कुतनी) पढने की खास ताकीद की गई है। (मुसनद अहमद) इन तकबीरों को ज़िलहिज़्जा (बकरीद) का चांद नज़र आने के बाद से 13 जिलहिज़्जा के सूरज छुपने तक चलते-फ़िरते, उठते-बैठते और नमाज़ों के बाद पढते रहना चाहिये। (बुखारी, मिरआत शरह मिश्कात)
कुछ उलमा ने लिखा है की तकरीबात 9 जिलहिज़्जा की फ़ज़्र से 13 जिलहिज़्जा की नमाज़ अस्र तक पढनी चाहिये, इस बारे सहाबा किराम (रज़ि.) के तौर-तरीके हदीस की किताबों में मिलते हैं मगर बेहतर और अफ़ज़ल सूरत यही है कि ज़िलहिज़्जा का चांद नज़र आने के बाद से 13 ज़िलहिज़्जा के सूरज छुपने तक तकरीबात पढें क्यौंकि ज़्यादातर सहाबा किराम (रज़ि.) का अमल यही मिलता है और इस सूरत पर अमल करने में तमाम बातों और तरीकों पर अमल भी हो जाता है।
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हज्ज और क़ुर्बानी के नायक (दूसरा भाग )
अब इब्राहीम अलै0 का चर्चा पूरे देश में हो चुका था, लोग उनके चमत्कार और अग्नि से सुरक्षित निकलने के प्रति बातें करने लगे थे, सम्राट के साथ उनका व्यवहार और उसे विवश करने का मआमला प्रचलित होने लगा था। इधर इब्राहीम अलै0 ईश्वरीय संदेश को फैलाने में प्रयत्नशील थे। प्रतिदिन विरोध में वृद्धि हो रही थी। मात्र एक महिला और एक पुरुष ने उनके संदेश को स्वीकार किया था। महिला का नाम सारा था जो बाद में उनकी पत्नी बनीं और पुरुष लूत अलै0 थे जो बाद में ईश्वरीय संदेष्टा नियुक्त किए गए।
जब इब्राहीम अलै0 के समक्ष यह विदित हो गया कि ईश्वरीय संदेश को कोई अपनाने वाला नहीं रहा तो देश-त्याग का निर्णय कर लिया। परन्तु देश-त्याग से पूर्व अपने पिता को इस्लाम का संदेश पहुंचाया पर पिता तो कट्टर बहुदेववाद था, वह कब बेटे की बात मानता। इस प्रकार आप उन से प्यार भरे शैली में बात करने के बाद लूत और अपनी पत्नी सारा को साथ लिए वहाँ से निकल गए। शाम, हारान से होते हुए फलस्तिन पहुंचे, फिर मिस्र गए। मिस्र में पहुंचने के पश्चात एक चमत्कारिक घटना पेश आई, जिसका संक्षिप्त यह है कि जब आप मिस्र पहुंचे तो वहाँ का सम्राट बड़ा अत्याचारी था। किसी ने मस्राट को सूचना दी कि एक यात्री के साथ बड़ी सुन्दर महिला है और वह इस समय हमारे देश में है। सम्राट ने तुरन्त सेनिक भेजा कि वह हज़रत सारा को उसके पास उपस्थित करे। हज़रत सारा वहाँ से चलीं, और इधर इब्राहीम अलै0 नमाज़ में खड़े हो गए। जब हज़रत सारा को अत्याचारी महाराजा ने देखा और उनकी ओर लपका तो तुरन्त ईश्वरीय प्रकोप में ग्रस्त हो गया। हाथ, पैर ऐंठ गए। भयभित होकर विन्ती करने लगाः हे पवित्र महिला! ईश्वर से प्रार्थना कर कि वह मुझे क्षमा कर दे, मैं वचन देता हूं कि फिर तुझे हाथ न लगाऊंगा। आपने प्रार्थना की, उसी समय वह अच्छा हो गया। परन्तु अच्छा होते ही उसने फिर उनकी ओर हाथ बढ़ायाः वही प्रकोप फिर आ पहुंचा, और यह पहली बार से अधिक कठोर था। फिर उसने विन्ती की और हाजरा की प्रार्थना से ठीक हो गया। तात्पर्य यह कि तीन बार ऐसा ही हुआ। तीसरी बार छूटते ही अपने सैनिक को आदेश दिया कि तू इसे यहाँ से निकाल और हाजरा (जो सम्राट की सेविका थी) को इसकी सेवा के लिए इसके साथ कर दे, यह कोई इनसान नहीं बल्कि पवित्र-आत्मा है। उसी समय सारा वहाँ से निकाल दी गईं और हाजरा उनके समर्पित की गईं। ईधर हज़रत इब्राहीम अलै0 उनकी आहट पाते ही नमाज़ से छूटे और पूछा कि कहोः क्या गुज़री? कहा कि अल्लाह ने उस अत्याचारी के प्रतारण को उसी पर लौटा दिया और हाजरा मेरी सेवा के लिए आ गईं।
इस प्रकार उत्तरोत्तर संकटों और परीक्षाओं में इब्राहीम अलै0 की आयु 80 वर्ष की हो गई। अब तक इब्राहीम अलै0 को कोई संतान न हुई थी, हृदय में संतान की इच्छा हचकोले खा रही थीं। अतः हज़रत सारा के अनुरोध पर आपने हाजरा से विवाह कर लिया। फिर ईश्वर से प्रार्थाना की कि " हे प्रभू!तू मुझे एक बेटा प्रदान कर जो नेकों में से हो"।
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़ति-परवाज़ मगर रखती है।
अतः प्रार्थना स्वीकार कर ली गई और हज़रत हाजरा अलै0 के गर्भ से इस्माइल अलै0 पैदा हुए। बुढ़ापे में शिशु पा कर इब्राहीम अलै0 का हृदय प्रसन्नता से खिल उठा परन्तु दूसरी ओर अल्लाह की ओर से परिक्षाओं का क्रम शुरू हो गया। इब्राहीम अलै0 को आदेश मिला कि अपनी पत्नी हाजरा और अपने प्यारे बेटे इस्माईल को मक्का के मरुस्थल पर रख आइए। आदेशानुसार बिना किसी संकोच के अपने पुत्र इस्माईल और अपनी पत्नी हाजरा को लिए मक्का के रेगिस्तान में पहुंच गए। खानपान के लिए कुछ खुजूर और जल वहाँ रख दिया और लौटने के लिए मुड़े। पत्नी तेज़ी से उनके पीछे लगी और बोलीः इब्राहीम! आप इस रेगिस्तान में हमें छोड़ कर कहाँ जा रहे हैं? कोई उत्तर नहीं मिल रहा है, बिल्कुल छुप हैं, चलते जा रहे हैं और यह पूछती जा रही हैं। अंततः ध्यान आता है कि शायद ईश्वर का आदेश है। पूछती हैं "क्या आपको अल्लाह का आदेश मिला है?" उत्तर मिलता हैः हाँ। विश्वसनीय पत्नी यह सुनते ही बोल उठती हैं "जब अल्लाह का आदेश है तो वह अवश्य हमारी सुरक्षा करेगा" इब्राहीम अलै0 चले यहाँ तक कि एक पहाड़ की ओट में आ कर खड़े हुए, अपना दोनों हाथ आसमान की ओर उठाया और ईश्वर से प्रार्थना कीः "हे मेरे प्रभू! मेंने एक निर्जल और ऊसर घाटा में अपनी सन्तान के एक भाग को तेरे प्रतिष्ठित घर के पास बसाया है। प्रभू! यह मैंने इस लिए किया है कि यह लोग यहाँ नमाज़ स्थापित करें, अतः तू लोगों के दिलों को इनका इच्छुक बना,औऱ इन्हें खाने को फल दे,शायह कि यह कृतज्ञ बनें" (इब्राहीम सूरः14आयत37)
तात्पर्य यह कि इब्राहीम अलै0 लौट चुके हैं। हाजरा अलै0 अपने दूध पीते शिशु के साथ निर्जल स्थान पर निवास की हुई हैं। दो दिन के पश्चान खान-पान की सामग्री समप्त हो जाती है। माँ का स्तन भी सूखा जा रहा है। हाजरा और इस्माइल प्यास से विकल हैं, अति कठोर और गंभीर परिस्थिति है। प्यास से इस्माइल तड़प रहे हैं, माता जल की खोज में इधर उधर दौड़ लगा रही है। कभी तेज़ी से सफ़ा पर्वत पर चढ़ती हैं कि शायद कोई कुवाँ, मानव, अथवा यात्रीदल देखाई दे परन्तु कुछ नहीं देखती हैं। सफ़ा से उतर कर मर्वा तक दौड़ती हुई जाती हैं, मर्वा पर चढ़ती हैं कि शायद कोई दिखाई दे पर दूर दूर तक किसी का पता नही हैं.... थक हार कर शिशु के पास आती हैं, बच्चा प्यास की सख्ती से तड़प रहा है। व्याकुलता की स्थिति में तेज़ी से सफ़ा की ओर आती हैं. फिर मर्वा की ओर दौड़ती हैं, इस प्रकार जाते और लौटते हुए सात चक्कर काट लेती हैं। हाजरा की इसी स्मृतिचिन्ह को हज तथा उमरा में सफ़ा और मर्वा का सात चक्कर लगा कर ताज़ा किया जाता है। तात्पर्य यह कि सातवीं बार हाजरा अलै0 व्यकुल, थकी हारी और निराशाजनक शिशु के पास बैठ जाती हैं। रोते रोते और प्यास की कठोरता से आवाज़ बैठी जा रही थी। इसी स्थिति में ईश्वरीय दया उमडती है, इस्माइल रोते हुए पृथ्वी पर पैर पटखते हैं तो पैर के नीचे से ज़मज़म स्रोत जारी हो जाता है। इस प्रकार माँ और बेटा दोनों मृत्यु के मुंह से निकल आते हैं।
फिर क़ुरआन के बयान के अनुसार जब इस्लामाइल अलै0 चलना फिरना सीख गए और "फर्रा" के कथनानुसार जब 13 वर्ष के हो गए तो इब्राहीम अलै0 का परीक्षा आरम्भ हुआ। स्वप्न में आदेश दिया गया कि अपने प्यारे बच्चे इस्माइल को अल्लाह के नाम पर बलि दे दो।
प्रिय मित्रो! तनिक चिन्ता मनन से काम लीजिए और देखिए कि कितनी इच्छाओं के बाद बच्चा पैदा हुआ था, मानो आँखों की ठण्डक, जिगर का टुकड़ा और बढ़ापे की लाठी है। परन्तु इधर ईश्वर का आदेश था... अपने बच्चे के पास आते हैं और कहते हैं "बेटा मैं सवप्न में दखता हूं कि मैं तुझे ज़बह कर रहा हूं? अब तू बता तेरा क्या विचार है….? आदेशापालक बेटा तुरन्त उत्तर देता हैः "पिता जी! जो कुछ आपको आदेश दिया जा रहा है उसे कर डालिए, आप यदि अल्लाह ने चाहा तो हमें सब्र करने वालों में से पाएंगे"।
