रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है। AZIZ BURNEY ---- Group Editor Roznama Rashtriya Sahara (Daily) Bazme Sahara (Weekly) Aalmi Sahara (Monthly)
पहली कडी
इस समय मैं केवल एक लेखक, एक पत्रकार या एक सम्पादक की हैसियत से ही स्वयं को नहीं देख रहा हूं, और इस समय मैं स्वयं को बस एक मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में भी नहीं महसूस कर रहा हूं, बल्कि मेरी इस बात को एक निष्पक्ष रिसर्च इस्कोलर के शोध पर ही आधारित समझें तो किसी सही नतीजे पर पहुंच सकेंगे। आज का यह लेख निःसन्देह मेरे नियमित पाठकों के लिए लिये तो है ही परन्तु साथ में इस लेख के द्वारा अपने हमवतन भाई बहनों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहता हूं इसलिए कि मेरे सामने राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखी वह पंक्ति है जिस पर दर्ज है ‘‘सत्यमेव जयते’’ अर्थात सच्चाई की जीत होती है।
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।
इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।
मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’
इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।
हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।
यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’
पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?
एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:
‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः
‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।
और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।
‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’
जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’
‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।
‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’
अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?
क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।
किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।
मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......
रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है। AZIZ BURNEY ---- Group Editor Roznama Rashtriya Sahara (Daily) Bazme Sahara (Weekly) Aalmi Sahara (Monthly)
पहली कडी
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।
इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।
मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।
इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’
इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।
हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।
यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।
‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’
पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?
एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:
‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः
‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।
और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।
‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’
जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’
‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।
‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’
अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?
क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।
किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।
मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी......
-----आज बात राष्ट्रीयता पर। रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा का सम्पादक हूं मैं और वो भी पहले ही दिन से, इसलिए यह अधिकार तो बनता है मेरा, ‘‘राष्ट्रीयता’’ शब्द पर बात करने का। वैसे भी मैं अपने आपको पूरी तरह राष्ट्रीय मानता हूं। यहां मुसलमान होने की तुलना की जाने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, वह धर्म है मेरा और यह राष्ट्रीयता है मेरी। बहरहाल 1991 में जब ‘राष्ट्रीय सहारा’ आरम्भ हुआ तब हिन्दी के बाद उर्दू में नाम राष्ट्रीय सहारा ही रहे या राष्ट्रीय शब्द का उर्दू अनुवाद अर्थात ‘‘क़ौमी सहारा’’ रखा जाए, यह तय किया जाना था। परम आदरणीय सुब्रत राय सहारा अर्थात सहारा श्री जी ने यह निर्णय हम पर छोड़ते हुए कहा कि आप बताएं क्या उचित रहेगा?
उस समय यह मेरा ही फैसला था जिसे चेयरमैन साहब व अन्य सभी के द्वारा स्वीकार कर लिया गया और इस तरह तय पाया कि उर्दू में नाम ‘‘राष्ट्रीय सहारा’’ ही रहेगा। आज हमारी अंग्रेज़ी पत्रिका ‘सहारा टाइम’ और टीवी चैनल ‘सहारा समय’ के नाम से पहचाने जाते हैं लेकिन उर्दू ‘‘रोजनामा राष्ट्रीय सहारा’’ के नाम से ही। उस समय मुझे यह बिल्कुल अनुमान नहीं था कि 18 वर्ष बाद जब राष्ट्रीय गीत ‘‘वंदे मातृम’’ पर बहस छिड़ी होगी तो रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
दूसरी कडी
दारूल उलूम देवबन्द का सवाल कितना उचित कितना अनुचित ?
