
तालीम के लब्ज़ों को हम तीर बना लेंगे।
मिसरा जो बने पूरा शमशीर बना लेंगे।
जाहिल न रहे कोई, ग़ाफ़िल न रहे कोई।
हम मर्ज कि दवा को अकसीर बना लेंगे।
रस्मों के दायरों से हम अब निकल चूके है।
हम ईल्म की दौलत को जागीर बना लेंगे।
अबतक तो ज़माने कि ज़िल्लत उठाई हमने।
ताक़िद ये करते हैं, तदबीर बना लेंगे।
जिसने बुलंदीओं कि ताक़ात हम को दी है।
हम भी वो सिपाही की तस्वीर बना लेंगे।
मग़रीब से या मशरीक से, उत्तर से या दख़्ख़न से।
तादाद को हम मिल के ज़ंजीर बना देंगे।
मिलज़ुल के जो बन जाये, ज़ंजीर हमारी तब।
अय”राज़” इसी को हम तक़दीर बना लेंगे।
bahut Badhiya....
ReplyDeleteअबतक तो ज़माने कि ज़िल्लत उठाई हमने।
ReplyDeleteताक़िद ये करते हैं, तदबीर बना लेंगे...
ग्रेट, अच्छी रचना... आपका शुक्रिया...
स्पष्ट संवेदनाएँ
ReplyDelete---
Tech Prevue: तकनीक दृष्टा
मिसरा जो बने पूरा शमशीर बना लेंगे।
ReplyDeleteबहुत खूब कहा आपने. आगाज़ ही तो अंजाम की पहली सीढी है.
बेहतरीन
मिलज़ुल के जो बन जाये, ज़ंजीर हमारी तब।
ReplyDeleteअय”राज़” इसी को हम तक़दीर बना लेंगे।
वाह बहुत ही खुब.........
जिसने बुलंदीओं कि ताक़ात हम को दी है।
ReplyDeleteहम भी वो सिपाही की तस्वीर बना लेंगे।
-बहुत सुन्दर.आनन्द आ गया. बधाई.
लेखनी प्रभावित करती है.
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