फिर वह समय आता है कि मेना कि ऐतिहासिक रेगिस्तानी धरती पर इब्राहीम अलै0 अपने पुत्र इस्माइल मुख के बल लिटा चुके हैं। इब्राहीम अलै0 का चाकू इस्माइल की गर्दन पर बराबर चल रहा है लेकिन चाकू काट नही रहा है क्योंकि एक ओर यदि इब्राहीम को आदेश मिला था कि अपने पुत्र को ज़बह करो तो दूसरी ओर चाकू को आदेश मिला था कि तुम कदापि न काटना...चाकू भी तो ईश्वरीय आदेश के अधीन है....वह अपना प्रभाव देखाए तो कैसे...?ईश्वरीय तत्वदर्शीता को समझना सरल नहीं, अतः ईश्वर ने अपनी तत्वदर्शीता का रहस्य खोलते हुए आकाशीय दूत जिब्रील अलै0 के माध्यम से एक मेंढ़ा भेज दिया और इस्माईल के बदले उस मेंढ़ा को ज़बह करा कर फरमायाः हे इब्राहीम!तूने स्वप्न सच कर दिखाया, हम सत्कर्मियों को ऐसा ही बदला देते हैं"। यही वह इब्राहीमी यादगार है जिसको सम्पूर्ण संसार के मुसलमान हर वर्ष ईदे-क़ुर्बाँ के अवसर पर जानवर की क़ुर्बानी की शक्ल में ताज़ा करते हैं।
अभी कुछ देर पहले हमने बताया है कि जिस समय ईब्राहीम ने अपने बच्चे इस्माइल और अपनी पत्नी हाजरा को मक्का में बसाया था उस समय वह स्थान सर्वथा रेगिस्तान और निर्जल था। कुछ अवधि के पश्चात बनू-जुर्हुम का एक यात्रीदल वहाँ से गुज़रा। पानी देखा तो वहीं ठहर गए। इस प्रकार वहाँ कई घर आबाद हो गए। इब्राहीम अलै0 अपनी पत्नी और अपने प्यारे बच्चे से भेंट करने के लिए मक्का आया करते थे। एक बार उन्होंने अपने बेटे से कहा कि मुझे अल्लाह ने अपना घर बनाने का आदेश दिया है। इस प्रकार इब्राहीम और इस्माइल ने मिल कर काबा का निर्माण किया। इब्राहीम अलै0 निर्माता थे और इस्माइल अलै0 उनकी सहायता करते थे। निर्माण के बीच जिब्रील स्वर्ग से हज्रे-अस्वद ले कर आए। इब्राहीम अलै0 ने उसे उसकी मौजूदा जगह पर रख दिया। फिर आपने ईश्वरीय आदेशानुसार हज्ज की घोषणा की.... वह स्वर जो मरुस्थल में इब्राहीम अलै0 के मुख से निकला था, हर ईश्-भक्तों के कानों तक पहुंचा... और आज तक उसी का प्रभाव है कि संसार के कोने कोने से लोग आकर्शित उसकी ओर आ रहे हैं। यही वह हज है जो इस्लाम के पाँच मूल स्तंभों में से एक है। जो हर आर्थिक सामर्थ्य रखने वाले मुसलमान पर जीवन में एक बार अनिवार्य है।
Wednesday, November 25, 2009
हज्ज और क़ुर्बानी के नायक

हज्ज और क़ुर्बानी के नायकः ईब्राहीम (ईश्वर की उन पर शान्ति हो)
आज से अनुमानतः साढ़े चार हज़ार वर्ष पूर्व इब्राहीम अलैहिस्सलाम (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) इराक़ के शहर "बाबुल" के एक सम्मानित परिवार में पैदा हुए। आप संदेष्टा "नूह" के बेटे "साम" की संतान में से थे। अतिथिगन थे इसी लिए उनकी उपाधि "अबू-ज़ैफान" (अतिथियों वाला) पड़ गई थी। जिस वातावरण में पैदा हुए क़ुरआन ने उस समय की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की ओर संकेत किया है जिस से ज्ञात होता है कि उस समय लोग तीन भागों में बटे हुए थे। (1) कुछ लोग चंद्रमा एंव सूर्य की पूजा करते थे। (2) कुछ लोग पत्थर और कंकड़ी से बनाई गई मुर्तियों के सामने झुकते थे। (3) जबकि कुछ लोग उस समय के शासक "नमरूद" की पूजा करते थे।
ऐसे ही अंधकार वातावरण में एक प्रोहित "आज़र" के घर ईब्राहीम अलै0 की पैदाईश हुई। उनके पिता "आज़र" लोहार थे, वह लकड़ी की मूर्ति बनाते, उन्हें बेचते और लोगों को उनकी पूजा की ओर आमंत्रित किया करते थे।
समय गुज़रता रहा। इब्राहीम अलै0 बाल्यावस्था ही से मूर्तियों को अप्रिय दृष्टि से देखते, उनकी आलोचना करते और सोचते रहते कि यह मूर्तियाँ न खा सकती हैं, न पी सकती हैं, न बोल सकती हैं, न सुन सकती हैं तो आखिर लोग इनकी पूजा क्यों करते हैं? इन से लाभ की आशा एवं हानि का भय क्यों रखते हैं? यह कैसे लोग हैं जो अपने हाथों से मूर्ति बनाते हैं और फिर कहते हैं कि यह हमारे पूज्य हैं।
जब ईश्वर ने इब्राहीम अलै0 को अपने समुदाय की ओर संदेष्टा बनाकर भेजा तो सब से पहले आपने अपने पिता को समझाया कि "पिता जी! आप क्यों उन चीज़ों की उपासना करते हैं, जो न सुनती हैं, न देखती हैं, और न आपका कोई काम बना सकती हैं? पिता जी! मेरे पास एक ऐसा ज्ञान आया है जो आपके पास नहीं आया, आप मेरी बात मानें मैं आपको सीधा मार्ग दिखाऊंगा। पिता जी! आप शैतान की पूजा न करें शैतान तो करुणामय ईश्वर का अवज्ञाकारी है। पिता जी! मुझे डर है कि कहीं आप करुणामय ईश्वर के प्रकोप में ग्रस्त न हो जाएं।" (सूरः19 आयत 42-45)
परन्तु पिता ने एक न सुनी और झटकते हुए कहा "हे इब्राहीम! यदि तू अपने इस काम से न रुका तो मैं तुझे पत्थर से मार मार कर बर्बाद कर दूंगा.....बस यही कहता हूं कि तू हमेशा के लिए मुझ से अलग हो जा"।
जब आपको अपने पिता से निराशाजनक उत्तर मिला तो अपने समुदाय के चंद्रमा और सूर्य की पूजा करने वालों को अति तत्वदर्शिता से समझाया, जब रात का अंधकार छा गया तो आपने सब के समक्ष एक सेतारा को देखकर कहा कि यह मेरा भगवान है। परन्तु जब वह डूब गया तो सुबह होते ही कहने लगेः "मैं डूबने वाले की पूजा नहीं कर सकता"। दूसरी रात जब चंद्रमा को देखा तो समुदाय के लोगों से कहने लगेः "यह मेरा भगवान है"। जब वह भी डूब गया तो कहने लगेः "यदि मेरे रब ने मेरा मार्गदर्शन न किया तो मैं पथभ्रष्ट लोगों में से हो जाऊंगा"।
ऐसी शैली मात्र इसलिए अपनाई ताकि समुदाय के लोगों को विश्वास दिला सकें कि आख़िर ऐसी चीज़ों की पूजा से क्या लाभ जो छुपती हों, विदित होती हों, निकलती हों, डूबती हों। पहली रात न समझ सके तो दूसरी रात चंद्रमा को देख कर समझाना चाहा लेकिन फिर भी न समझे तो सुबह में जब सूर्य को निकलते देखा तो कहाः "यह मेरा रब है....यह महान भी है"। फिर जब वह भी डूब गया तो आपने वार्ता समाप्त करते हुए कहाः "हे मेरे समुदाय के लोगो! निःसंदेह मैं तेरे बहुदेववाद से बेज़ार हूं जिन्हें तुम ईश्वर का साझीदार ठहराते हो। मैंने तो एकाग्र हो कर अपना रुख उस सत्ता की ओर कर लिया जिसने आकाश एवं पृथ्वी की रचना की है और मैं कदापि बहुदेववादियों में से नहीं हूं"। (सूरः6 आयत 79-80)
फिर आपने मुर्तिपूजकों को समझाते हुए कहाः"यह मात्र लकड़ी और पत्थर की मूर्तियाँ हैं, यह लाभ अथवा हानि की मालिक नहीं, यह तुमको रोज़ी देने का अधिकार नहीं रखते, केवल तुम अल्लाह से ही रोज़ी माँगो, उसी की उपासना करो,और उसी का शुक्रिया अदा करो। यदि तुम मेरी बात नहीं मानते और मुझे झुटलाते हो तो तुम से पहले भी लोग अपने संदेष्टाओं को झुटला चुके हैं। उन्हों ने भी इब्राहीम अलै0 की एक न मानी और बस... यही रट लगाते रहे कि "आखिर हम इनकी पूजा कैसे छोंड़ दें जबकि हमने अपने पूर्वजों को उनकी पूजा करते हुए पाया है?...."।
आज भी कुछ लोगों को सत्य संदेश बताया जाता है तो तुरंत यही कहते हैं कि हम ऐसी प्रथा का त्याग कैसे कर सकते हैं जो हमारे पितामह से चली आ रही है। इस लिए आपने उनको संतोष-जनक उत्तर देते हुए कहाः "तुम भी अंधकार में हो और तुम्हारे पितामह भी खुले अंधकार में पड़े थे"। अर्थात हमारी आपत्ति जो तुम पर है वही तुम्हारे पूर्वजों पर है, यदि एक गुमराही में तुम्हारे पूर्वज ग्रस्त हों और तुम भी उसमें ग्रस्त हो जाओ तो वह भलाई बनने से रही। मैं कहता हूं कि तुम और तुम्हारे पूर्वज सत्य मार्ग से भटक गए हो।
अब तो उनके कान खड़े हो गए क्यों कि उन्हों ने अपने बुद्धिमानों का अपमान होते देखा औऱ अपने पूर्वजों के प्रति अप्रिय शब्द सुने तो घबरा गए और कहने लगेः "इब्राहीम! क्या वास्तव में तुम ठीक कह रहे हो या मज़ाक कर रहे हो, हमने ऐसी बात कभी नहीं सुनी"?। अब आपको ईश्वर के परिचय का शुभ अवसर मिलाः आपने कहाः "ईश्वर तो केवल आकाश एवं धरती का सृष्टिकर्ता ही है, प्रत्येक चीज़ों का स्वामी वही है, तुम्हारे यह पूज्य किसी तुच्छ चीज़ के न निर्माता हैं, न मालिक। फिर पूज्य कैसे हो गए? मैं साक्षी हूं कि ईश्वर ही उपासना योग्य है, उसके सिवा न कोई प्रभू है औऱ न पूज्य। उसके बावजूद समुदाय के लोगों पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा।