सबसे पहले तो मैं अपने तमाम पाठकों और देशवासियों की सेवा में यह निवेदन करना चाहता हूं कि वंदे मातृम की स्वीकार्यता या उसके गाए जाने को किसी धर्म की पृष्ठ भूमि में देखना उचित नहीं होगा, बल्कि इसे राष्ट्रीय परिदृश्य में देखना होगा, राष्ट्र प्रेम के दृष्टिकोण से देखना होगा और यह भी दिमाग में रखना होगा कि इस पर आपत्ति केवल मुसलमानों की तरफ़ से ही नहीं बल्कि स्वयं राबिन्दर नाथ टैगोर जिनकी रचना को राष्ट्रगान होने का सम्मान प्राप्त है। और जिन्होंने इसकी पहली दो पंक्तियों को 1896 में गाया था। उन्होंने इस पर आपत्ति भी जाहिर की थी, और इस आपत्ति में वह अकेले नहीं थे, बल्कि ‘‘ब्रह्मो समाज’’ से संबंध रखने वाले हिन्दू भद्रजन भी मुसलमानों के साथ-साथ आपत्ति करने वालों में शामिल थे।
निःसंदेह कि अब मेरा यह श्रृंखलाबद्ध लेख ‘‘वंदे मातृम’’ पर केन्द्रित है जिसे राष्ट्रगीत क़रार दिया गया है परन्तु मैं आज उन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक का स्थान प्राप्त है। अतएव सबसे पहले ‘‘राष्ट्रीय ध्वज’’ की बात करना चाहूंगा। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में तीन अलग-अलग रंग की सीधी पट्टियां हैं, जिनमें समान अनुपात में गहरा केसरिया रंग सबसे ऊपर है, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। सफ़ेद पट्टी के बीच में नीले रंग का चक्कर, जिसे अशोक के चक्र से लिया गया है, जिसमें 24 तीलियां हैं, इसे राष्ट्रीय ध्वज की हैसियत से 22 जुलाई 1947 को अपनाया गया।
यूं तो रंगों का कोई धर्म नहीं होता फिर भी रंगों को धर्मों की पहचान से जोड़ कर भी देखा जाता है और इस दृष्टि से अगर देखें तो हरे रंग को मुसलमानों से और केसरिया रंग को हिन्दुओं से जोड़ कर देखा जाता है। जिस समय हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार किया गया क्या मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति की कि हरा रंग सबसे नीचे क्यों है? स्वाधीनता की लड़ाई में हम किसी से पीछे तो न थे और क्या इस बात पर आपत्ति की गई कि भगवा रंग सबसे ऊपर क्यों है? क्या किसी ने कहा कि चलो सफ़ेद रंग जो अमन व शान्ति का प्रतीक है उसे ही सबसे ऊपर रखा जाए, या झंडे की शक्ल कुछ ऐसी हो कि केसरया और हरा रंग बराबरी के महत्व के साथ शामिल किए जाएं न कोई ऊपर न कोई नीचे, शायद नहीं।
यह भी ध्यान में रहे कि जिस समय अर्थात 22 जुलाई 1947 को इसे हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया उस समय तक पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आया था, अर्थात यह राष्ट्रीय ध्वज सभी के लिए स्वीकार्य था, सभी की रज़ामंदी से स्वीकार किया गया था, अर्थात इस निर्णय में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे सरदार पटेल भी और मुहम्मद अली जिन्ना भी और बात केवल एक जिन्ना की नहीं, बल्कि वह समस्त मुसलमान भी शामिल थे जो बाद में पाकिस्तान के नागरिक कहलाए, किसी को भी इस ध्वज पर कोई आपत्ति नहीं थी।
अब बात राष्ट्रीय चिन्ह की- हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जो कि अशोक के सिंह इस्तम्भ, शेरों वाली लाठ से लिया गया है, जिसमें चार शेर एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं, नीचे घण्टे की शक्ल के पदम के ऊपर एक चित्र, वल्लरी में एक हाथी चैकड़ी भरता हुआ, एक घोड़ा, एक सांड और एक शेर की उभरी हुई मूर्तियां हैं इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं जो लोहे के पत्तल को काट-काट कर बनाए गए हैं। संग स्तम्भ के ऊपर धर्म चक्र रखा हुआ है। इसमें केवल तीन शेर दिखाए देते हैं चैथा दिखाई नहीं देता, पट्टी के बीचों-बीच उभरी हुई नक्काशी में चक्कर है जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं और बाएं किनारों पर अन्य चक्करों के किनारे हैं। भारत सरकार ने इस चिन्ह को 26 जनवरी 1950 को अपनाया
‘‘मंडिकोपनिषद (उपनिषद का नाम) का सूत्र के बाद ‘सत्यमेव जयते’ देवनागरी लिपि में अंकित है जिसका अर्थ है सत्य की ही विजय होती है।’’
इस राष्ट्रीय प्रतीक पर कोई टिप्पणी न करते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूंगा कि क्या कोई आपत्ति किसी भी ओर से देखने या सुनने को मिली? किसी इस्लामी संस्था या मुसलमानों के प्रतिनिधियों ने कभी इसे वाद-विवाद का विषय बनाया? शायद कभी नहीं?
यह बात कुछ केन्द्रीय विषय से अलग लग सकती है मगर मैं अपने पाठकों से निवेदन करना चाहता हूं कि इस शुष्क लेख को इसलिए सहन कर लें कि इन पंक्तियों के द्वारा मैं कोई महत्वपूर्ण बात करने का इरादा रखता हूं। शायद इसे उस समय तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि बात पूरी न हो जाए। अलबत्ता इरादा क्या है यह मैं शुरू में ही सामने रख देना चाहता हूं ताकि पढ़ने वालों और सुनने वालों की दिलचस्पी बनी रहे इस लेख के अन्तर्गत, मैं इन तमाम प्रतीकों पर बात करना चाहता हूं जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय प्रतीक स्वीकार करते हैं जो हमारी राष्ट्रीय निशानियां हैं।
उसके बाद मैं साबित यह करना चाहता हूं कि यदि तमाम राष्ट्रीय निशानियों में से किसी एक पर भी ऐसी आपत्ति देखने को नहीं मिली जैसी कि वंदे मातृम पर देखने को मिल रही है तो हमें पूरी ईमानदारी से इस पर ध्यान देना होगा कि आख़िर इसका कारण क्या है और हमें इस सच्चाई पर भी ध्यान देना होगा कि हमारी इन सभी राष्ट्रीय निशानियों के से ऐसी कोई भी निशानी नहीं है, सिवाए वंदे मातृम के जहां हमने किन्हीं दो राष्ट्रीय निशानियों को एक ही श्रेणी में रखा हो।
उदाहरणतः हमारा राष्ट्रीय ध्वज एक है तो है, दो राष्ट्रीय ध्वजों को यह सम्मान प्राप्त नहीं है कि हम दोनों को अपना राष्ट्रीय ध्वज मानें। अगर हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जिसका अभी उल्लेख किया एक है तो है, जो सभी के लिए स्वीकार्य है, ऐसा नहीं कि हमने दो राष्ट्रीय चिन्ह अर्थात राष्ट्रीय निशान स्वीकार कर लिए हों और दोनों को एक जैसी हेसियत प्राप्त हो, तब फिर ऐसी क्या विवश्ता हमारे सामने आई कि हमारे एक राष्ट्रगान के होते हुए हमें एक और राष्ट्रीय गीत की आवश्यकता महसूस हुई? यह उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि हमने राष्ट्रीय पंचांग अर्थात केलण्डर भी एक ही माना है, जबकि एक से अधिक केलण्डर भारत में आज भी मौजूद हैं और प्रयोग में भी। राष्ट्रीय पशु एक ही है, किसी ने यह बहस नहीं की कि उसके पसंदीदा अन्य किसी पशु को भी राष्ट्रीय पशु का स्थान प्राप्त हो।
राष्ट्रीय पक्षी वह भी एक ही सबको स्वीकार्य है, यहां तक कि राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय वृक्ष, राष्ट्रीय फल किसी पर न कोई विवाद न बहस न एक साथ दो वृक्ष, दो फूल या दो फल एक जैसे महत्व वाले। अर्थात तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों में केवल एक राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत यही दो हैं और इनमें से भी विवाद केवल ‘‘वंदे मातृम पर है और यह विवाद भी इतना कि इसे राष्ट्र से प्रेम की कसौटी बनाकर पेश किया जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो सम्भवतः हमारी बहस इतनी लम्बी न होती, मगर अब चूंकि यह राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय है और हमारे बनाए बिना है तो फिर यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि तमाम सच्चाइयों के साथ इसे राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय परिपेक्ष में राष्ट्र के सामने रख दें फिर जो निर्णय राष्ट्र का।
नोटः आज से हम रोज़ एक ऐसा गीत भी प्रकाशित करने जा रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष के दौरान लिखा गया और गाया गया ताकि हमारे पाठक अनुमान कर सकें कि किस-किस गीत ने आज़ादी के मतवालों के दिलों में वह स्थिति पैदा की होगी कि हमारी आज़ादी का सपना वास्तविकता में बदल गया और हम गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने में कामयाब हुए, और साथ ही यह भी कि वह आज़ादी के गीत किस-किस ने लिखे और किस-किस भाषा में। हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय वह कौन-कौन सी भाषाएं थीं जो लोकप्रिय थीं और किन-किन भाषाओं में कही जाने वाली बात कितना प्रभाव रखती थी। अगर हमारी बात को समझना ज़रा भी कठिन लगे तो याद करें लता मंगेशकर की आवाज़ में गूंजने वाला यह गीत:
‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों! ज़रा आँख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कु़रबानी’’।
..............(जारी)
हमारा देस
जग से भला संसार से प्यारा।
दिल की ठन्डक आंख का तारा।
सबसे अनोखा सबसे नियारा।
दुनिया के जीने का सहारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
इसके दरया, इसके समुन्दर।
इसके संगम, इसके बंदर1।
प्रेम की मूरत, प्रीत का मंदर।
हुस्नो मुहब्बत का गहवारा2।
प्यारा भारत देस हमारा।।
कितनी पुर क़ैफ़3 इसकी अदाएं।
कितनी दिलकश इसकी फ़िज़ाएं।
मुश्क से बढ़कर इसकी हवाएं।
ख़ुल्द4 से बेहतर इसका नज़ारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
मुल्क को हासिल हो आज़ादी।
ख़त्म हो दौरे सितम ईजादी5।
दूर हो इसकी सब बरबादी।
चर्ख़े6 पे चमके बन के तारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हम में पैदा हो यक जाई।
सब हों बाहम भाई भाई।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई।
गाएं मिलकर गीत यह प्यारा।
प्यारा भारत देस हमारा।।
हकीम मोहम्मद मुस्तफा ख़ां
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हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हिन्दू धर्म के प्रतीक भी हैं
क़ुरआने करीम पूर्ण जीवन दर्शन है, मानव जीवन के लिए। विश्व की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे क़ुरआने करीम की रोशनी में समझा न जा सके। आयाते क़ुरआनी को समझना जब हमारे लिए मुश्किल होता है तो हम हदीस की तरफ़ लौटते हैं और जब कोई हदीस समझ से ऊपर होती है तो हम क़ुरआन की तरफ़ लौटते हैं। क़ुरआने करीम के द्वारा ईश्वर ने क्या संदेश दिया है इसे समझने के लिए कभी-कभी केवल आयाते क़ुरआनी को पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि हमें अनुवाद, टीकाऐं और उसके उतरने के कारण का भी सहारा लेना पड़ता है। जब हम इस दृष्टिकोण से ध्यान पूर्वक अध्य्यन कर लेते हैं तब उस संदेश तक पहुंचना बहुत सरल हो जाता है।यही कार्य पद्धति यदि हम विश्व के सभी मामलों में गूढ़ समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यवहार में लाएं तो इस पवित्र आकाशीय पुस्तक का प्रकाश हर दृष्टिकोण से हर पक्ष को स्पष्ट कर देता है। ‘वन्दे मातरम’ भारतीय समाज के लिए पिछले लम्बे समय से अनसुल्झी पहेली बना हुआ है। अक्सर इस पर विवाद खड़ा हो जाता है, लम्बी बहस चलती है, फिर लोग थक जाते हैं, नई समस्याऐं अपनी ओर ध्यान केन्द्रित कर लेती हैं और यह समस्या पीछे चली जाती है। आज़ादी के पूर्व से लेकर अब तक इसी प्रकार यह सिलसिला जारी है।यदि दारूल उलूम बेवबंद की गरिमा को निशाना न बनाया जाता तो शायद हमें इतनी गहराई से शोध की आवश्यक्ता पेश न आती। परन्तु अब जबकि देशवासियों के एक वर्ग विश्ेष ने देशप्रेम का पैमाना वन्दे मातरम को ही मान लिया है तो हमें ज़रूरी लगा कि क़ौम के दामन पर दाग़ लगाने की इस कोशिश को असफ़ल बनाने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ तमाम तथ्यों को भारत सरकार और जनता के सामने रख दिया जाये। मैं फिर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वन्दे मातरम के सम्बंध में मेरे लेख न तो इसके विरोध में हैं और न इसके समर्थन में। हमारा प्रयास तो बस इतना है कि हम सब तमाम सच्चाइयों को खुली आंखों से देख लें फिर जिसकी सद्बृद्धि जो उचित समझे.