तब ईब्राहीम अलै0 ने अपने दिल में यह ठान ली कि उनकी मुर्तियों का कुछ न कुछ अवश्य इलाज किया जाए। आपने सोचा कि उनके त्योहार का दिन निर्धारित है, उसी दिन यह काम भलि-भांति पूर्ण रूप में सम्पन्न हो सकता है। त्योहार के दिन जब उन से त्योहार में भाग लेने का अनुरोध किया गया तो उन्हों ने कहा कि "मैं बिमार हूं"। जब सब लोग त्योहार मनाने के लिए निकल गए तो एक तेज़ कुल्हारी लिए देवता-वास में प्रवेश किया और प्रत्येक मूर्तियों को टूकड़े टूकड़े कर दी, मात्र बड़ी मूर्ति को रहने दिया ताकि उनके मन मस्तिष्क में यह ख्याल पैदा हो कि शायद बड़ी मूर्ति ने छोटी मूर्तियों को नष्ट कर दिया है।
जब लोग त्योहार से लोट कर आए तो यह देख कर आश्चर्यचकित हो गए कि सारी छोटी मूर्तियां मुंह के बल गिरी हुई हैं। बल्कि उनके पैरों से ज़मीन खिसक गई और कहने लगे कि यह कौन ज़ालिम था जिसने हमारी मूर्तियों का अपमान किया? कुछ लोगों ने कहा कि हमने इब्राहीम को इन पूज्यों के प्रति अपशब्द बोलते सुना है। समुदाय के लोगों ने पारस्परिक परामर्श के बाद यह निर्णय लिया कि सब लोगों के समक्ष इब्राहीम को बुला कर उसे सज़ा दी जाए। अतः जब सब लोग आ गए तो इब्राहीम अलै0 - जो अपराधी के रूप में वहाँ उपस्थित थे - से पूछा गयाः हमारे पूज्यों के साथ यह अपमानजनक कर्म किसने किया है ? उस पर इब्राहीम अलै0 ने कहाः "बल्कि यह काम इस बड़ी मूर्ति ने किया है, तुम अपने इन पूज्यों से ही पूछ लो, यदि यह बोलते हों"। अभिप्राय यह था कि लोग स्वयं समझ लें कि यह पत्थर क्या बोलेंगे, और जब वह इतने विवश हैं तो वह पूज्यनीय कैसे हो सकते हैं?। इस ठोस उत्तर ने उन्हें थोड़ी देर के लिए हिला कर रख दिया, निराशाजनक शैली में कहने लगे कि हमने स्वयं ग़लती की, अपने पूज्यों के पास सुरक्षा-दल रखे बिना त्योहार मानाने चले गए। फिर चिंतन मनन के पश्चात यह बात बनाई कि "तुम जो यह कहते हो कि हम उन से पूछ लें.... तो क्या तुम्हें पता नहीं कि वह बोलते नहीं हैं?...."।
अब इब्राहीम अलै0 को अपने संदेश के परिचय का शुभ अवसर मिल गया, अति दयालू होने के बावजूद तनिक ठोस स्वर में उनको सम्बोधित कियाः "खेद है कि तुम उनकी पूजा करते हो जो न तुम्हें कुछ भी लाभ पहुंचा सकें, न हानि। धिक्कार है तुम पर और तुम्हारे उन देवताओं पर जिनकी तुम ईश्वर को छोड़ कर पूजा करते हो, यह तो गूंगे और बहरे हैं, बोलने तक की क्षमता से वंचित हैं तो तुम्हारी सहायता कैसे करेंगे, क्या तुम कुछ भी बुद्धि नहीं रखते?"।
नियम यह है कि जब एक व्यक्ति प्रमाण से निरुत्तर हो जाता है तो भलाई उसे घसेट लती है अथवा बुराई उसपर अधिकार प्राप्त कर लेती है। यहाँ उन लोगों को उन के दुर्भाग्य ने घेर लिया और अपने दबाव का प्रद्रशन करने के लिए ईब्राहीम अलै0 को आग में जलाने का लिर्णय ले बैठे। लकड़ियाँ एकत्र की गईं, पृथ्वी में एक गहरा कुवां खोदा गया, लकड़ियों से उसे भर दिया गया। फिर उसमें आग लगा दी गई। आसमान से बातें कर रही अग्नि में ईब्राहीम अलै0 को डाल दिया गया। जिस समय आपको अग्नि में डाला गया आपने मात्र यह शब्द बोला कि "अल्लाह हमारे लिए काफी है और वह उत्तम सहायक है"। उसी समय ईश्वर की ओर से अग्नि को आदेश मिला कि "हे आग! ठण्डी हो जा और सलामती बन जा इब्राहीम पर" हर ओर से अग्निशिखा निकल रही थी परन्तु आग ने आपको छुआ तक नहीं और वह अहानिकारक बन कर रह गई (शेष अगले पोस्ट पर )
Thursday, November 19, 2009
राष्ट्रीयता के प्रश्न पर चर्चा करेगा अब ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ aziz-burney-final-shots-vande-matram
रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है। AZIZ BURNEY ---- Group Editor Roznama Rashtriya Sahara (Daily) Bazme Sahara (Weekly) Aalmi Sahara (Monthly)
पहली कडी
इस समय मैं केवल एक लेखक, एक पत्रकार या एक सम्पादक की हैसियत से ही स्वयं को नहीं देख रहा हूं, और इस समय मैं स्वयं को बस एक मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में भी नहीं महसूस कर रहा हूं, बल्कि मेरी इस बात को एक निष्पक्ष रिसर्च इस्कोलर के शोध पर ही आधारित समझें तो किसी सही नतीजे पर पहुंच सकेंगे। आज का यह लेख निःसन्देह मेरे नियमित पाठकों के लिए लिये तो है ही परन्तु साथ में इस लेख के द्वारा अपने हमवतन भाई बहनों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहता हूं इसलिए कि मेरे सामने राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखी वह पंक्ति है जिस पर दर्ज है ‘‘सत्यमेव जयते’’ अर्थात सच्चाई की जीत होती है।
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।
इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।
मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’
इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।
हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।
यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’
पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?
एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:
‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः
‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।
और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।
‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’
जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’
‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।
‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’
अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?
क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।
किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।
मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......
रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है। AZIZ BURNEY ---- Group Editor Roznama Rashtriya Sahara (Daily) Bazme Sahara (Weekly) Aalmi Sahara (Monthly)
पहली कडी
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।
इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।
मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’
इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।
हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।
यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’
पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?
एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:
‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः
‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।
और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।
‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’
जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’
‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।
‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’
अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?
क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।
किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।
मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......
-----आज बात राष्ट्रीयता पर। रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा का सम्पादक हूं मैं और वो भी पहले ही दिन से, इसलिए यह अधिकार तो बनता है मेरा, ‘‘राष्ट्रीयता’’ शब्द पर बात करने का। वैसे भी मैं अपने आपको पूरी तरह राष्ट्रीय मानता हूं। यहां मुसलमान होने की तुलना की जाने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, वह धर्म है मेरा और यह राष्ट्रीयता है मेरी। बहरहाल 1991 में जब ‘राष्ट्रीय सहारा’ आरम्भ हुआ तब हिन्दी के बाद उर्दू में नाम राष्ट्रीय सहारा ही रहे या राष्ट्रीय शब्द का उर्दू अनुवाद अर्थात ‘‘क़ौमी सहारा’’ रखा जाए, यह तय किया जाना था। परम आदरणीय सुब्रत राय सहारा अर्थात सहारा श्री जी ने यह निर्णय हम पर छोड़ते हुए कहा कि आप बताएं क्या उचित रहेगा?
उस समय यह मेरा ही फैसला था जिसे चेयरमैन साहब व अन्य सभी के द्वारा स्वीकार कर लिया गया और इस तरह तय पाया कि उर्दू में नाम ‘‘राष्ट्रीय सहारा’’ ही रहेगा। आज हमारी अंग्रेज़ी पत्रिका ‘सहारा टाइम’ और टीवी चैनल ‘सहारा समय’ के नाम से पहचाने जाते हैं लेकिन उर्दू ‘‘रोजनामा राष्ट्रीय सहारा’’ के नाम से ही। उस समय मुझे यह बिल्कुल अनुमान नहीं था कि 18 वर्ष बाद जब राष्ट्रीय गीत ‘‘वंदे मातृम’’ पर बहस छिड़ी होगी तो रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
दूसरी कडी
दारूल उलूम देवबन्द का सवाल कितना उचित कितना अनुचित ?
सबसे पहले तो मैं अपने तमाम पाठकों और देशवासियों की सेवा में यह निवेदन करना चाहता हूं कि वंदे मातृम की स्वीकार्यता या उसके गाए जाने को किसी धर्म की पृष्ठ भूमि में देखना उचित नहीं होगा, बल्कि इसे राष्ट्रीय परिदृश्य में देखना होगा, राष्ट्र प्रेम के दृष्टिकोण से देखना होगा और यह भी दिमाग में रखना होगा कि इस पर आपत्ति केवल मुसलमानों की तरफ़ से ही नहीं बल्कि स्वयं राबिन्दर नाथ टैगोर जिनकी रचना को राष्ट्रगान होने का सम्मान प्राप्त है। और जिन्होंने इसकी पहली दो पंक्तियों को 1896 में गाया था। उन्होंने इस पर आपत्ति भी जाहिर की थी, और इस आपत्ति में वह अकेले नहीं थे, बल्कि ‘‘ब्रह्मो समाज’’ से संबंध रखने वाले हिन्दू भद्रजन भी मुसलमानों के साथ-साथ आपत्ति करने वालों में शामिल थे।
निःसंदेह कि अब मेरा यह श्रृंखलाबद्ध लेख ‘‘वंदे मातृम’’ पर केन्द्रित है जिसे राष्ट्रगीत क़रार दिया गया है परन्तु मैं आज उन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक का स्थान प्राप्त है। अतएव सबसे पहले ‘‘राष्ट्रीय ध्वज’’ की बात करना चाहूंगा। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में तीन अलग-अलग रंग की सीधी पट्टियां हैं, जिनमें समान अनुपात में गहरा केसरिया रंग सबसे ऊपर है, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। सफ़ेद पट्टी के बीच में नीले रंग का चक्कर, जिसे अशोक के चक्र से लिया गया है, जिसमें 24 तीलियां हैं, इसे राष्ट्रीय ध्वज की हैसियत से 22 जुलाई 1947 को अपनाया गया।
यूं तो रंगों का कोई धर्म नहीं होता फिर भी रंगों को धर्मों की पहचान से जोड़ कर भी देखा जाता है और इस दृष्टि से अगर देखें तो हरे रंग को मुसलमानों से और केसरिया रंग को हिन्दुओं से जोड़ कर देखा जाता है। जिस समय हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार किया गया क्या मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति की कि हरा रंग सबसे नीचे क्यों है? स्वाधीनता की लड़ाई में हम किसी से पीछे तो न थे और क्या इस बात पर आपत्ति की गई कि भगवा रंग सबसे ऊपर क्यों है? क्या किसी ने कहा कि चलो सफ़ेद रंग जो अमन व शान्ति का प्रतीक है उसे ही सबसे ऊपर रखा जाए, या झंडे की शक्ल कुछ ऐसी हो कि केसरया और हरा रंग बराबरी के महत्व के साथ शामिल किए जाएं न कोई ऊपर न कोई नीचे, शायद नहीं।
यह भी ध्यान में रहे कि जिस समय अर्थात 22 जुलाई 1947 को इसे हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया उस समय तक पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आया था, अर्थात यह राष्ट्रीय ध्वज सभी के लिए स्वीकार्य था, सभी की रज़ामंदी से स्वीकार किया गया था, अर्थात इस निर्णय में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे सरदार पटेल भी और मुहम्मद अली जिन्ना भी और बात केवल एक जिन्ना की नहीं, बल्कि वह समस्त मुसलमान भी शामिल थे जो बाद में पाकिस्तान के नागरिक कहलाए, किसी को भी इस ध्वज पर कोई आपत्ति नहीं थी।
अब बात राष्ट्रीय चिन्ह की- हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जो कि अशोक के सिंह इस्तम्भ, शेरों वाली लाठ से लिया गया है, जिसमें चार शेर एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं, नीचे घण्टे की शक्ल के पदम के ऊपर एक चित्र, वल्लरी में एक हाथी चैकड़ी भरता हुआ, एक घोड़ा, एक सांड और एक शेर की उभरी हुई मूर्तियां हैं इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं जो लोहे के पत्तल को काट-काट कर बनाए गए हैं। संग स्तम्भ के ऊपर धर्म चक्र रखा हुआ है। इसमें केवल तीन शेर दिखाए देते हैं चैथा दिखाई नहीं देता, पट्टी के बीचों-बीच उभरी हुई नक्काशी में चक्कर है जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं और बाएं किनारों पर अन्य चक्करों के किनारे हैं। भारत सरकार ने इस चिन्ह को 26 जनवरी 1950 को अपनाया
‘‘मंडिकोपनिषद (उपनिषद का नाम) का सूत्र के बाद ‘सत्यमेव जयते’ देवनागरी लिपि में अंकित है जिसका अर्थ है सत्य की ही विजय होती है।’’
इस राष्ट्रीय प्रतीक पर कोई टिप्पणी न करते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूंगा कि क्या कोई आपत्ति किसी भी ओर से देखने या सुनने को मिली? किसी इस्लामी संस्था या मुसलमानों के प्रतिनिधियों ने कभी इसे वाद-विवाद का विषय बनाया? शायद कभी नहीं?