कोई भी बात कब कही गई, किन परिस्थितियों में कही गई, किस काल में कही गई और किस अवसर पर कही गई, जब तक हम इसका अध्य्यन नहीं करेंगे, बात की गहराई तक पहुंचना आसान नहीं होगा। राष्ट्र गीत की हैसियत रखने वाले वन्दे मातरम पर बहस आरम्भ करने के तुरन्त बाद मैंने आवश्यक समझा कि इस ऐतिहासिक परिदृश्य की ध्यान पूर्वक विवेचना की जाये, कि जब इसे लिखा गया वह परिस्थितियाँ किया थीं? लिखने का कारण क्या था? काल क्या था और कब इसे ‘राष्ट्र गीत’ का दर्जा दिया गया? साथ ही हमारी राष्ट्रीय पहचान से सम्बद्ध जितनी भी निशानियाँ हैं उनका भी गहराई से अध्य्यन किया जाये।
यह भी देखा जाये कि केवल राष्ट्र गीत ही दो हैं या हमारी अन्य राष्ट्रीय निशानियाँ भी दो-दो हैं फिर जब हम किसी एक का चुनाव करते हैं तो हमारी नज़र इस वर्ग में आने वाली अन्य अनेक चीज़ों पर भी होती है, उदाहरण स्वरूप मैं अपने लेख के साथ पिछले कई दिन से एक-एक कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता, गीत, तराना या आज की लोरी सब के सब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन कविगण द्वारा लिखे गए जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों का काव्य है, जो स्वतंत्रता सैनानियों के उत्साह को बढ़ाने के इरादे से लिखी गयीं।
आज इस लेख के साथ प्रकाशित की जाने वाली लोरी मोहतरम अख़तर शीरानी की कृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि इस दौर में एक माँ अपने अल्पायु बच्चे को नींद की गोद में पहुंचने से पूर्व भी उसे देशभक्ति का गीत सुनाती थी और उसके मन व मस्तिष्क में वह उत्साह पैदा करती थी कि वह अपने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन बिताये। यह भावना थी हमारे शायरों की और यह वह गीत हैं जिनसे घबरा कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़ब्त कर लिया था। इसलिए कि वह समझते थे कि उनका प्रभाव इतना गहरा है कि उनकी सरकार की चूलें हिल सकती हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या ‘वन्दे मातरम्’ भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़ब्त किया गया?
शोध जारी है, वैसे भी अभी मैंने सीधे रूप में वन्दे मातरम् पर बहस का सिलसिला शुरू नहीं किया है, हां अल्बत्ता आनन्द मठ के कुछ हवाले ज़रूर पेश किये हैं। इन्शा अल्लाह जल्द ही तमाम विस्तार के साथ इस पर भी क़ल्म उठाया जायेगा। अभी तक तो राष्ट्रीय प्रतीकों पर बातचीत जारी थी, इनमें से जिन तीन का उल्लेख शेष रह गया आज उस पर बात समाप्त करना चाहता हूँ और वह तीन प्रतीक हैं हमारा राष्ट्रीय फल, राष्ट्रीय फूल और राष्ट्रीय वृक्ष।हमारा राष्ट्रीय फल ‘आम’ है वेदों में आम को भगवान का फल बताया गया है, मैं इस पर कोई बहस नहीं करना चाहता, मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत पसन्द थे और शायद सभी भारतियों की पहली पसन्द भी आम हैं। हां फूल पर कुछ वाक्य अवश्य लिखना चाहेंगे। ‘कमल’ के फूल को भारत मंे प्राचीन काल से ही पवित्र माना जाता रहा है और भारतीय देवमाला में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए यह फूल विशेष महत्व रखता है। इस धर्म के अनुसार कमल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी और पार्वती से जोड़ा जाता है। भगवान विष्णु के सौन्र्दय का उल्लेख करने के लिए कमल से उनको उपमा दी जाती है, अनेक धार्मिक रीतियों को पूरा करने में भी कमल के फूल का प्रयोग किया जाता है।वेदों में भी कमल का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि इन्ही विशेषताओं के आधार पर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनाव चिन्ह चुना है। अन्यथा पण्डित जवाहर लाल नेहरू की शेरवानी पर मुस्कराने वाला गुलाब का फूल भी अपने सौन्र्दय और सुगन्ध के लिए तमाम फूलों में एक विशेष स्थान रखता है और वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रेम करने वाले युवा लड़के लड़कियों के द्वारा फूल उनका प्रेम सन्देश बन कर उनके प्रेमी तक पहुंचता है और हमारे लिए तो इसका महत्व यूँ भी बढ़ जाता है कि ख़वाजा ग़रीब नवाज़ (रह।) की दरगाह हर समय इसी गुलाब की सुगन्ध से महकती रहती है और यह फूल तीर्थ स्थल ‘पुष्कर’ से आता है।