यह बात कुछ केन्द्रीय विषय से अलग लग सकती है मगर मैं अपने पाठकों से निवेदन करना चाहता हूं कि इस शुष्क लेख को इसलिए सहन कर लें कि इन पंक्तियों के द्वारा मैं कोई महत्वपूर्ण बात करने का इरादा रखता हूं। शायद इसे उस समय तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि बात पूरी न हो जाए। अलबत्ता इरादा क्या है यह मैं शुरू में ही सामने रख देना चाहता हूं ताकि पढ़ने वालों और सुनने वालों की दिलचस्पी बनी रहे इस लेख के अन्तर्गत, मैं इन तमाम प्रतीकों पर बात करना चाहता हूं जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय प्रतीक स्वीकार करते हैं जो हमारी राष्ट्रीय निशानियां हैं।
उसके बाद मैं साबित यह करना चाहता हूं कि यदि तमाम राष्ट्रीय निशानियों में से किसी एक पर भी ऐसी आपत्ति देखने को नहीं मिली जैसी कि वंदे मातृम पर देखने को मिल रही है तो हमें पूरी ईमानदारी से इस पर ध्यान देना होगा कि आख़िर इसका कारण क्या है और हमें इस सच्चाई पर भी ध्यान देना होगा कि हमारी इन सभी राष्ट्रीय निशानियों के से ऐसी कोई भी निशानी नहीं है, सिवाए वंदे मातृम के जहां हमने किन्हीं दो राष्ट्रीय निशानियों को एक ही श्रेणी में रखा हो।
उदाहरणतः हमारा राष्ट्रीय ध्वज एक है तो है, दो राष्ट्रीय ध्वजों को यह सम्मान प्राप्त नहीं है कि हम दोनों को अपना राष्ट्रीय ध्वज मानें। अगर हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जिसका अभी उल्लेख किया एक है तो है, जो सभी के लिए स्वीकार्य है, ऐसा नहीं कि हमने दो राष्ट्रीय चिन्ह अर्थात राष्ट्रीय निशान स्वीकार कर लिए हों और दोनों को एक जैसी हेसियत प्राप्त हो, तब फिर ऐसी क्या विवश्ता हमारे सामने आई कि हमारे एक राष्ट्रगान के होते हुए हमें एक और राष्ट्रीय गीत की आवश्यकता महसूस हुई? यह उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि हमने राष्ट्रीय पंचांग अर्थात केलण्डर भी एक ही माना है, जबकि एक से अधिक केलण्डर भारत में आज भी मौजूद हैं और प्रयोग में भी। राष्ट्रीय पशु एक ही है, किसी ने यह बहस नहीं की कि उसके पसंदीदा अन्य किसी पशु को भी राष्ट्रीय पशु का स्थान प्राप्त हो।
राष्ट्रीय पक्षी वह भी एक ही सबको स्वीकार्य है, यहां तक कि राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय वृक्ष, राष्ट्रीय फल किसी पर न कोई विवाद न बहस न एक साथ दो वृक्ष, दो फूल या दो फल एक जैसे महत्व वाले। अर्थात तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों में केवल एक राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत यही दो हैं और इनमें से भी विवाद केवल ‘‘वंदे मातृम पर है और यह विवाद भी इतना कि इसे राष्ट्र से प्रेम की कसौटी बनाकर पेश किया जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो सम्भवतः हमारी बहस इतनी लम्बी न होती, मगर अब चूंकि यह राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय है और हमारे बनाए बिना है तो फिर यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि तमाम सच्चाइयों के साथ इसे राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय परिपेक्ष में राष्ट्र के सामने रख दें फिर जो निर्णय राष्ट्र का।
नोटः आज से हम रोज़ एक ऐसा गीत भी प्रकाशित करने जा रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष के दौरान लिखा गया और गाया गया ताकि हमारे पाठक अनुमान कर सकें कि किस-किस गीत ने आज़ादी के मतवालों के दिलों में वह स्थिति पैदा की होगी कि हमारी आज़ादी का सपना वास्तविकता में बदल गया और हम गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने में कामयाब हुए, और साथ ही यह भी कि वह आज़ादी के गीत किस-किस ने लिखे और किस-किस भाषा में। हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय वह कौन-कौन सी भाषाएं थीं जो लोकप्रिय थीं और किन-किन भाषाओं में कही जाने वाली बात कितना प्रभाव रखती थी। अगर हमारी बात को समझना ज़रा भी कठिन लगे तो याद करें लता मंगेशकर की आवाज़ में गूंजने वाला यह गीत:
‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों! ज़रा आँख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कु़रबानी’’।
..............(जारी)
हमारा देस
जग से भला संसार से प्यारा।
दिल की ठन्डक आंख का तारा।
सबसे अनोखा सबसे नियारा।
दुनिया के जीने का सहारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
इसके दरया, इसके समुन्दर।
इसके संगम, इसके बंदर1।
प्रेम की मूरत, प्रीत का मंदर।
हुस्नो मुहब्बत का गहवारा2।
प्यारा भारत देस हमारा।।
कितनी पुर क़ैफ़3 इसकी अदाएं।
कितनी दिलकश इसकी फ़िज़ाएं।
मुश्क से बढ़कर इसकी हवाएं।
ख़ुल्द4 से बेहतर इसका नज़ारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
मुल्क को हासिल हो आज़ादी।
ख़त्म हो दौरे सितम ईजादी5।
दूर हो इसकी सब बरबादी।
चर्ख़े6 पे चमके बन के तारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हम में पैदा हो यक जाई।
सब हों बाहम भाई भाई।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई।
गाएं मिलकर गीत यह प्यारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हकीम मोहम्मद मुस्तफा ख़ां
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हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हिन्दू धर्म के प्रतीक भी हैं
क़ुरआने करीम पूर्ण जीवन दर्शन है, मानव जीवन के लिए। विश्व की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे क़ुरआने करीम की रोशनी में समझा न जा सके। आयाते क़ुरआनी को समझना जब हमारे लिए मुश्किल होता है तो हम हदीस की तरफ़ लौटते हैं और जब कोई हदीस समझ से ऊपर होती है तो हम क़ुरआन की तरफ़ लौटते हैं। क़ुरआने करीम के द्वारा ईश्वर ने क्या संदेश दिया है इसे समझने के लिए कभी-कभी केवल आयाते क़ुरआनी को पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि हमें अनुवाद, टीकाऐं और उसके उतरने के कारण का भी सहारा लेना पड़ता है। जब हम इस दृष्टिकोण से ध्यान पूर्वक अध्य्यन कर लेते हैं तब उस संदेश तक पहुंचना बहुत सरल हो जाता है।यही कार्य पद्धति यदि हम विश्व के सभी मामलों में गूढ़ समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यवहार में लाएं तो इस पवित्र आकाशीय पुस्तक का प्रकाश हर दृष्टिकोण से हर पक्ष को स्पष्ट कर देता है। ‘वन्दे मातरम’ भारतीय समाज के लिए पिछले लम्बे समय से अनसुल्झी पहेली बना हुआ है। अक्सर इस पर विवाद खड़ा हो जाता है, लम्बी बहस चलती है, फिर लोग थक जाते हैं, नई समस्याऐं अपनी ओर ध्यान केन्द्रित कर लेती हैं और यह समस्या पीछे चली जाती है। आज़ादी के पूर्व से लेकर अब तक इसी प्रकार यह सिलसिला जारी है।यदि दारूल उलूम बेवबंद की गरिमा को निशाना न बनाया जाता तो शायद हमें इतनी गहराई से शोध की आवश्यक्ता पेश न आती। परन्तु अब जबकि देशवासियों के एक वर्ग विश्ेष ने देशप्रेम का पैमाना वन्दे मातरम को ही मान लिया है तो हमें ज़रूरी लगा कि क़ौम के दामन पर दाग़ लगाने की इस कोशिश को असफ़ल बनाने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ तमाम तथ्यों को भारत सरकार और जनता के सामने रख दिया जाये। मैं फिर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वन्दे मातरम के सम्बंध में मेरे लेख न तो इसके विरोध में हैं और न इसके समर्थन में। हमारा प्रयास तो बस इतना है कि हम सब तमाम सच्चाइयों को खुली आंखों से देख लें फिर जिसकी सद्बृद्धि जो उचित समझे.कोई भी बात कब कही गई, किन परिस्थितियों में कही गई, किस काल में कही गई और किस अवसर पर कही गई, जब तक हम इसका अध्य्यन नहीं करेंगे, बात की गहराई तक पहुंचना आसान नहीं होगा। राष्ट्र गीत की हैसियत रखने वाले वन्दे मातरम पर बहस आरम्भ करने के तुरन्त बाद मैंने आवश्यक समझा कि इस ऐतिहासिक परिदृश्य की ध्यान पूर्वक विवेचना की जाये, कि जब इसे लिखा गया वह परिस्थितियाँ किया थीं? लिखने का कारण क्या था? काल क्या था और कब इसे ‘राष्ट्र गीत’ का दर्जा दिया गया? साथ ही हमारी राष्ट्रीय पहचान से सम्बद्ध जितनी भी निशानियाँ हैं उनका भी गहराई से अध्य्यन किया जाये।
यह भी देखा जाये कि केवल राष्ट्र गीत ही दो हैं या हमारी अन्य राष्ट्रीय निशानियाँ भी दो-दो हैं फिर जब हम किसी एक का चुनाव करते हैं तो हमारी नज़र इस वर्ग में आने वाली अन्य अनेक चीज़ों पर भी होती है, उदाहरण स्वरूप मैं अपने लेख के साथ पिछले कई दिन से एक-एक कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता, गीत, तराना या आज की लोरी सब के सब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन कविगण द्वारा लिखे गए जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों का काव्य है, जो स्वतंत्रता सैनानियों के उत्साह को बढ़ाने के इरादे से लिखी गयीं।
आज इस लेख के साथ प्रकाशित की जाने वाली लोरी मोहतरम अख़तर शीरानी की कृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि इस दौर में एक माँ अपने अल्पायु बच्चे को नींद की गोद में पहुंचने से पूर्व भी उसे देशभक्ति का गीत सुनाती थी और उसके मन व मस्तिष्क में वह उत्साह पैदा करती थी कि वह अपने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन बिताये। यह भावना थी हमारे शायरों की और यह वह गीत हैं जिनसे घबरा कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़ब्त कर लिया था। इसलिए कि वह समझते थे कि उनका प्रभाव इतना गहरा है कि उनकी सरकार की चूलें हिल सकती हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या ‘वन्दे मातरम्’ भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़ब्त किया गया?