बहरहाल अब उल्लेख राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ का। नीम के हवाले से आयुर्वेद और यूनानी दवाइयों के विशेषज्ञ बहुत कुछ कहते हैं, हमारे पूर्वज भी नीम के वृक्ष को आंगन में लगाना स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक समझते हों, यह सब अलग बात है, परन्तु हमारा राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ है। जब मैं बरगद की विशेषताओं का अध्य्यन कर रहा था तो इतनी सामग्री मेरे सामने थी कि कई लेख केवल बरगद के धार्मिक पहलू को सामने रख कर लिखे जा सकते हैं। फल और फूल की दृष्टि से तो बरगद का उल्लेख निरर्थक है, इसलिए कि इस पर लगने वाले फूल और फल उल्लेखनीय नहीं, हां अल्बत्ता इसकी विशालता शेष सभी वृक्षों से बढ़कर है।अब रहा प्रश्न इसे हिन्दू धर्म के महत्व के रूप में देखने का तो प्राचीन काल से ही भारत में इसकी पूजा की जाती रही है। ऋज्ञ वेद और अथर वेद ने इसकी पूजा को अनिवार्य क़रार दिया है। हिन्दू देव माला में भगवान शिव को बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुयायी इसे ‘कल्प वृक्ष’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि एक ऐसा वृक्ष जो तमाम मुरादों को पूरा करता है। सम्भव है इसका एक कारण यह भी रहा हो कि जब चित्रकूट की ओर जाते हुए सीता जी के रास्ते में यह वृक्ष पड़ा तो उन्होनें इसे नमस्कार किया और अपने पतिव्रत धर्म के पालन के लिए इस वृक्ष से प्रार्थना की। हाथ जोड़ कर सीता जी बहुत देर तक मौन इसके सामने खड़ी रहीं और अपनी मुराद को पूरा करने की प्रार्थना की जिसे संस्कृत के इस श्लोक में दर्शाया गया हैतेषु ते प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात् ।श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम् ।।न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत ।नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम् ।।
रामायण, अयोध्या काण्ड, 2, पृष्ठ 23-24, 55
‘हे महावट वृक्ष जो यमुना के किनारे स्थित है और शीतल छाया से आच्छादित है, मुझे पतिव्रता धर्म का पालन करने की सार्मथ्य दो और निर्विधनता का आर्शीवाद दो।’और जब बनवास से सीता जी श्रीराम जी के साथ वापस लौट रही थीं तो इस सृन्दर वृक्ष को देख कर श्रीराम जी ने सीता जी को सम्बोधित करके कहा कि तुम ने जिस वृक्ष से प्रार्थना की थी, यह अन्य वृक्षों के बीच इस समय ऐसा ही स्पष्ट नज़र आ रहा है जैसे अनेक नीलमों के बीच पुखराज जड़ा हो। सम्भवतः सही कारण है कि आज भी विवाहित हिन्दू महिलाएं लम्बे और ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन के लिए बरगद की पूजा करती हैं।अपने इन राष्ट्रीय चिन्हों के सम्बंध में और भी कुछ लिखा जा सकता है परन्तु हम बात को और लम्बा नहीं करना चाहते, इसलिए कि हमें अब वन्दे मातरम् की तरफ़ लौटना है, हां इतना लिखने के पीछे भी उद्देश्य केवल यह था कि इस खोज से जो सच्चाई सामने आती है उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि तमाम राष्ट्रीय चिन्हों का चुनाव करते समय हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत के भाग्य विधाताओं ने क़दम-क़दम पर एक धर्म विशेष के प्रतिनिधित्व का ख़याल रखा था।
लोरी
कभी तो रहम पर आमादा बे रहम आसमाँ होगा।
कभी तो ये जफ़ा पेशा मुक़द्दर मेहरबाँ होगा।