शोध जारी है, वैसे भी अभी मैंने सीधे रूप में वन्दे मातरम् पर बहस का सिलसिला शुरू नहीं किया है, हां अल्बत्ता आनन्द मठ के कुछ हवाले ज़रूर पेश किये हैं। इन्शा अल्लाह जल्द ही तमाम विस्तार के साथ इस पर भी क़ल्म उठाया जायेगा। अभी तक तो राष्ट्रीय प्रतीकों पर बातचीत जारी थी, इनमें से जिन तीन का उल्लेख शेष रह गया आज उस पर बात समाप्त करना चाहता हूँ और वह तीन प्रतीक हैं हमारा राष्ट्रीय फल, राष्ट्रीय फूल और राष्ट्रीय वृक्ष।हमारा राष्ट्रीय फल ‘आम’ है वेदों में आम को भगवान का फल बताया गया है, मैं इस पर कोई बहस नहीं करना चाहता, मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत पसन्द थे और शायद सभी भारतियों की पहली पसन्द भी आम हैं। हां फूल पर कुछ वाक्य अवश्य लिखना चाहेंगे। ‘कमल’ के फूल को भारत मंे प्राचीन काल से ही पवित्र माना जाता रहा है और भारतीय देवमाला में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए यह फूल विशेष महत्व रखता है। इस धर्म के अनुसार कमल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी और पार्वती से जोड़ा जाता है। भगवान विष्णु के सौन्र्दय का उल्लेख करने के लिए कमल से उनको उपमा दी जाती है, अनेक धार्मिक रीतियों को पूरा करने में भी कमल के फूल का प्रयोग किया जाता है।वेदों में भी कमल का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि इन्ही विशेषताओं के आधार पर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनाव चिन्ह चुना है। अन्यथा पण्डित जवाहर लाल नेहरू की शेरवानी पर मुस्कराने वाला गुलाब का फूल भी अपने सौन्र्दय और सुगन्ध के लिए तमाम फूलों में एक विशेष स्थान रखता है और वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रेम करने वाले युवा लड़के लड़कियों के द्वारा फूल उनका प्रेम सन्देश बन कर उनके प्रेमी तक पहुंचता है और हमारे लिए तो इसका महत्व यूँ भी बढ़ जाता है कि ख़वाजा ग़रीब नवाज़ (रह।) की दरगाह हर समय इसी गुलाब की सुगन्ध से महकती रहती है और यह फूल तीर्थ स्थल ‘पुष्कर’ से आता है।
बहरहाल अब उल्लेख राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ का। नीम के हवाले से आयुर्वेद और यूनानी दवाइयों के विशेषज्ञ बहुत कुछ कहते हैं, हमारे पूर्वज भी नीम के वृक्ष को आंगन में लगाना स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक समझते हों, यह सब अलग बात है, परन्तु हमारा राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ है। जब मैं बरगद की विशेषताओं का अध्य्यन कर रहा था तो इतनी सामग्री मेरे सामने थी कि कई लेख केवल बरगद के धार्मिक पहलू को सामने रख कर लिखे जा सकते हैं। फल और फूल की दृष्टि से तो बरगद का उल्लेख निरर्थक है, इसलिए कि इस पर लगने वाले फूल और फल उल्लेखनीय नहीं, हां अल्बत्ता इसकी विशालता शेष सभी वृक्षों से बढ़कर है।अब रहा प्रश्न इसे हिन्दू धर्म के महत्व के रूप में देखने का तो प्राचीन काल से ही भारत में इसकी पूजा की जाती रही है। ऋज्ञ वेद और अथर वेद ने इसकी पूजा को अनिवार्य क़रार दिया है। हिन्दू देव माला में भगवान शिव को बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुयायी इसे ‘कल्प वृक्ष’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि एक ऐसा वृक्ष जो तमाम मुरादों को पूरा करता है। सम्भव है इसका एक कारण यह भी रहा हो कि जब चित्रकूट की ओर जाते हुए सीता जी के रास्ते में यह वृक्ष पड़ा तो उन्होनें इसे नमस्कार किया और अपने पतिव्रत धर्म के पालन के लिए इस वृक्ष से प्रार्थना की। हाथ जोड़ कर सीता जी बहुत देर तक मौन इसके सामने खड़ी रहीं और अपनी मुराद को पूरा करने की प्रार्थना की जिसे संस्कृत के इस श्लोक में दर्शाया गया हैतेषु ते प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात् ।श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम् ।।न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत ।नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम् ।।
रामायण, अयोध्या काण्ड, 2, पृष्ठ 23-24, 55
‘हे महावट वृक्ष जो यमुना के किनारे स्थित है और शीतल छाया से आच्छादित है, मुझे पतिव्रता धर्म का पालन करने की सार्मथ्य दो और निर्विधनता का आर्शीवाद दो।’और जब बनवास से सीता जी श्रीराम जी के साथ वापस लौट रही थीं तो इस सृन्दर वृक्ष को देख कर श्रीराम जी ने सीता जी को सम्बोधित करके कहा कि तुम ने जिस वृक्ष से प्रार्थना की थी, यह अन्य वृक्षों के बीच इस समय ऐसा ही स्पष्ट नज़र आ रहा है जैसे अनेक नीलमों के बीच पुखराज जड़ा हो। सम्भवतः सही कारण है कि आज भी विवाहित हिन्दू महिलाएं लम्बे और ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन के लिए बरगद की पूजा करती हैं।अपने इन राष्ट्रीय चिन्हों के सम्बंध में और भी कुछ लिखा जा सकता है परन्तु हम बात को और लम्बा नहीं करना चाहते, इसलिए कि हमें अब वन्दे मातरम् की तरफ़ लौटना है, हां इतना लिखने के पीछे भी उद्देश्य केवल यह था कि इस खोज से जो सच्चाई सामने आती है उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि तमाम राष्ट्रीय चिन्हों का चुनाव करते समय हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत के भाग्य विधाताओं ने क़दम-क़दम पर एक धर्म विशेष के प्रतिनिधित्व का ख़याल रखा था।
लोरी
कभी तो रहम पर आमादा बे रहम आसमाँ होगा।
कभी तो ये जफ़ा पेशा मुक़द्दर मेहरबाँ होगा।
कभी तो सर पे अब्रे रहमते हक़ गुलफ़िशां होगा।
मुसर्रत का समाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
किसी दिन तो भला होगा ग़रीबों की दुआओं का
असर ख़ाली न जाएगा ग़म आलूद इलतिजाओं का।
नतीजा कुछ तो निकलेगा फकीराना सदाओं का।
ख़ुदा गर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
ख़ुदा रख्खे जवाँ होगा तो ऐसा नौजवाँ होगा।
हुसैन व फ़हमदाँ होगा दिलेरो तैग़रां होगा।
बहुत शीरी जुबाँ होगा बहुत शीरी बयाँ होगा।
यह महबूबे जहाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
वतन और क़ौम की सौ जान से ख़िदमत करेगा यह।
ख़ुदा की और ख़ुदा के हुक्म की इज़्ज़त करेगा यह।
हर अपने और पराए से सदा उल्फ़त करेगा यह।
हर इक पर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
मेरा नन्हा बहादुर एक दिन हथियार उठाएगा।
सिपाही बनके सूए अर्सा गाहे रज़्म जाएगा।
वतन के दुश्मनों की ख़ून की नहरें बहाएगा।
और आख़िर कामरां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन की जंगे आज़ादी में जिसने सर कटाया है।
ये उस शैदाए मिल्लत बाप का पुरजोश बेटा है।
अभी से आलमें तिफ़ली का हर अन्दाज़ कहता है।
वतन का पासबां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
है उसके बाप के घोड़े को कब से इन्तिज़ार उसका।
है रस्ता देखती कब से फ़िज़ाए कारज़ार उसका।
हमेशा हाफ़िज़ो नासिर रहे परवरदिगार उसका।
बहादुर पहलवाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन के नाम पर इक रोज़ यह तलवार उठाएगा।
वतन के दुश्मनों को कुन्जे तुरबत में सुलाएगा।
और अपने मुल्क को ग़ैरों के पंजे से छुड़ाएगा।
ग़ुरूरे ख़ान्दाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सफ़े दुश्मन में तलवार उसकी जब शोले गिराएगी।
शुजाअत बाज़ुओं में (आग) बन के लहलहाएगी।
जबीं की हर शिकन में मर्गे दुश्मन थरथराएगी।
यह ऐसा तेग़ रां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सरे मैदान जिस दम दुश्मन उसको घेरते होंगे।
बाजाए ख़ूं रगों में उसकी शोले तैरते होंगे।
सब उसके हमला ऐ शेराना से मुंह फेरते होंगे।
तहो बाला जहां होगा।
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
अख़्तर शीरानी
1।अत्याचारी, 2। ईश्वरीय कृपा के बादल, 3। फूलों की वर्षा, 4. ख़ुशी, 5. दुखमय, 6. याचनाएं, 7. आवाज़ें, 8. समझदार, 9. कटार चलाने वाला (योद्धा), 10. मीठा, 11. प्रेम, 12. तरफ़, 13. युद्ध का मैदान, 14. सफल, 15. राष्ट्र प्रेमी, 16. बचपन, 17. रखवाला, 18. युद्ध का वातावरण, 19. रखवाला, 20. सहायक, 21. पालनहार, 22. क़ब्र का कोना, 23. गर्व, 24. पंक्ति, 25. बहादुरी, 26. माथा, 27. मृत्यु, 28. शेरों जैसा आक्रमण, 29. उलट-पलट