कभी तो सर पे अब्रे रहमते हक़ गुलफ़िशां होगा।
मुसर्रत का समाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
किसी दिन तो भला होगा ग़रीबों की दुआओं का
असर ख़ाली न जाएगा ग़म आलूद इलतिजाओं का।
नतीजा कुछ तो निकलेगा फकीराना सदाओं का।
ख़ुदा गर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
ख़ुदा रख्खे जवाँ होगा तो ऐसा नौजवाँ होगा।
हुसैन व फ़हमदाँ होगा दिलेरो तैग़रां होगा।
बहुत शीरी जुबाँ होगा बहुत शीरी बयाँ होगा।
यह महबूबे जहाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।
वतन और क़ौम की सौ जान से ख़िदमत करेगा यह।
ख़ुदा की और ख़ुदा के हुक्म की इज़्ज़त करेगा यह।
हर अपने और पराए से सदा उल्फ़त करेगा यह।
हर इक पर मेहरबाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
मेरा नन्हा बहादुर एक दिन हथियार उठाएगा।
सिपाही बनके सूए अर्सा गाहे रज़्म जाएगा।
वतन के दुश्मनों की ख़ून की नहरें बहाएगा।
और आख़िर कामरां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन की जंगे आज़ादी में जिसने सर कटाया है।
ये उस शैदाए मिल्लत बाप का पुरजोश बेटा है।
अभी से आलमें तिफ़ली का हर अन्दाज़ कहता है।
वतन का पासबां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
है उसके बाप के घोड़े को कब से इन्तिज़ार उसका।
है रस्ता देखती कब से फ़िज़ाए कारज़ार उसका।
हमेशा हाफ़िज़ो नासिर रहे परवरदिगार उसका।
बहादुर पहलवाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
वतन के नाम पर इक रोज़ यह तलवार उठाएगा।
वतन के दुश्मनों को कुन्जे तुरबत में सुलाएगा।
और अपने मुल्क को ग़ैरों के पंजे से छुड़ाएगा।
ग़ुरूरे ख़ान्दाँ होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सफ़े दुश्मन में तलवार उसकी जब शोले गिराएगी।
शुजाअत बाज़ुओं में (आग) बन के लहलहाएगी।
जबीं की हर शिकन में मर्गे दुश्मन थरथराएगी।
यह ऐसा तेग़ रां होगा
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
सरे मैदान जिस दम दुश्मन उसको घेरते होंगे।
बाजाए ख़ूं रगों में उसकी शोले तैरते होंगे।
सब उसके हमला ऐ शेराना से मुंह फेरते होंगे।
तहो बाला जहां होगा।
मेरा नन्हा जवाँ होगा।।
अख़्तर शीरानी
1।अत्याचारी, 2। ईश्वरीय कृपा के बादल, 3। फूलों की वर्षा, 4. ख़ुशी, 5. दुखमय, 6. याचनाएं, 7. आवाज़ें, 8. समझदार, 9. कटार चलाने वाला (योद्धा), 10. मीठा, 11. प्रेम, 12. तरफ़, 13. युद्ध का मैदान, 14. सफल, 15. राष्ट्र प्रेमी, 16. बचपन, 17. रखवाला, 18. युद्ध का वातावरण, 19. रखवाला, 20. सहायक, 21. पालनहार, 22. क़ब्र का कोना, 23. गर्व, 24. पंक्ति, 25. बहादुरी, 26. माथा, 27. मृत्यु, 28. शेरों जैसा आक्रमण, 29. उलट-पलट
बेटा तू ठीक कहता है, तू जवाब ही नहीं देता, सवाल ही खत्म कर देता है, पहले कोई जवाब न दे सका अब तो यह फाइनल शाट है, बर्नी साहब के इस शाट की तो गेंद ही नहीं मिलेगी,
ReplyDeleteबधाई
कभी अवध आओ तो जरूर मिलना
अवधिया चाचा
जो कभी अवध ना गया
काशिफ साहब ने अपने चर्चित लेख में कहा था 'वुदे मातरम पर जो कहना है वह मुहम्मद उमर कैरानवी कह चुके' अग आगे बात करो, तब मैंने कहा था कि मैं कह नहीं चुका अभी कहना है, इस पोस्ट या ब्लाग से में कह रहा हूं शब्द बर्नी साहब के हो, वेसे मुझे लग रहा है यह रहेगा 'फाइनल शाट' आप किया कहते हो,
ReplyDeleteदूसरी बात नजरे बद से बचाने के लिये में नीचे सुपर वाइरस डाल रहा हूं किसी को बुरा लगे या अच्छा, क्यूं डाल रहा हूं यह मैं जानूं या खुदा जाने
इस लिए जिस पर फुरसत हो
signature:
विचार करें कि मुहम्मद सल्ल. कल्कि व अंतिम अवतार और बैद्ध मैत्रे, अंतिम ऋषि (इसाई) यहूदीयों के भी आखरी संदेष्टा? हैं या यह big Game against Islam है?