Monday, November 16, 2009
मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी real-hero-islam

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हज़रत मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी
योद्धा सृष्टा, इमामुल मनाजिरीन और बानीये दारूल उलूम हरम मदरसा सौलतिया मक्क़ा मुअज्जमा हज़रत मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी जमादीउल अव्वल 1233 हिजरी को कस्बा कैराना (जिला मुजफ़्फ़रनगर, यू.पी.) में पैदा हुये। आप के जद्दे आला (पूर्वज) शेख अब्दुर्रहमान गाजरोनी थे जो सलतन्त महमूद के साथ हिन्दोस्तान आये और पानीपत में निवास कर लिया आप के जन्म से पूर्व माता ने सपना देखा कि तेरे यहाँ चाँद समान पुत्र पैदा होगा और उसका प्रकाश समस्त संसार में फैलेगा! मौलाना रहमतुल्ला ने 12 वर्ष की आयु में कुरान मजीद स्मरण कर दीनियात और फारसी की प्राथमिक पुस्तकें अपने बडों से पढ़ी तत्पश्चात शिक्षा ग्रहण हेतु देहली प्रस्थान किया और मौलाना मौहम्मद हयात साहब के मदरसे में प्रविष्ट हुये, मौलाना मौहम्मद हयात के मदरसे के विषय में सर सैयद ने लिखा है कि आप की शिक्षा के प्रसार से निम्न श्रेणी का शिक्षार्थी उस वक्त के विद्वानों से उच्च कोटि का माना जाता था। दूसरे महत्वपूर्ण शिक्षक मौलाना अब्दुर्रहमान चिश्ती थे जो उस्ताद शाहे वक्त हयात साहब के शिष्यों मे थे और सम्पूर्ण ज्ञान में दक्षता रखते थे। हकीम फैज मौहम्मद साहब जो कि अपने जमाने के प्रसिद्ध एवं योग्य चिकित्सक थे, उन से ज्ञानर्जन किया। आप का शजरा नसब (वंश लता ) से ज्ञात होता है कि हर युग में इस वंश ने चिकित्सा सेवा की है मुगल बादशाह जहाँगीर के वज़ीर नवाब मुकर्रब खाँ कैरानवी ने चिकित्सकीय सेवा के साथ साथ महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किये थे। लेखक लोकारनम से गणित की शिक्षा पायी, दूषित वातावरण और हिन्दोस्तान में ईसाईयत के बढते हुये प्रभुत्व को रोकने की चिंता ने आपको इस का अवसर न दिया कि आप अपनी शिक्षा को यथावत जारी रख सकें। दरबार कैराना की मसजिद में मौलाना ने एक दीनी मदरसा स्थापित किया इस मदरसे से लाभान्वित शिक्षार्थियों में मौलाना अब्दुस्समी, लेखक ‘हम्द बारी’ योग्य विद्यार्थी प्रसिद्ध हुये। मौलाना मरहूम की शादी 1256 हिजरी में अपनी खाला की लडकी से हुयी देहली में महाराजा हिन्दुराव के यहाँ अमीर मुन्शी बन कर रहे कुछ घरेलू मजबूरियों के कारण मौलाना को कैराना वापिस आना पडा, कैराना पहूँचकर पठन तथा पाठन के साथ रददे नसारा ;ईसाईयत के विरोध मेंद्ध पर महत्वपूर्ण पुस्तक, इजालतुल औहाम लिखनी शुरू की इस पुस्तक की छपाई के दौरान ही मौलाना बहुत बीमार हो गये एक रोज मौलाना फजर की नमाज के पश्चात रोने लगे सम्बन्धियों ने समझा कि आप जीवन से निराश हो गये हैं। आपने बताया कि ब खुदा स्वस्थ होने का कोई लक्षण नहीं परन्तु आराम होगा इन्शा अल्लाह रोने का कारण यह है कि सपने में हजूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम तशरीफ लाये, हजरत सददीके अकबर साथ हैं। हजरत फरमाते हैं ए जवान तेरे लिये रसूलुल्लाह की यह खुशखबरी है अगर तकलीफ ‘इजालतुल औहाम’ की वजह है तो वह आराम की वजह भी होगी, अल्हम्दु लिल्लाह वह स्वस्थ हो गये। इस पुस्तक में ईसाइयत के अकसर प्रश्नों के उत्तर हैं। इजालतुल औहाम के छपने से पहले ही देहली में काफी प्रसिद्धी हो गयी जिस का विरोध भी प्रारम्भ होगया इस कारण मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने उस समय के योग्य विद्वान मौलाना नूरूल हसन साहब कांधलवी को छपाई हेतु तैयार कागजात संशोधन के लिये भेजे थे, मौलाना रहमतुल्लाह साहब इजालतुल औहाम की छपाई के विषय में देहली आये तो उन की भेंट काक्टर वजीर खाँ से हुयी जो मौलाना रहमतुल्लाह के सच्चे सहायक मित्र सिद्ध हुये। डाक्टर साहब आगरे में अंग्रजी चिकित्सालय में प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित थे। अंगे्रजी की उच्च शिक्षा के कारण अंगे्रजी अवतरणों की व्याख्या करने में मौलाना के सहायक बन गये मौलाना ने उनको कई स्थान पर रहमत के फरिशत जैसा बताया है। डाक्टर वजीर खाँ जब डाक्टरी की डिग्री लेने इंग्लेण्ड गये तो वहाँ से इसाईयों की बहुत सी धार्मिक पुस्तकें साथ लेते आये उन पुस्तकों का अवलोकन आगरे के मुनाजिरे (तर्क वितर्क)में बहुत काम आया, डाक्टर साहब अंग्रजी के अलावा इबरानी यहूदी भाषा भी जानते थे। आगरे में ईसाई पादरी, उलमा के मौनधारण से अनुचित लाभ उठाते थे और जनता में परोपेगन्डा करते फिरते थे कि हमारे धर्म की सत्यता का भय इतना है कि हिन्दोस्तानी विद्वान हमारे तर्क का उत्तर नहीं दे सकते और अपने धर्म इस्लाम की सत्यता सिद्ध नहीं कर सकते इसी बीच मौलाना रहमतुल्लाह वजीर खाँ के निमनत्रण पर आगरे गये, आगरे में मौलाना के दो मुनाजरे हुये जो कि छोटा मुनाजरा, बडा मुनाजरा के नाम से प्रसिद्ध हैं। छोटा मुनाजरा दो तीन पादरी मौलाना रहमतुल्लाह और डाक्टर वजीर खाँ के बीच हुआ जिस में पादरियों को पराजय का मुँह देखना पडा लेकिन यह बात उन लोगों तक ही सीमित रही इस कारणवश मौलाना ने बडे मुनाजरे की तैयारी की ताकि दुनिया देखे और सुने। मौलाना की कोशिशों से पादरी फन्डर आम मुनाजरे के लिये तैयार हुआ शर्त यह तय पायी कि जो हार जायेगा दूसरे का धर्म स्वीकार कर लेगा। मुनाजरा तीन दिन चलना था मगर दो रोज की पराजय ने पादरियों को तीसरे दिन मुँह दिखाने के काबिल न छोडा और वह न आये। मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी और डाक्टर वजीर खाँ ने इन्जील, बाईबिल के जो नुसखे जमा किये थे उन्हें भरे मजमें में दिखाकर यह साबित किया कि किसी में कुछ हटा दिया गया किसी में कुछ बढा दिया गया, भरे मजमे में पादरियों के इन्जील में परिवर्तन स्वीकार करना पडा। मुनाजिरे(तर्क वितर्क) से पादरियों की शिकस्त का लाभ यह हुआ कि पादरियों का जोर शोर घट गया और उन्होंने धर्म प्रचार व प्रसार की पुस्तकें जो अधिकतर बाँटते थे एक दम बाँटना छोड दी, मौलाना और भी बडा मुनाजरा करना चाहते थे मगर पादरी फान्डर हिन्दुस्तान ही से चला गया बाद में मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी साहब से कुस्तुनतुनिया में पादरी फान्डर टकराता के मौलाना की आगमन की खबर मिलते ही वह वहाँ से भी चला गया। इसाईयत की रही सही कसर मौलाना के शागिर्दो ने तोड दी। मौलाना शरफुल हक़ वालिद इमदाद साबरी ने मौलाना रहमतुल्लाह से मुनाजरे की इजाजत लेकर इसाईयों से सैकडों मुनाजरे किये अल्हमदु लिल्लाह सबमें पादरियों को हार हुई। मौलाना रहमतुल्लाह साहब की पुस्तकें और मुनाजरे ईसाईयों के उत्तर में कलमी जिहाद था और प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 की भूमिका साबित हुई। मेरठ के धर्म योद्धाओं ने स्वतन्त्रता का युद्ध प्रारम्भ कर दिया। अन्य यौद्धओं के साथ मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी ने भी स्वतन्त्राता संग्राम में बढ चढकर हिस्सा लिया और जंग में अपने मित्रा डा.वजीर खाँ और मौलवी फेज अहमद बदाँयूनी के साथ स्वतन्त्राता संग्राम मे सम्मिलित हुए। कस्बा कैराना में जमींदारी शेखों व गूजरों के हाथों में थी जिनमें नैतिक गुण तथा उत्साह यौवन पर था। थाना भवन और कैराना का एक मोर्चा स्थापित किया गया योद्धा मुकाबला करते रहे। शामली की तहसील पर हमला किया गया। थाना भवन का मोर्चा हाजी इमदादुल्ला मुहाजिर मक्की तथा कैराना का मोर्चा मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी संभाले हुए थे। उस जमाने में शाम की नमाज के बाद धर्म यौद्वाओं के संगठन व दीक्षा के लिए नक्कारे की आवाज पर एकत्रित किया जाता और ऐलान होताः ‘‘मुल्क खुदा का और हुक्म मौलवी रहमतुल्लाह का’’ शामली की तहसील तोडने में हाफिज जामिन साहब शहीद हुए, इन्हीं कारणवश मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी का वारन्ट जारी कर दिया गया, मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने पंजीठ में पनाह ली। अंग्रेज फौज ने गाँव वालों को परेशान किया जिस पर मौलाना ने कहा इस से अच्छा हो कि मैं गिरफ़्फ़तार हो जाऊँ, इस पर गाँव के चैधरी अज़ीम साहब ने कहा कि अगर पूरा गाँव भी गिरफ़्फतार हो जाए और उनको फाँसी पर लटका दिया जाए तो ऐसे वक्त भी आपको फौज के हवाले नहीं किया जाएगा, ऐसे बलिदानी थे मौलाना के मित्रगण, यहाँ यह तथ्य उल्लेखनिय है कि इन महान स्वतनत्रता सैनानियों की पाठय पुस्तकों के इतिहास में उपेक्षा की जा रही है इन्हीं दिनों में मौलाना रहमतुल्लाह अपना नाम मुसलिहुददीन रख कर दिल्ली रवाना हुए और जयपुर व जौधपुर के खतरनाक जंगलों को पैदल तय करते हुए सूरत बन्दरगाह पहूँचे, सूरत से हज के लिए रवाना हुए एक लम्बे और कठिनाईयों से परिपूर्ण यात्रा करके अल्लाह पर विश्वास करते हुए मक्का मुअज्जमा महुँचे ताकि अल्लाह के घर शान्त वातावरण में इस्लाम को फैला सकें।