antimawtar.blogspot.com (Rank-2 Blog) डायरेक्ट लिंक
अल्लाह का चैलेंज पूरी मानव-जाति को
अल्लाह का चैलेंज है कि कुरआन में कोई रद्दोबदल नहीं कर सकता
अल्लाह का चैलेंजः कुरआन में विरोधाभास नहीं
अल्लाह का चैलेंजः आसमानी पुस्तक केवल चार
अल्लाह का चैलेंज वैज्ञानिकों को सृष्टि रचना बारे में
अल्लाह का चैलेंज: यहूदियों (इसराईलियों) को कभी शांति नहीं मिलेगी
छ अल्लाह के चैलेंज सहित अनेक इस्लामिक पुस्तकें
islaminhindi.blogspot.com (Rank-3 Blog)
डायरेक्ट लिंक
aesa pehli bar dekha
ReplyDeleteyeh bhi khoo rahi,
ReplyDeleteइस जानकारी को हम अपने ब्लाग पर लगायेंगे
ReplyDeleteहमारा ब्लाग है
http://wandematram.blogspot.com/
kis par bharosa karen aur kis par nahi...sab apni siyasat chmkane men lage hain...
ReplyDelete@ मादर-ए-वतन , खुद पे विश्वास करो, अगर तुम दूसरों को समझ नहीं सकती तो किसी पे विश्वास ना करो, अगर समझ लो तो यह दुनिया तुम्हारे आगे बच्चों का खेलने का मैदान है, जहां शब व रोज़ तमाशे तमाशे तमाशे
ReplyDeleteअवधिया चाचा
जो कभी अवध ना गया
This is noble work it should be continued without fail,
ReplyDelete(Dr. B. ISLAM)
Divisional Secretary
KVS Bharat Scouts and Guides
Dehradun Division
& Yoga Teacher, KV Pithoragarh
email: doctorislam@gmail.com
M- 09897936687(U.K.), 09810224080(Delhi)
काबिले तारीफ़ लेख-
ReplyDelete- मेरी और से.............
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
बहुत सही लेख !
ReplyDeleteइन दिनों एक बड़े काम की वजह से नेट पर आना न के बराबर होता है, और वो भी कुछ दिनों में ख़त्म सा हो जायेगा... आप हमारी अंजुमन का ये काफ़िला सतत यूँ ही चलता रहे, के लिए इसी तरह प्रयासरत रहिये... छः महीने यूँ ही गुज़र जायेंगे.
सलीम खान
बहुत उम्दा लेख...अज़ीज़ जी, बहुत सही लिखा है आपने...
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया...इस लेख को मैं अपने ब्लोग पर छापना चाहुंगा
बहुत उम्दा लेख...अज़ीज़ जी, बहुत सही लिखा है आपने...
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया...इस लेख को मैं अपने ब्लोग पर छापना चाहुंगा
भाई, हम क्या अबतक हिब्रू में बोल रहे थे?
ReplyDeleteहमारा भी यही मानना है कि आम मुसलमान को देशभक्ति का सर्टिफिकेट किसी को देने की जरूरत नहीं। लेकिन जो मसला सन 47 से पहले खतम हो गया, उसे फिर उभारने का जिम्मेदार कौन है?..आपके उलेमा।
कभी-कभी कुछ बातें व्यक्तिगत निर्णय के लिये भी छोड़ देनी चाहियें। वन्दे मातरम गाना न गाना क्या किसी मुस्लिम का व्यक्तिगत निर्णय नहीं हो सकता? हर बात में आपका मजहब इतना खतरे में क्यों पड़ जाता है कि फ़तवे जारी करने पड़ते हैं। जहाँ तक मेरे अल्पज्ञान का प्रश्न है, मुझे लगता है कि ये फ़तवे आम मुसलमान पर फ़र्ज़ नहीं हैं, बल्कि वैकल्पिक हैं... लेकिन करोड़ों पिछड़े-निरक्षर मुसलमानों में से किसे यह बात पता है? उनके लिये तो यह अल्लाह का हुक़्म है।
अपने मदरसों में दीनी तालीम के साथ-साथ साइंस भी पढ़ाइये, उन्हें सरकारी-प्राइवेट कॉलेजों में जाने के खिलाफ़ फतवे न दीजिये। आपके क़ौम की मशालें ये नई पीढ़ी ही बनेगी, इन्हें अल्ला-अल्ला-खैर-सल्ला में ही खम न कर दीजिये..