1857 में शिक्षा जगत के नायक मौलाना मौहम्मद कासिम थे जिन्होंने देवबन्द में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए एक छावनी स्थापित की बाद में उसका नाम मदरसा देवबन्द रखा गया। जिसे दारूल उलूम देवबन्द के नाम से एतिहासिक प्रसिद्धी प्राप्त है। मौलाना मौहम्मद कासिम का दृष्टिकोण था ‘‘शिक्षा एक शक्ति है’’ मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने भी इसी दृष्टिकोण के अनुसार एक मदरसा स्थापित किया जिसका नाम मदरसा सौलतिया रखा गया। धार्मिक शिक्षा मक्का से चलकर हिन्दुस्तान आयी और हिन्दुस्तानी विद्वान मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी का यह चमत्कार है कि उन्होंने इस ज्ञान को पुनः मक्का पहुँचा दिया उनके समय के पश्चात ये शिक्षा केन्द ज्ञान की ज्योति तथा धर्म की सेवा निरन्तर कर रहा है। कैराना व आसपास के इलाके के हाजी जब मक्क़ा जाते हैं तो इस मदरसे को देख कर गर्व महसूस करते हैं।
वर्तमान काल के लोकप्रिय कवि कलीम अहमद ‘आजिज’ मदरसा सौलतिया का परिचय अपनी रचना ‘यहाँ से मदीना, मदीना से काबा’ में यूँ देते हैं ‘‘ये मदरसे का मदरसा है खानकाह की खानकाह है, दफ्तर का दफ्तर है, सराय की सराय है जो जिस कैफियत का इच्छुक हो वो मिलेगी। ये एक ऐसी संस्था है जो सदियो पहले हुआ करती थी यहाँ शिक्षा का अभिलाषी ज्ञानार्जन कर सकता है बुद्धि के इच्छुक को बुद्धि मिलेगी, जनूँ के दिवानों के जुनूँ प्राप्त होता है, मुहब्बत चाहिए तो जितनी चाहिए उससे ज्यादा मिले रोटी कपडा मकान चाहिए तो बकदरे जर्फ वो भी मौजूद है फतवा चाहिए तो फत्वा हाजिर, अमानत रखनी हो तो आजाओ छोड जाओ ये घर तुम्हारा घर है, अमानत वापिस लेनी चाहो तो वह पडी है उठालों, साहित्य चाहिये तो सुबहान अल्लाह वो भी हाज़िर, संक्षिप्त ये कि मानवता का डिपार्टमेन्टल स्टोर है’’।
मौलाना रहमतुल्ला की कई रचनाएं बाजार में उपलब्ध नही वर्तमान में फरीद बुक डिपो,नई दिल्ली ने उर्दू में ‘‘मुजाहिद-ए-इस्लाम मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी’’ पुस्तक छापकर इस कमी को दूर किया है। मौजूदा अध्यक्ष मौलाना हशीम साहब ने एक बार टेलीफोन वार्ता में बताया कि मौलाना से मुताल्लिक पुस्तकें आदि पोस्ट बाक्स न0 114, मदरसा सौलतिया, मक्का से मुफ़्त मंगायी जा सकती हैं। मदरसे की वेसाईट http://www.alsawlatiyah.com/ जो अभी अर्बी में है उसे जल्द ही उर्दू और इण्डोनेशियन में भी कर दिया जाएगा। उपलब्ध पुस्तकें ‘इजालतुश्शुकूक’’ में इसाईयों के 29 सवालों के जवाब हैं और उसमें मौहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्ल्म के नबी होने पर और इन्जील ईसाइयों की धार्मिक पुस्तक में रददो बदल साबित की गयी है। पुस्तक ऐजाज-ए-ईसवी में मौलाना ने इन्जील का अविश्वसनीय होना सिद्ध किया है।
पुस्तक इजहारूल हक़ जो असल अरबी भाषा में है मौलाना की अन्तिम आयू की है जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। अंग्रेजी संस्करण लन्दन से छपा है जिसका विवरण कैराना वेबसाईट कैराना डोट नेट पर देख सकते हैं। इस पुस्तक की तैयारी में मौलाना ने अरबी,फारसी, उर्दू और दूसरी भाषाओं की पुस्तकों का अवलोकन करने के पश्चात जब ईसाईयत पर अन्तिम बार कलम उठायी तो वो गौरवशाली रचना बन गयी जिसने ईसाई संसार में तहलका मचा दिया, लन्दन टाईम्स ने पुस्तक इजहार उल हक पर टिप्पनी करते हुए लिखा है ‘अगर लोग इस पुस्तक को पढते रहे तो मजहबे ईसा की तरकी बन्द हो जायगी’ इस्लामी विद्वानों की ओर से जितनी पुस्तके इसाईयत की रोकथाम में लिखी गयी सब इजहार उल हक की रोशनी में लिखी गयीं।
मौलाना अशरफ अली थानवी बयानुल कुरआन में, मौलाना हिफजुर्रहमान ने किससुल कुरआन में, मौलाना मौहम्मद अली ने पेगाम-ए- मौहम्मदी में आपकी पुस्तकों की बहुत प्रशंसा की है।
कादनियत के मुकाबले में अल्लामा कश्मीरी मैदान में आये तो आपके अवलोकन में मौलाना रहमतुल्ल कैरानवी की रचनाऐं रहा करती और प्रार्थना किया करते ‘ अल्लाह मौलाना रहमतुल्ला को जजाऐ खेर अता फरमाऐ कि उनकी पुस्तकें इस्लामी विचारधारा की सुरक्षा में अद्वीतीय है खुदा न करे वक्त पडने पर हमारे धार्मिक विद्वानों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं । मौलाना का देहान्त रमजानुल मुबारक में 1308 हिजरी, 1861 ई0 में हुआ। आपकी कबर मक्क़ा जन्नतुल मुअल्ला नामक कब्रिस्तान में है, पहलू में हाजी इमदादुल्लाह महाजिर मक्की भी दफन हैं।
Sunday, November 15, 2009
इस मिट्टी और इस ज़मीन को पुजते हो तो इसमें दफ़न क्यौं नही हो जातें..!!!! If You Worship This Country This Soil So Why You Not Graved In This Soil???
बरहाल मेरा दोस्त जिसका मेरा साथ पिछले नौ सालों से है मुझसे झगडने लगा....कहने लगा की तेरी हिम्मत कैसे हुई ये सब लिखने की? जो "वन्दे मातरम" नही गा सकता वो अपने देश से प्यार नही करता। अगर इस देश में रहना है तो वन्दे मातरम गाना पडेगा वर्ना तुम गद्दार कह लाओगे और गद्दारों के लिये इस देश में जगह नही है तुम ये देश छोडकर जा सकते हों.......वगैरह वगैरह... (वही बातें जो इनके जैसे "कथित देशभक्त" लोग अकसर कहते है)
मैनें उसकी सब बातें सुनने के बाद उससे कुछ सवाल किये जो सुनने के बाद वो बगले झांकने लगा....उसके पास कोई जवाब नही था तो वो बात को अधुरा छॊडकर बगैर कोई जवाब दिये वहां से निकल गया....
वही सवाल मैं आप लोगों से पुछता हूं देखें आप लोगों में से शालीन तरीके से इसका जवाब कौन देता है...(इस्लाम और कुरआन को गाली दे वाले इससे दुर रहें)
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Thursday, November 12, 2009
एक भी भारतीय मुस्लमान देशभक्त नही है..!! No Indian Muslim Is Patriostic..!!!
कोई इस्लाम के "सच्चे" फ़ालोवर्स से परिचय करा रहा है, कोई मुसलमानों को बता रहा है की उन्हे "वन्दे मातरम" गाना चाहिये, कोई गद्दार कह रहा है, कोई हमें देश से बाहर निकालने को तैयार बैठा है।
वन्दे मातरम का अर्थ क्या है?? वो मुह्म्मद उमर कैरानवी बता चुके है..!!!
इसलिये सीधे मुद्दे की बात करते है...
जो लोग इस फ़तवे पर इतना बवाल मचा रहे है उन सब लोगों से मैं सवाल करना चाहता हूं "क्या वन्देमातरम गाना देशप्रेम का सर्टिफ़िकेट है?" "क्या वन्देमातरम को ना गाने वाला देशद्रोही है?" "अगर कोई मुस्लमान फ़ौजी "वन्देमातरम" नही गायेगा तो क्या वो भी देशद्रोही कहलायेगा?"
जो लोग वन्दे मातरम को लेकर इतना शोर कर रहे है उनमें से किसको "वन्दे मातरम" मुंह ज़बानी याद है??? किसको उसका अर्थ याद है??? भारत के किस शख्स ने "वन्दे मातरम" के अर्थ को अपनी ज़िन्दगी मे उतारा है??? "वन्देमातरम" हो, "जन गण मन" हो, या "सारे जहां से अच्छा" कौन इनके ऊपर अमल कर रहा है??? सबको बस हराम का पैसा चाहिये एक छोटा सा डाकिया भी कोई ज़रुरी कागज़ देने के लिये बीस से तीस रुपये मांगता है और जब भी कोई बेवकुफ़ उलेमा कोई फ़तवा देता है तो यही लोग देशभक्त और देशप्रेमी बनकर खडे हो जाते है गाली देने के लिये!
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Thursday, November 5, 2009
देश प्रेमी क्यों न गाएँ वन्दे मातरम् ? डा0 अनवर जमाल
